लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
हमारी भारत भूमि विविधताओं का देश है। संस्कृति से लेकर रूप, रंग में भी विविधता है। आदिकाल से इस भूमि को देवभूमि कहा जाता है। देवता भी जहाँ जन्म लेने के इच्छुक हों, वह भारत है। सहस्राब्दियों प्राचीन भारतीय संस्कृति के चार मुख्य स्तम्भ ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य तथा शूद्र हैं। अनेकों आक्रान्ताओं ने इन स्तम्भों को तोड़ने का प्रयास किया है, किन्तु यह सदा से एक साथ खड़े रहे। इन्हीं प्रयासों में से एक प्रयास यह आर्य प्रवास की परिकल्पना भी है। आर्य प्रवास को समझने से पूर्व सिंधु घाटी की सभ्यता को समझना आवश्यक है।
सिंधु घाटी की सभ्यता
सिंधु घाटी की सभ्यता (Indus valley civilization or Indus civilization) कांस्य युग की सभ्यता है जिसका काल ३३०० ई. पू. से १३०० ई. पू. तक का मांपा गया है। यह सिंधु नदी के तट पर फला फूला अतः इसे सिंधु घाटी की सभ्यता कहते हैं। यह सभ्यता मिस्र, मैसोपोटेमिया के समकालीन थी। सर्वप्रथम सिंधु की सहायक रावी नदी के तट पर हडप्पा नगर के अवशेष मिले। यह १८०० की शताब्दी की बात है। इसके बाद मोहनजो-दड़ो, कालीबंगा, राखीगढ़ी आदि अनेक स्थान लगातार मिल रहे हैं और इस सभ्यत की की आयु बढ़ती जा रही है। भीरड़ाना (Bhirrana) के अवशेष ९५०० वर्ष प्राचीन हैं जो इस सभ्यता को लगभग १०,००० वर्ष पुरातन सिद्ध करती है।1Sarkar A. et al. Oxygen isotope in archaeological bioapatites from India: Implications to climate change and decline of Bronze Age Harappan civilization. Sci. Rep. 6, 26555; doi: 10.1038/srep26555 (2016). वर्तमान में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा, पंजाब, भारतीय पंजाब हरियाणा तथा राजस्थान के आसपास ही अवशेष मिले हैं। शोध होता रहा तो समग्र भारत में तथा पूरे उपमहाद्वीप में सहस्राब्दियों का इतिहास मिलेगा।
आर्य प्रवास (या आर्य आक्रमण) का अर्थ तथा इसके विरोधियों की सोंच
आर्य आक्रमण या आर्य प्रवास (Aaryan Invasion, Aryan Migration or Indo-Aaryan Migration) का सिद्धान्त कहता है कि भारत काले तथा चपटी नाक वाले लोगों की भूमि है। इस भूमि पर वे शांति2https://gizmodo.com/a-civilization-without-war-1595540812 से रहा करते थे। उन्होंने शांत तथा विकसित निकट-यूटोपियन शहरी सभ्यता का निर्माण पाकिस्तान तथा उससे सम्बद्ध स्थानों में, सिंधु नदी के तटीय क्षेत्रों में किया था।3http://www.dailymail.co.uk/sciencetech/article-3791308/The-forgotten-utopia-Indus-people-lived-700-years-without-war-weapons-inequality.html आज से लगभग ३५०० वर्ष पहले पश्चिमी क्षेत्र से आए लोगों (Indo-Aaryan People) ने उनपर आक्रमण करके उनकी संस्कृति को बर्बाद किया। इन लोगों से परेशान वे भारतीय दक्षिणी भारत की ओर जाने हेतु विवश हो गए। इन आर्यों ने वेदों की रचना करके उन भोले भाले लोगों पर अपने धर्म का भार मढ़ दिया।
