

लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
व्याकरण भाषा का मेरुदण्ड है, ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। कोई भी ग्रंथ किसी भाषा में लिखी होती है तो वह व्याकरण के सूत्रों से बंधी होती है। हमारे धर्मशास्त्र, इतिहास, पुराणादि संस्कृतव्याकरण के सूत्रों से बंधे हैं। उनका अनुवाद करने हेतु हमें उन साहित्यों पर व्याकरण शोध करना होता है। उसके बाद अर्थ के छः भेदों में उसका रूपान्तरण होता है। तदनन्तर एक व्याख्या स्वरूप की प्राप्ति होती है जिसमें उस वाक्य/श्लोक का तात्पर्यज्ञान संभव होता है। अर्थ के इन्हीं छः भेदों में एक “भावार्थ” भी है। यदि हम व्याकरण को छोड़कर सीधे भावार्थ पर पहुंच जावें तो गड़बड़ होती है। व्याकरण अर्थानुरूप परिणित नहीं होता अर्थात् व्याकरण अर्थ से सदा स्वतंत्र है। किन्तु अर्थ/भाव व्याकरण से परतंत्र है। वह व्याकरणानुसार परिवर्तित होता है। यही विधि है। व्याकरण का इतना महत्व है कि दो वाक्यों के बीच का अन्तराल/अवसान (Space) भी अर्थ को परिवर्तित कर देता है, अतएव लेखक व्याकरणानुरूप ही लिखा करते हैं।
व्याकरण में अल्पज्ञता से ही हमें भ्रम होता है। भ्रम होना मूर्खता नहीं अपितु भ्रम होने पर किसी ज्ञानी के पास न जाकर स्वयं ही निष्कर्ष निकाल लेना ही मूर्खता है। यदि व्यक्ति को पता नहीं कि वह समझ नहीं पाया तथा किसी ज्ञानी के माध्यम से समझाए जाने पर भी उसके बात को, सिद्धान्त को न मानना हठ कहलाता है। हमारा व्याकरण जिज्ञासुओं हेतु सरल है तथा हठियों हेतु कठिन। एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। एक प्रत्यय से अर्थ परिवर्तित हो जाता है। अर्थ के ही दो अर्थ हैं। एक अर्थ अर्थात् अर्थ, दूसरा सम्पत्ति। अब जो व्याकरण का अल्पज्ञ है वह चतुर्विध पुरुषार्थ में प्रयुक्त “अर्थ” को न समझकर भ्रमित न हो जाएगा?
प्रत्यय भी विभिन्न हैं। एक धातु का उदाहरण लेकर चलते हैं। अद् धातु खाने हेतु प्रयुक्त है। इसमें यदि हम शतृँ लगाते हैं तो इसका रूप परिणित हो जाता है तथा यह अदन् बन जाता है। इसका संकेत निरन्तर चल रहे कार्य की ओर होगा। वहीं क्त प्रत्यय लगा दें तो इसका रूप जग्धः, जग्द्धः या अन्नः होगा। यह भूत हेतु संकेत होगा। वहीं यदि हम इसी धातु के पूर्व में “अव” लगा दें तो इसका रूप लट् परस्मै से अवात्ति हो जाएगा। इस धातु का अर्थ ही बदल जाएगा। पहले जहाँ ये खाने का संकेत कर रहा था, अव के लगने के उपरान्त ये खाना छोड़ने का संकेत देने वाला बन जाएगा। कहने का अर्थ यही है कि एक अक्षर से ही सारा अर्थ परिवर्तित हो जाता है।
हमारे भारत में संत कबीर बड़े पहुंचे हुए सन्त हुए। उनके भक्त उनको भगवान् के समान मानते हैं। यह उनका भाव है। किन्तु गड़बड़ी तब होने लगती है जब वे ये कहने लगते हैं कि वेदों में, गीता आदि में भी कबीर का नाम है। कैसे? ये उदाहरण कुछ ऐसा देते हैं।
“समिद्धो अद्य मनुषो दुरोणे देवो देवान् यजसि जातवेदः । आ च वह मित्रमहश्चिकित्वान् त्वं दूतः कविरसि प्रचेताः॥“
– अथर्ववेद काण्ड ५|१२|१
यहाँ “कविरसि” में वे कबीरदेव को बताते हैं। वेदों में अनेक ऋचाएं कवि को समर्पित हैं। तो यह उन सारी ऋचाओं के रारेफ से भ्रमित होकर कविर् को कबीर कहते हैं। अब देखिये, कबीर और कविर् में अंतर है न? व और ब भिन्न हैं। इ तथा ई भिन्न हैं। इतने से ही संस्कृत में अर्थानर्थ हो जाता है। इसी प्रकार अभी एक भागवत कथावाचक अनिरुद्धाचार्य जी नें अष्टम स्कंध के श्लोकार्ध “उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान् मृधे” में राधा का नाम है, ऐसा कहा। भ्रम भोले भाले अनजान लोगों को हो तो आश्चर्य नहीं किन्तु व्यासमंच पर बैठे एक वक्ता जब ऐसी बात करें तो बड़ी हताशा तथा चिन्ता की बात है। ऐसे में वक्ता का लक्षण “वेदशास्त्रविशुद्धकृत्” सिद्ध कैसे होगा?
