लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
वेद सनातन धर्म के चार स्तंभ हैं। वेद वे वृक्ष हैं जिनसे वेदान्त, पुराण आदि शाखाएं उद्भूत होतीं हैं। समस्त शास्त्रों का मूल वेद ही है। वेदों से ही समस्त ज्ञान का प्रसार होता है। मंत्रदृष्टा ऋषियों ने न केवल इनको साधा अपितु इनके दर्शन भी किये। यह मंत्रदृष्टा की उपाधि ही सब बताती है। मंत्रदृष्टा गति ही मंत्रों के स्वरूपवान् होने की अभिव्यक्ति है। आइये, सर्वप्रथम चर्चा करें कि धार्मिक परिपेक्ष्य से वेदों की उत्पत्ति कैसे हुई।
धार्मिक परिपेक्ष्य से वेदों की उत्पत्ति
धर्म के नाम विषयक विवादों में सनातन, हिन्दू आदि आदि नाम प्रतिध्वनित होते रहते हैं। किन्तु वास्तव में धर्म का नाम नहीं। धर्म तो धर्म ही है। धर्म से विपरीत अधर्म है। धर्मों की संख्या का अनुमान लगाने की क्रिया ही सबसे बड़ी अज्ञता है। धर्म कोई सरिता नहीं, धर्म कोई सरोवर या समुद्र नहीं कि उसकी संख्या हो। धर्म आकाश है। आकाश तत्व एक ही होता है।
इन शास्त्रों के अनुसार वेद ब्रह्मा की वाणी हैं। क्रौष्ठुकि के समक्ष सृष्टिक्रम का वर्णन करते हुए मार्कण्डेय मुनि मार्कण्डेय पुराण में वेदों की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। उन्होंने कहा, “क्रौष्ठुकि! सर्वप्रथम सर्वत्र अंधकार था। वहाँ एक दिव्य अण्ड की उत्पत्ति हुई। जिसके विस्फोट से ब्रह्मा प्रकट हुए। उनके मुख से “ओम्” शब्द हुआ। उस ओं से भूः भुवः स्वः का प्राकट्य हुआ। ये तीनों ही सूर्यनारायण का स्वरूप हैं। ओं से उनका सूक्ष्म स्वरूप प्रकट हुआ तथा उस सूक्ष्म से “महान्” स्थूल स्वरूप का प्राकट्य हुआ। उससे “जन” स्थूलतर हुआ तथा उससे “तप”, उससे “सत्य” प्रकट हुआ। ये सातों व्याहृति सूर्य के स्वरूप हैं।
अण्ड के फटने से प्रकटीभूत ब्रह्मा के पूर्व मुख से ऋग्वेद की ऋचाएं उत्पन्न हुईं। वे गुड़हल के पुष्प के समान भिन्न भिन्न रजोगुणी स्वरूप वाली थीं। दक्षिण मुख से स्वर्ण आभा वाले यजुर्वैदिक मंत्र उत्पन्न हुए। पश्चिम मुख से सामवेद के छन्द तथा मंत्र प्रकटे। उत्तर मुख से अथर्ववेद के मंत्र जो कि शान्तिक तथा अभिचारिक क्रियाओं के द्योतक हैं, वे भौरों के समूह के समान कृष्ण वर्ण लिये हुए प्रकटीभूत हुए। इनका स्वरूप रजोगुण तथा तमोगुण से आवृत्त सुन्दर तथा कुत्सित था। ऋग्वेद रजोगुण युक्त, यजुर्वेद सत्वयुक्त युक्त तथा सामवेद तमोगुण युक्त थे।
“तस्मादण्डाद्विनिर्भिन्नाद्ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः।
– मार्कण्डेय पुराण १०२|१-७
ऋचो बभूवुः प्रथमं प्रथमाद्वदनान्मुने॥
जवापुष्पनिभाः सद्यस्तेजोरूपा ह्यसंवृताः।
पृथक्पृथग्विभिन्नाश्च रजोरूपा महात्मनः॥
यजूंषि दक्षिणाद्वक्त्रादनिबद्धानि कानिचित्।
यादृक्वर्णं तथा वर्णान्यसंहतिचराणि वै॥
पश्चिमं यद्विभोर्वक्त्रं ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।
आविर्भूतानि सामानि ततः कुन्दसितान्यथा॥
अथर्वाणमशेषेण भृङ्गाञ्जनचयप्रभम्।
घोराघोरस्वरूपं तदाभिचारिकशान्तिमत्॥
उत्तरात्प्रकटीभूतं वदनात्तत्तु वेधसः।
मुखं सत्त्वतमःप्रायं सौम्यासौम्यस्वरूपवत्॥
ऋचो रजोगुणाः सत्त्वं यजुषाञ्च गुणो मुने।
तमोगुणानि सामानि तमःसत्त्वमथर्वसु॥”