यह जो आर्यों हेतु अत्यंत क्रूर होने की कल्पना सर्वप्रथम तथाकथित विशारद मैक्समूलर ने की। बाद में इस क्रूरतापूर्ण सिद्धान्त को आक्रमण से प्रवास में परिवर्तित किया गया। इसमें कहा गया कि आर्यों ने भारत में शांतिपूर्क प्रवेश करने के बाद धीरे धीरे यहाँ के मूलनिवासियों को दास बना लिया। यह बात उन्होंने भारतीय तथा युरोपीय भाषाओं की समानता देखकर कही। आगे इस लेख को पढ़ते पढ़ते आप मैक्समूलर प्रभृति अंग्रेजी विद्वानों के वास्तविक औचित्यों से भलीभांति परिचित हो जाएंगे।
इस सिद्धान्त के विरोधियों का मानना यह होता है कि आदि से ही भारत वैदिक धर्म का गढ़ था। द्रविड और आर्य, ये दो भिन्न भिन्न नहीं अपितु द्रविड भी आर्य ही हैं। आर्यों ने भारत पर कोई आक्रमण नहीं किया। इस लेख का उद्देश्य यही है कि आपको हम इसी आर्य प्रवास विरोधी विचारधारा के प्रमाण दें। इससे आप भी एक बार सोंचने को मजबूर हों।
वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली के जनक मैकाले ने जो तत्कालीन ९७% शिक्षित भारतीयों की शिक्षा प्रणाली पर प्रहार किये, उससे उन भारतीयों के वंशजों का विश्वास भारतीय संस्कृति तथा उसकी उपलब्धियों से उठ गया। वे महाभारत, रामायण को काल्पनिक मानने लगे। वाराहमिहिर, आर्यभट्ट आदि को छोड़कर न्यूटन तथा आइंस्टीन को पढ़ने लगे। आज वेद जैसे प्राचीन तथा महाग्रंथ को तो काल्पनिक कह दिया जाता है किन्तु हिरोडोट्स जैसे काल्पनिक इतिहासवक्ता को “इतिहास का पिता” कहा जाता है।
आज आर्य प्रवास के जो पाठ शिक्षण संस्थाओं द्वारा पाठ्यक्रम में चयनित है, वे सभी पुराशोध पर आधारित है। २१वीं सदी के शोधों को उसमें बताया ही नहीं जाता। इसी कारण २१वीं सदी के शोध प्रचलन में भी नहीं।
मैक्समूलर प्रभृति लोगों का औचित्य
पूर्व की पंक्तियों में आपने पढ़ा कि आर्य प्रवास को अंकुरित करने वाले मैक्समूलर हैं। इन्होंने वेदों का अध्ययन किया और मनमौजी अनुवाद किया। लोग इनका बड़ा आदर करते थे किन्तु इनके कुछ पत्रों को पढ़कर इनके प्रति लोगों का आदर निश्चित ही कम हो जाएगा। ये पत्र इनके मुख्य उद्देश को जनसाधारण के समक्ष रखने हेतु काफी हैं। एक उदाहरण प्रस्तुत है।
“The ancient religion of india is doomed. Now, if Christianity does not step in whose fault will it be?”
भारत का पुरातन धर्म समाप्ति की स्थिति में है। अब यदि ईसाइयत अंदर नहीं आता तो किसकी ग़लती?