“कविः असि” ऐसा विच्छेद कविरसि का होगा। यहाँ पाणिनीय सूत्र ससजुषोरूः लागू हो रहा है जो विसर्ग संधि का सूत्र है। इसके अनेक उदाहरण हैं। जैसे धनुर्धर, निर्बल, निरात्मा, आयुर्वेद, दुर्गति आदि आदि।
बात यदि दण्डैराधावन्तो का करें तो इसका उद्धरण कुछ इस प्रकार है,
“कबन्धास्तत्र चोत्पेतुः पतितस्वशिरोऽक्षिभिः। उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान् मृधे॥“
– भागवत ८|१०|४०
इसमें राधावन्तो मानते हुए अनिरुद्धाचार्य जी ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि राधाजी का नाम भागवत जी में प्राप्य है। उनको टोकते हुए श्री रामकृपालु त्रिपाठी जी ने इस बात को नकारा। इसके उपरान्त अनेक विद्वान् आपस में आवेशित होने लगे। कुछ किसी के पक्ष में कुछ किसी के पक्ष में। अनिरुद्धाचार्य जी के पक्ष में इसका एक विस्तृत विश्लेषण प्राप्त हुआ जो निम्न है।
“कबन्धास्तत्र चोत्पेतु: पतितस्वशिरोक्षिभि:। उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो भटान् मृधे।
– भागवत महापुराण 8/10/40
यहां “दोर्दण्डैर् राधावन्तो” में रोरि सूत्र से राधावन्तोघटकरेफ परे रहने से पूर्व रेफ का लोप हो जायेगा। और “उद्यतायुधदोर्दण्डैराधावन्तो” बन जायेगा।
श्रीत्रिपाठी जी कथन कि “राधा शब्द कहने पर विसर्ग कहां जायेगा”, अनवधानतामूलक है। जब राधावन्तो परे है तो विसर्ग विधायक “खरवसानयोर्विसर्जनीय:” सूत्र की प्राप्ति ही नहीं होगी; क्योंकि राधावन्तो का आद्यावयव रेफ खर् प्रत्याहार में नहीं आता। अत: राधा शब्द मानने पर विसर्ग कहां जायेगा- यह कथन हास्यास्पद है। राधावन्तो प्रथमान्त कबन्धा: का विशेषण है ।ऐसा मानने पर कोई अनुपपत्ति नहीं है।“
– आचार्य सियारामदास नैयायिक जी
देखिये, राध् धातु से क्तवतुँ प्रथमा बहु राध्नवन्तः हो रहा है। दूसरा कारण तो अतार्किकता ही है। अतार्किकता, असंगतता। क्योंकि श्रीमद्धागवत में शुकदेव जी को राधाजी को प्रत्यक्ष करना ही पड़ा तो अष्टम स्कंध देवासुर संग्राम में? जबकि दशम, रासपंचाध्यायी जहाँ श्रीराधाजी के उद्धरण की आवश्यकता रही, वहाँ नहीं किये? बांकी, चलिये मानते हैं कि राधा मतुप् से राधावान् बना है, तथापि श्रीधरी में उद्यतान्यायुधानि यैस्तैर्दोर्दण्डैर्युक्ताः कहकर आधावन्त स्वीकारा क्योंकि “मौनं स्वीकृतिलक्षणम्”। अन्य भाष्यप्रमाणोक्ति “कबन्धाः उद्यतायुधदोर्दण्डैः भटान आधावन्तः उत्पेतुः” आदि भी हैं ही। एक नहीं समस्त भाष्यकारों की स्वीकृति आधावन्तः हेतु है। निश्चित ही भाष्यकार राधा+मतुप् तथा रो रि से अनभिज्ञ न थे, तथापि आधावन्तः स्वीकारा। तीसरा कारण कौशिकी संहिता का ये श्लोकार्ध है।
“श्रीराधानाममात्रेण मूर्च्छाषाण्मासिकी भवेत्। अतो नोच्चारितं स्पष्टं परीक्षिद्धितकृन्मुनिः॥”
– कौशिकी संहिता
इसके अनुसार शुकदेव जी को राधानाम से छः मास की मूर्छा आ जाती थी, क्योंकि वे राधाजी के ही छायाशुक हैं। ऐसी स्थिति में प्रत्यक्ष राधा का वर्णन भागवत में असंभव हो जाता है, परोक्ष तो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत श्रीराधामय है।
साथ ही शास्त्रों में ऐसे अनेक स्थान हैं जहाँ इसी प्रकार रो रि की अगम्यता है जैसे यहाँ देखें।
“ताँ उशतो वि बोधय यदग्ने यासि दूत्यम्। देवैरा सत्सि बर्हिषि॥”
– ऋग्वेद १|१२|४