इस प्रकार वेदों की उत्पत्ति हुई। किन्तु अभी भी इनको ग्रंथाकृति नहीं मिली थी। जो द्वापर में मुख्य वेद को प्राप्त करके उनको चार भागों में विभक्त करते, वे व्यास कहलाते। उन्हें साक्षात् नारायण ही जानना चाहिये (द्वापरे द्वापरे विष्णुर्व्यासरूपी महामुने। वेदमेकं सुबहुधा कुरुते जगतो हितः॥)। इस कल्प के भी वैवस्वत मन्वन्तर का २८ वाँ द्वापर पूर्ण होकर कलयुग चल रहा है। इस द्वापर में ऋषि पराशर पुत्र भगवान् वेदव्यास कृष्णद्वैपायन मुनि ने वेदों को विभक्त किया।
“पराशर उवाच
आद्यो वेदश्चतुष्पादः शतसाहस्रसम्मितः।
ततो दशगुणः कृत्स्नो यज्ञोऽयं सर्वकामधुक्॥
ततोऽत्र मत्सुतो व्यासो अष्टाविंशतितमेऽन्तरे।
वेदमेकं चतुष्पादं चतुर्धा व्यभजत् प्रभुः॥
यथा च तेन वै व्यस्ता वेदव्यासेन धीमता।
वेदास्तथा समस्तैस्तैर्व्यस्ता व्यस्तैस्तथा मया॥”सृष्टि के आदि में वह वेद चार पाद तथा एक लाख मंत्रों वाला था। उससे समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले दस यज्ञों का प्रादुर्भाव हुआ। अभी इस मन्वन्तर के २८वें चतुर्युग में मेरे पुत्र भगवान् व्यास ने उस चार चरण वाले वेद को चार वेदों में विभक्त किया। यह उसी प्रकार किया गया जैसे उनसे पूर्व में हुआ था। वैसे ही मैने स्वयं भी वेदों का विभाजन किया था (तस्मादस्मत्पिता शक्तिर्व्यासस्तस्मादहं मुने)।
– विष्णुपुराण ३|४|१-३
भगवान् कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने चार वेदों के अध्ययनार्थ चार ऋषियों को शिष्य चयनित किया, जिनके नाम पैल, वैशम्पायन जैमिनि तथा सुमन्तु थे। इन्ही से परस्पर शिष्यप्रशिष्य वेदों की अनेक शाखाएं विभक्त हुईं। सर्वप्रथम जिस वेद को व्यासजी ने चार भागों में विभक्त किया, उसका नाम यजुर्वेद था।
“एक आसीद्यजुर्वेदस्तं चतुर्धा व्यकल्पयत्।
– विष्णुपुराण ३|४|११
चातुर्होत्रमभूत्तस्मिंस्तेन यज्ञमथाकरोत्॥”
आंग्ल परिपेक्ष्य से वेदों की उत्पत्ति
अंग्रेजी विद्वानों के अनुसार वेद १४०० से ४०० ई. पू. के मध्य ही लिखे गए थे।1https://www.oxfordbibliographies.com/display/document/obo-9780195399318/obo-9780195399318-0146.xml कुछ विद्वानों का मत १५०० ई. पू. का भी है। सर्वप्रथम श्रीमान् मैक्समूलर ने ही अपने वेदों के अध्ययनोपरांत बिना किसी प्रमाण के यह कहा था कि,
“The hymns of the rigveda are said to date from 1500 B.C.”2https://archive.org/details/indiawhatcanitte00mluoft/mode/1up
माइकल विटज़ेल भी एक विद्वान् हुए हैं जो स्वयं मैक्समूलर के ही पथ पर चलते हुए ऑक्सफोर्ड के संस्कृत प्रोफेसर हैं। उनका कहना है कि मितान्नी आदि सभ्यताओं के संकेतों से वेद १२०० ई. पू. से अधिक पुराने नहीं हो सकते।
ये ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या वास्तव में इन्होंने अध्ययन किया है? बिल्कुल किया है। किन्तु इन सबका अध्ययन मैक्समूलर के आदर्शों से प्रभावित ही है। वेदों के वर्तमान लेखन काल को ३५०० वर्ष बताने का मुख्य कारण अपनी सभ्यता की रक्षा ही है। क्योंकि यदि वेद अत्यधिक पुराने होते तो इन आंग्ल विद्वानों द्वारा प्रदर्शित मानव इतिहास ही झूठा सिद्ध हो जाता। बाइबल की मान्यता, कि सृष्टि का आरम्भ ८५०० वर्ष पूर्व हुआ, वह भी झूठा सिद्ध हो जाता। अतः यह कहकर कि वेदों में १५०० ई. पू. के संकेत हैं, ये महाशय अपने आंग्ल विद्वानों, इतिहासकारों की रक्षा ही कर रहे हैं।
इसके अतिरिक्त मैक्समुलर को वेदों की कालगणना कांस्य युग को बताना इस हेतु आवश्यक था क्योंकि उन्हें आर्यों को विदेशी प्रमाणित करना था। यदि वेद इससे प्राचीन सिद्ध हो जाते तो आर्य प्रवास सिद्धान्त भी झूठा साबित हो जाता। ऐसे में वे अपने भारत आने के लक्ष्य को कैसे पूरा कर पाते?