– भारतीय सचिव के नाम मैक्समुलर का पत्र १६ दिसंबर १८६८, Ibid Vol. I Chap. XVI, P. 78 में प्रकाशित।
इनसे प्रभावित न केवल साधारण जनता हुई अपितु बालगंगाधर तिलक जैसे मनीषी भी इनका समर्थन करते थे। पूछे जाने पर कहते कि हमने तो अंग्रेजी साहिबों के द्वारा किया हुआ वेद का अनुवाद पढ़ा। बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान् श्री उमेशचन्द्र विद्यारत्न जी का तिलक जी से भेट के अनन्तर अनुभव पढ़ें।
“आमि गतवत्सरे तिलकमहोदयेर आतिथ्य ग्रहण करिया छिलाम। ताहार साहित ये विषये अमार क्रमगत पाँच दिन बहु संलाप हइया छिलो। तिनि आमाके तांहार द्वितलगृहे वसिया सरलहृदये वलिया छेन ये, “आमी मूल वेद अध्ययन कारी नाई, आमी साहिब दिगेर अनुवाद पाठ करिया छि।”
– मानवेर आदि जन्मभूमि पृ. १२४
बालगंगाधर तिलक जी तो एक कदम और आगे निकल गए। उन्होंने आर्यों को उत्तरी ध्रुव से आया बताया। उनका कहना था कि वैदिक शोध से यह बात सिद्ध हुई। इसके अतिरिक्त एक उदाहरण हमें श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की पुस्तक “लोपामुद्रा” में भी मिलता है। मुंशी जी को भारतीय संस्कृति का महान् पोषक माना जाता है। वे लिखते हैं कि आर्यों की संस्कृति में आज भी जंगलीपन की छाप है। वे गोमांस खाते, सोमरस पीते थे। ऋषि सोमरस पीते और युद्ध में बहुंतो को मार डालते। स्त्रियों को मोहित करने के लिये मंत्र रचते आदि आदि। ये सब बातें उन्होंने भी वेदों के पाश्चात्य अनुवादकों से जानीं थी। उनके शोध का आधार डॉ. कीथ कृत अनुवाद ही था।
आर्य प्रवास पर भीमराव अंबेडकर का मन्तव्य
आज दलित समुदाय आर्य प्रवास का कट्टर समर्थक तथा मनुस्मृति, सनातन धर्म का कट्टर विरोधी है। वे बुद्ध तथा भीमराव अंबेडकर जी की पूजा करते हैं। यदि हम उनके “डॉ अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय खण्ड ७” नामक पुस्तक का अध्ययन करें तो उनका मानना है कि शूद्र भी आर्य समुदाय का हिस्सा थे। साथ ही, दैत्य, राक्षस आदि भी इनके साथ ही थे। न कि भारत में आर्य तथा द्रविडों वाली कल्पना थी। जबकि आर्य प्रवास के अनुसार शूद्र कहा जाने वाला, राक्षस (अम्बेडकर के अनुसार दस्यु। ये शूद्र से भिन्न थे।) कहा जाने वाला तबका भारत के चपटी नाक वाले बौने लोग थे जिनपर आर्य (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) ने शासन किया। आर्य प्रवास को सिरे से नकारते हुए अंबेडकर लिखते हैं…
“यह सोचना भी गलत है कि आर्य आक्रमणकारियों ने शूद्रों पर विजय प्राप्त की। पहली बात तो यह है कि इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि आर्य भारत में बाहर से आए और उन्होंने यहां के निवासियों पर आक्रमण किया था। इस बात की पुष्टि के लिए प्रचुर प्रमाण हैं कि आर्य भारत के मूल निवासी थे।”
– बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड ७, पृष्ठ ३२१ (पृष्ठान्तर हो सकता है)
वर्तमान में इनके अनुयायी आर्यों के विरोध में विशाल प्रदर्शन करते रहते हैं। “मूलनिवासी” नामक संज्ञा अंबेडकरवादियों की ही देन है। वे ब्राह्मण आदि आर्यों को मूलनिवासी नहीं मानते किन्तु बाबासाहेब अंबेडकर की इस उक्ति से सिद्ध होता है कि वे आर्यों को मूलनिवासी ही मानते थे।
आर्यों को विदेशी बताने का मुख्य कारण भाषा