यहाँ “देवैरा” में यह स्थिति उचित सिद्ध न होगी। यह दण्डैरा सी स्थिति है। अब यह आधावन्तः कैसे? यहाँ एक सूत्र की वार्ता है, इचोऽशि विसर्गस्य रेफः; किन्तु यह सूत्र कहीं प्राप्य नहीं तो इसका वर्णन न करते हुई आचार्य प्रदत्त विवरण को देखें।
पहले “दण्ड” को लेते हैं। धातु, प्रत्यय तथा प्रत्ययांत को छोड़कर अर्थवान् शब्दस्वरूप को प्रातिपादिक संज्ञा होती है (अष्टाध्यायी १|२|४५), अतएव दण्ड एक प्रातिपादिक हुआ। आगे प्रत्यय का कार्य है। साथ ही, प्रत्यय संज्ञक का प्रयोग धातु अथवा प्रादिपादिक से परे होता है (अष्टाध्यायी ३|१|२) और एक अन्य अधिकार यह है कि प्रत्यय का आदि उदात्त होता है (अष्टाध्यायी ३|१|३)। ङ्याप्प्रातिपादिकात् भी एक अधिकार हो जाता है। आगे ङी प्रत्ययान्त, आप् प्रत्ययान्त और प्रातिपादिक से सु, औ, जस्, अम्, औट्, शस्, टा, भ्याम्, भिस्, ङे, भ्याम्, भ्यस्, ङसि, भ्याम्, भ्यस्, ङस्, ओस्, आम्, ङि, ओस्, सुप् ऐसे २१ प्रत्यय हैं (अष्टाध्यायी ४|१|२)। ये जो सुप् हैं, इनके तीन तीन भाग करके क्रम से एक एक भाग के प्रति एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन ऐसी स्थिति होती है जैसे, सु एकवचन हो गया, औ द्विवचन, जस् बहुवचन (अष्टाध्यायी १|४|१०३)। आगे जैसे सर्वविदित है कि बहु की अभिव्यक्ति हेतु बहुवचन प्रयुक्त है (अष्टाध्यायी १|४|२१), अतः तृतीया बहुवचन की आवश्यकता से भिस् का ग्रहण होगा। ऐसी स्थिति में दण्ड+भिस् होगा। अब क्योंकि दण्ड अकारान्त है तथा अकारान्त अंग से परे भिस् को ऐस् आदेश होता है (अष्टाध्यायी ७|१|९)। अनेक अल् और शित् आदेश सम्पूर्ण षष्ठी निर्दिष्ट के स्थान में होता है (अष्टाध्यायी १|१|५५) अतः दण्ड+ऐस् प्राप्त हु़आ।
जब दण्ड+ऐस् का समन्वय होगा तो एक वृद्धि आदेश (अष्टाध्यायी ६|१|८८) से दण्डैस् प्राप्त हुआ। पदान्त सकार ओर सजुष् शब्द को रुत्वादेश होता है (अष्टाध्यायी ८|२|६६) अतः दण्डैरुँ प्राप्त हुआ। उपदेश में आनुनासिक अच् की इत् संज्ञा होती है (अष्टाध्यायी १|३|२) तथा जिसकी इत् संज्ञा होती है, उसका लोप होता है (अष्टाध्यायी १|३|९)। यहाँ से दण्डैर् प्राप्त हुआ। ध्यातव्य है कि खर् प्रत्याहार परे हो तथा अवसान के कारण दण्डः हो जाएगा। किन्तु न तो यहाँ खर् ही है, न अवसान है। बल्कि अच् प्रत्याहार है। अतः दण्डः के लिये कोई कारण ही विद्यमान जब न रहा तो दण्डैर्+आधावन्तः से दण्डैराधावन्तः की प्राप्ति होगी। आगे हशि च (अष्टाध्यायी ६|१|११४) से दण्डैराधावन्तो भटान् की प्राप्ति होगी।
निष्कर्ष यही है कि वेदों में कबीरदास जी का वर्णन नहीं हैं। राधावन्तः केवल भावात्मिका दृष्टि से मान्य है, अन्यथा आधावन्तः ही मान्य है। इसी कारण करपात्री जी का भी राधावन्तः तथा आधावन्तः दोनो को समर्थन रहा।
श्री राधाजी का सबसे बड़ा संकेत तो हमें यहाँ लगता है,
“अनयाऽऽराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः। यन्नो विहाय गोविन्दः प्रीतो यामनयद्रहः॥”
अवश्य ही सर्वशक्तिमान् भगवान् कृष्ण की यह “आराधिका” होगी। इसीलिये इसपर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गए हैं।
– श्रीमद्भागवत १०|३०|२८
प्रकरण का बल विचारणीय होता है और उस पर विचार करने पर यहां योद्धाओं के समस्त विशेषण समूह से राधावन्त: नहीं, आधावन्त: ही अन्वित होगा।