बालगंगाधर तिलक के अनुसार
इन मान्यताओं को मानने वाले केवल आंग्ल नहीं अपितु भारतीय तत्कालीन हस्तियाँ भी थीं जिनमें से एक प्रचलित नाम बालगंगाधर तिलक का भी है। उनकी मान्यता आंग्लों से प्रभावित किन्तु भिन्न रही। जिस प्रकार अंग्रेजों ने आर्यों को युरोप से आया बताया, इन्होंने उत्तरी ध्रुव से आर्य आए, ऐसी मान्यता दी। इसी प्रकार वेदों के काल को इन्होंने १०,००० वर्ष पहले का माना। उन्होंने अपने ग्रंथ ओरायन में लिखा है कि ऋग्वेद मण्डल १० के ८३वें सूक्त के अंतर्गत ऋचाओं में वसंत सम्पात का मृगशीर्ष नक्षत्र में होने का वर्णन है। मृगशीर्ष वर्तमान उत्तरा भाद्रपदा से छः नक्षत्र पहले है। वसंत सम्पात को एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र में जाने हेतु ९६० वर्षों का समय लगता है। इस हिसाब से वसन्त सम्पात मृगशिरा में आज से लगभग ५,७६० (९६०×६) वर्ष पूर्व रहा होगा। यही इस वेद का रचनाकाल है।
यदि हम सांस्कृतिक दृष्टि से भी देखें तो वेदों का लेखनकाल यही समय बताया जाता है। किन्तु ध्यातव्य हो, लेखन और रचना दोनो भिन्न विषय हैं। तथापि यदि किंचित् गम्भीरता से तिलक जी के इस कथन को सोंचें तो पता चलता है कि नक्षत्रों की कुल संख्या तो २७ है। अर्थात् हर २५,९२० (९६०×२७) वर्षों में वसंत सम्पात मृगशीर्ष नक्षत्र में पुनः होता होगा, क्योंकि यह एक चक्र है। यदि आज से ५,७६० वर्ष पूर्व मृगशिरा में वसंत सम्पात हुआ था तो उससे भी पहले आज से ३१,६८० वर्ष पूर्व भी मृगशीर्ष पर ही वसंत सम्पात हुआ था। उससे पूर्व ५७,६०० वर्ष पहले भी वसंत सम्पात वहीं हुआ था। ऐसे में तिलक जी की गणना कहा कुछ स्पष्ट कर पाई?