माना यह गया कि युरोपीय तथा भारतीय भाषाओं में तो समानताएं हैं। इस बात पर सर्वप्रथम ध्यान विलियम जोन्स का गया। वे १७८३ में कलकत्ता आए थे और उनका प्राणान्त भी वहीं हुआ। इन्होंने ही सर्वप्रथम आर्य प्रवास के संकेत दिये थे। अर्थात् आर्यों को विदेशों से आये हुए केवल भाषाई शोधानुसार पहले कहा गया। किन्तु यदि वास्तविक अध्ययन करें तो कुछ शब्दों के अतिरिक्त भारतीय भाषाओं तथा युरोपीय भाषाओं में उत्तर दक्षिण सी असाम्यता प्रतीत होती है। उदाहरणार्थ, भारतीय हिन्दी, तमिल आदि भाषाओं में सहायक क्रियाएं अंत में आतीं हैं जबकि युरोपीय भाषाओं में मध्य में। कर्ता-कर्म-क्रिया वाला वाक्यविन्यास युरोप से बहुत भिन्न है। वहीं, तुलना यदि विश्व की अन्य भाषाओं से करें तो उनसे भी संस्कृत की कुछ ऐसी ही समानता प्राप्य है। जैसे, अरबी से ही तुलना करें। अरबी और संस्कृत के कई शब्द मिलते हैं जैसे माँ के लिये अरबी में “अम” प्रयुक्त हैं। वहीं यदि हम मैक्सिकन (Aztec आदि) भाषाओं से तुलना करें तो मैक्सिकन भाषाएं भी संस्कृत से मेल खातीं हैं। उदाहरणार्थ, माया सभ्यता की भाषा में “माया” का अर्थ “जादू” होता है। संस्कृत में भी इसकी प्रयुक्ति समान अर्थ हेतु है।
एक हैं श्री भगीरथ जोशी। उनके माध्यम से Archeology Century 2021 नामक संगठन चल रहा है। इसी नाम से उनका यूट्यूब चैनल भी है। यह संगठन माया सभ्यता पर शोध करता है। उन्होंने संस्कृत तथा माया के शब्दों का मिलान किया। पाया, कि अधिकांश शब्द संस्कृत से मिलते हैं। उदाहरणार्थ, माया में “पुरूष” शब्द पुरुषों के लिये तथा “पुरुषोना” स्त्री के लिये प्रयुक्त है। “पुरुषो न” को देखें तो यह पूर्णतया पाणिनि के सूत्रों से निर्मित एक वाक्य है, जिसका अर्थ है, “पुरुष नहीं”। “पाल” (paal) शब्द बालकों के लिये प्रयुक्त होता है। पाल बाल का अपभ्रंश है।
उदाहरण – बहुंत छोटा बच्चा (A very young child)
एज़टेक माया में – Juntúul chan paal Jach chichan.
पाल बाल का अपभ्रंश लगता है न? स्त्री (Lady) को दामा (Dama) कहा जाता है।
“अंग” का तात्पर्य माया में भी शरीर का हिस्सा ही होता है। इतनी समानताओं के पश्चात प्रश्न तो उठना ही चाहिये कि युरोपीय संस्कृत ३५०० वर्ष पूर्व अमेरिका कैसे पहुंचा।
वहाँ कई ऐसे साक्ष्य भी हैं जो उस समस्त क्षेत्र को सनातन संस्कृति से प्रभावित सिद्ध करते हैं। ये सारे प्रमाण उसी युग के हैं, जिस युग में भारत भूभाग में आर्यन आक्रमण का होना माना जाता है। अब ऐसे में प्रश्न उठना ही चाहिये कि १५०० ई. पू. में ही भारत पर आक्रमण तथा माया सभ्यता पर प्रभाव एक साथ कैसे सम्भव है।
भारतीय पुराण साहित्य में गुरुण्डिका (युरोपिय) भाषाओं को म्लेच्छ भाषा कहा गया है। यदि वह भाषा संस्कृत की जननि होती तो यह कल्पना भी न होती।
उत्खनन के द्वारा पुरातत्वविदों का निर्णय
प्रसिद्ध पुरातत्वविद् प्रो. बी. बी. लाल ने अपने आधे से अधिक जीवन को इसी कार्य में दिया और निष्कर्ष निकाला कि आर्यों का प्रवास एक मिथक है। वे कहते हैं कि, “हड़प्पा तथा वैदिक सभ्यता एक ही सभ्यता के साहित्यक तथा भौतिक पहलू हैं।”