आर्य प्रवास
मुख्यलेख – प्राचीन भारतीय सभ्यता : आर्य प्रवास एक झूठ
आर्य प्रवास आंग्ल इतिहासविदों तथा भाषाई अध्येताओं द्वारा प्रतिपादित एक मान्यता है जो कि यह प्रमाणित करने का दावा करता है कि आर्य भारतीय नहीं अपितु विदेशी हैं। वे युरोपीय क्षेत्रों से १५०० ई. पू. के आसपास भारत आए। भारत में आकर उन्होंने वेद रचे, मनुस्मृति रची और शूद्रों पर शासन करना शुरू कर दिया।
वेदों की प्राचीनता
हममे से कुछ ने ही अपने परदादा को देखा होगा। जिन्होंने नहीं देखा वे अपने दादाजी के मुख से ही परदादा को पहचानते होंगे। ठीक उसी प्रकार हमारे पूर्वजों के माध्यम से इस विषय पर अधिकांश बातें ग्रंथों में लिखीं गईं हैं। तथापि हम शोध तो करेंगे ही। क्योंकि यही तो वैज्ञानिक मान्यता है। अतः आइये देखें कि वेद वास्तव में कितने प्राचीन हैं।
वेद मंत्रों के साक्ष्य
यहाँ हमें भी अपनी दृष्टि कुछ उपरोक्त विद्वानों जैसी करनी पड़ेगी। तो ऐसे में, वेदों में मंत्रों के माध्यम से ही अनेक संकेत प्राप्त हैं जो कि वेदों के मंत्रप्राप्ति की आयु को बताते हैं। आइये कुछ मंत्रों, ऋचाओं पर विचार करें। निम्नांकित ऋचा देखें।
“यः पृ॑थि॒वीं व्यथ॑माना॒मदृं॑ह॒द्यः पर्व॑ता॒न्प्रकु॑पिताँ॒ अर॑म्णात्। यो अ॒न्तरि॑क्षं विम॒मे वरी॑यो॒ यो द्यामस्त॑भ्ना॒त्स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥”
उन इन्द्र ने ही आकाश को मापा, द्युलोक को धारण किया तथा भूकम्पों से थरथराती पृथ्वी को सशक्त आधार प्रदान करके आग उगलते पर्वतों को शान्त किया।
– ऋग्वेद २|१२|२
इस ऋचा में पृथ्वी का अत्यंत उग्र स्वरूप जो वर्णित है, वह तो उस कालखण्ड की ओर संकेत कर रहे हैं जब पृथ्वी पर बड़े उत्पात होते थे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तो यह संकेत उस समय के हैं जब पृथ्वी नई नई बनकर तैयार हुई थी। या तो यह आज से ५.५ करोड़ वर्ष पूर्व के संकेत हैं जब भारतीय उपमहाद्वीप एशिया से आकर मिला था और हिमालय का निर्माण प्रारम्भ हुआ था। एक और ऋचा आपके समक्ष प्रस्तुत है।
“इ॒यं शुष्मे॑भिर्बिस॒खाइ॑वारुज॒त्सानु॑ गिरी॒णां त॑वि॒षेभि॑रू॒र्मिभिः॑। पा॒रा॒व॒त॒घ्नीमव॑से सुवृ॒क्तिभिः॒ सर॑स्वती॒मा वि॑वासेम धी॒तिभिः॑॥”
जो (इयम्) यह (शुष्मेभिः) बलों से (बिसखाइव) कमल के तन्तु को खोदनेवाले के समान (तविषेभिः) बलों और (ऊर्मिभिः) तरङ्गों से (गिरीणाम्) मेघों के (सानु) शिखर को (अरुजत्) भङ्ग करती है उस (पारावतघ्नीम्) आरपार को नष्ट करनेवाली (सरस्वतीम्) वेगवती नदी को (धीतिभिः) धारण और (सुवृक्तिभिः) छिन्न-भिन्न करनेवाली क्रियाओं से (अवसे) रक्षा के लिये जैसे हम लोग (आ, विवासेम) सेवन करें, वैसे तुम भी इसका सदा सेवन करो।
– ऋग्वेद ६|६१|२
प्रश्न यह है कि सरस्वती नदी का वेगवती, शिखरों को अपने तरंगों से भंग करने वाली आदि आदि स्वरूपात्मक व्याख्या बताती है कि वेद जिस भी काल में प्रकट हुए, सरस्वती नदी का स्वरूप ऐसा था। किन्तु आधुनिक चिन्तकों के अनुसार १००० से १५०० ईसा पूर्व तो सरस्वती नदी सूख गई थी। ऐसे में ऋग्वेद में सरस्वती का ऐसा रूप कैसे वर्णित है जो कि स्वस्थ सरस्वती का चित्रण है? सरस्वती का जैसा चित्रण ऋग्वेद में हुआ है, वैसी सरस्वती आज से ५००० से ८००० वर्ष पूर्व के आसपास ही थी। इससे स्पष्ट होता है कि वेदों का दर्शन लगभग इतना पहले या इससे भी पूर्व का तो है।
पुरातात्विक साक्ष्य
वर्तमान सीरिया और आनातोलिया में आज से लगभग ३५०० वर्ष पूर्व मितान्नी साम्राज्य के संकेत मिलते हैं। उस साम्राज्य के शासक आर्य थे। उनके नाम भी संस्कृत से सम्बद्ध हैं। इस साम्राज्य की राजधानी Washikanni (वसुकर्णी) थी। वहाँ के प्रसिद्ध परत्तर्न नामक राजा का नाम प्रतर्दन सिद्ध हुआ है। उसका शासनक्षेत्र नीचे मानचित्र में देखें।