4https://www.newsgram.com/general/2015/12/01/vedic-and-harappan-are-respectively-literary-and-material-facets-of-same-civilization-b-b-lal 5https://www.newsgram.com/general/2015/11/30/no-evidence-for-warfare-or-invasion-aryan-migration-too-is-a-myth-b-b-lal उनकी पुस्तक “द ऋग्वेदिक पीपल: इन्वेडर्स? इमीग्रेन्ट्स? ऑर इण्डिजेनस?” में वे लिखते हैं कि भारतीय आधुनिक सभ्यता ही सिंधु सरस्वती सभ्यता (वैदिक धर्म) का विस्तार है। सिंधु घाटी की घुमावदार चूड़ियों का उपयोग, बालों के मध्य सीमन्त निकालना, प्यासे कौए की लोककथा, नमस्कार की मुद्रा आदि स्मृतियाँ आज भी भारत में फल फूल रहीं हैं।6Lal B. B. The Rigvedic People: Invaders? Immigrants? or Indigenous? Aryan Books International; First Edition (2015). ये बताता है कि वास्तव में आर्य धर्म ही सिंधु धर्म था। लगभग ऐसे ही तथ्य मिशेल डेनीनो (Michael Danino) के “द लास्ट रिवर: ऑन द ट्रेल ऑफ द सरस्वती” में भी प्राप्य हैं।7Danino M. The Lost River: On The Trail of the Sarasvati. Penguin Books (2010). अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्ववेत्ता डॉ. वसंत शिंदे भी इससे सहमत हैं।8https://m.timesofindia.com/city/chandigarh/Descendants-of-Harappans-still-living-in-Rakhigarhi/articleshow/53609286.cms
आर्य प्रवास के विरुद्ध खड़े साधारण किन्तु भारी सवाल
प्रश्न १ – यह घटना काँस्य युग की है। निश्चित ही, यदि ऐसी घटना हुई होगी तो भारतीय इतिहास में, किंवा स्टेपी, मध्य एशियाई देशों, युरोपीय देशों के इतिहास तथा प्राचीन कथाओं, लोकश्रुतियों में इसके संकेत होंगे? वेदों में इसके सांकेतिक साक्ष्य होंगे? विद्वानों का मन्तव्य पढ़ें –
“I must, however, begin with candid admission that, so far as I know, none of the Sanskrit books, not even the most ancient, contains any distinct reference or allusion to the foreign origin of the Aryans. There is no evidence or indication in the Rigveda of the words Dasa, Dasyu. Asura etc. having been. used for non-Aryans or original inhabitants of India.”
– Muir: Original Sanskrit Texts Vol II
“Neither the code of Manu, nor in the Vedas, nor in any book which is older than the code of Manu, is there any allusion to the Aryan prior residence in any country outside India.”
– Elphinstion : History of India, Vol. I.
प्रश्न २ – जैसे कि मुगल भारत आए तो अपने साथ कुरान लेकर आए, तथैव आंग्ल आए तो बाइबल लेकर आए। आर्य कौनसा ग्रंथ लेकर आए? वेद? किन्तु वेदों को तो भारत में आकर १५०० ईसा पूर्व में लिखा गया?
प्रश्न ३ – मुस्लिम भारत आए तो उनका राष्ट्र तो इस्लामशून्य नहीं हुआ, न ही आंग्लशून्य हुआ किन्तु आर्यों के भारत आने पर यूरोप आर्यशून्य कैसे हो गया? जबकि होना यह था कि आने वाले भारत आकर अपना मूल भूल जाते। किन्तु ये तो ऐसा वृक्ष बन गया जिसका मूल समाप्त हो गया और शाखा बची रही?
प्रश्न ४ – जैसेकि कुरान में मक्का का गुणगान है, हर धर्मशास्त्र में उसकी भूमि का गुणगान प्राप्त है। वेदों में यूरोप का गुणगान क्यों नहीं? यदि वेद भारत आगमनोपरान्त भी लिखे गए तो क्या युरोपीय आर्य अपना मूल मात्र २०० या १००० वर्षों में ही भूल गए (वेदों के निर्माण तथा आर्य प्रवास काल में लगभग यही अंतर बताते हैं।)? वेदों में तो सरस्वती, गंगा, सिंधु आदि नदियों का तथा भारत भूमि का ही गुणगान है।
सिंधु घाटी सभ्यता का धर्म क्या है?