इस शासकों को हुरियन कहा गया है जो कि सूर्यन है। कैसे? जैसे कि प्राचीन भाषाओं में कई स्थानों में “स” का “ह” हो गया। उदाहरण के लिये प्राकृत भाषा जो कि संस्कृत का अशुद्ध रूप है, उसमें “हप्त हिन्दु” वास्तव में “सप्त सिंधु” है। ऐसे ही, हिन्दी की गिनतियों में भी ग़ौर करें। उनहत्तर, उसके बाद फिर सत्तर आता है। यह उनहत्तर भी उनसत्तर है। अर्थात् सत्तर से एक कम। संस्कृत में इसे एकोनसप्तति या उनसप्तति कहते हैं। तथैव सूर्यन से सुरियन, फिर हुरियन हो गया। आगे प्रतर्दन के पश्चात् त्वेषरथ (Tusharatta) नाम के राजा हुए। इनकी बेटी का विवाह मिस्र में हुआ था। राजा अमेनहोतेप तृतीय उसका पति था। त्वेषरथ का पुत्र शक्तिवज्र (Shattiwaza) हुआ। इसके काल (१३०० ई. पू. के आसपास) में हित्ती तथा मितान्नी राजा के मध्य एक शांति संधि (Boğazköy Inscription) के अंतर्गत आर्य देवता जैसे मित्र, वरुण, इन्द्र, नासत्य आदि सूचीबद्ध मिले।3https://drive.google.com/uc?export=download&id=1YCZ6JGS593B-Pi9MU4BFIg-EKBPukAnA
उर्केश (Map) के राजा तुपकिश का वर्णन २३०० ई. पू. (आज से लगभग ४३०० सालों पहले) मिट्टी के बने मुद्रा अभिलेख में प्राप्त हुआ था। उर्केश हुरियन शहर का नाम है। तो, ऊपर बताए गए शक्तिवज्र की संधि में जिन देवों के नाम हैं, वे समस्त देवों के नाम सर्वप्रथम ऋषियों द्वारा देखे गए तथा ऋग्वेद की परम्परा में प्रसारित थे। इन देवताओं का सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है (इतिहासकारों के अनुसार)। इन नामों का वहाँ आज से ३३०० वर्ष पूर्व संधि मुद्रा में मिलना तथा इससे भी पहले उस राज्य का मित्र नामक देव के नाम पर मित्राणी या मितान्नी प्रसिद्ध होना तो यही बताता है कि वेद उस साम्राज्य से अधिक प्राचीन है, न केवल उस संधिलेख से। क्योंकि किसी ग्रंथ या मान्यता को इतना प्रसिद्ध होने में, कि उसके पात्र लोक परंपरा, कुल परंपरा में प्रचलित हो जाएँ, सहस्राब्दियाँ लगतीं हैं। यहाँ क्लिक करके आप मितान्नी के विषय में और जानें।
निष्कर्ष
इन समस्त तत्वों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वेदों की प्राचीनता के लिये किये गए शोधकार्यों में हर प्रकार से हर बार एक नए युग से इनके सम्बंध प्राप्त होते हैं, जिससे कि एक किसी सहस्राब्दी का अनुमान लगाना असंभव सा हो जाता है। अंग्रेजी अध्येताओं का शोध पूर्णतया काल्पनिक तथा मिथक है। क्योंकि वे तो ऋग्वेद की अल्पज्ञता से उसपर गोमांस के भक्षण संबंधी आरोप भी लगाते हैं जो कि अवास्तविक हैं। अतः उनके माध्यम से कहा गया काल, या उनके माध्यम से किये गए सारे शोध केवल और केवल अपने धर्म में कही बातों की रक्षा हेतु है और कुछ नहीं।
मितान्नी आदि साम्राज्यों के अध्ययन से भी यह बात ज्ञात होती है कि वेद इनसे सहस्राब्दियों पूर्व से प्राप्त हैं। क्योंकि किसी पुस्तक के लेखन के उपरान्त उसको प्रचलित होने में समय लगता है। वेदों के लेखन से अधिक वेदों के अध्ययन के साक्ष्य यह सिद्ध करते हैं कि पुराने शिक्षक वेदों को स्मरण करके याद रखा करते थे। लेखन बहुंत बाद में हुआ। ऐसा करने का कारण भी यही स्पष्ट होता है कि लिपि अत्यंत नवीन है। लिपि के अभाव में ही इस प्रकार स्मरण रखने का कार्य होता रहा होगा।
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संदर्भित बिंदु
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