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राखीगढ़ी उत्खनन तथा आर्य प्रवास को ध्वस्त करते आनुवांशिक साक्ष्य
राखीगढ़ी के उत्खनन में ६००० वर्ष प्राचीन महिला की अस्थियाँ प्राप्त हुई जिसका आनुवांशिक (DNA) परिक्षण हुआ। यह अध्ययन “An ancient harappan genome lacks ancestry from steppe pastoralists and iranian formers” नाम से “Cell” नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ। वस्तुतः इस प्रकाशन में तो आर्यन आक्रमण की वार्ता हुई ही नहीं।
महिला के अध्ययन में प्राप्त हुआ कि इस महिला में अण्डमानीय जनों तथा आर्यों से मिलता जुलता DNA है, दोनों के मिश्रण हैं। यह अन्य 11 अस्थियों, जो कि इसी सिंधु सभ्यता के थे, से अत्यधिक मिलती है। सबसे अद्भुत बात तो यह कि आंग्ल इतिहासविद् कहते हैं कि भारत में आर्यों का आगमन १६०० ईसा पूर्व हुआ जब उन्हे रथ प्राप्त हुए। रथों का आविष्कार २००० ईसा पूर्व अर्थात् आज से ४००० वर्ष पूर्व हुआ। तो ये आर्य DNA ६००० वर्ष पूर्व राखीगढ़ी की महिला के देह में कैसे पहुंचा? क्या आर्य अनुमानित काल से पूर्व अर्थात् अनुमान से लगभग २००० वर्ष पहले ही भारत पहुंच गए थे तथा DNA में मिलावट हो गया था? आये भी तो क्या पैदल आए? ६००० वर्ष पूर्व आर्य जीन इस महिला में कैसे मिश्रित हुआ? सिनौली आदि के उत्खनन में प्राप्त अनेक प्रमाण सिद्ध कर रहे हैं कि आर्य आज से ४००० वर्ष पूर्व तो पूरे भारत में फल फूल रहे थे।
आनुवांशिकी आज बहुंत आगे चला तो गया है। कुछ समय पूर्व भारतीयों पर आनुवांशिक अध्ययन भारत सरकार द्वारा प्रतिबंधित था। अब नहीं है अतः अनेक प्रमाण सामने आ रहे हैं। इस बीच में हम आपके समक्ष तीन शोध कार्यों को रख रहे हैं। आप इनका अध्ययन करें।
ऊपर दिया गया शोधपत्र १ इस बात को दर्शा रहा है कि भारत में लगभग १०,००० से १५,००० वर्ष से किसी भी प्रकार का आनुवांशिक प्रभाव रहा ही नहीं।9Sengupta S. et al. Polarity and temporality of high-resolution Y-chromosome distributions in India identify both indigenous and exogenous expansions and reveal minor genetic influence of Central Asian pastoralists. Am J Hum Genet. 2006;78:202–21.
शोधपत्र २ दर्शाता है कि कम से कम मध्य होलोसीन काल (७००० से ५००० वर्ष पूर्व) के बाद से भारत सहित पूर्वी यूरोप तथा एशिया तक किसी भी प्रकार के पितागत जीन प्रवाह, जो प्रवाह महत्वपूर्ण हो, उसे खारिज करता है।10Underhill P. A. et al. Separating the post-Glacial coancestry of European and Asian Y chromosomes within haplogroup R1a. Eur J Hum Genet. 2010;18:479–84. doi: 10.1038/ejhg.2009.194.
यह शोधपत्र ३ भारत में आर्यों के आक्रमण या कहीं और से आने की बात को खारिज करता है और दर्शाता है कि भारतीय आनुवांशिकता अपने आप में अद्वितीय है। भारतीय आबादी आफ्रीकी आबादी के बाद दूसरी सबसे बड़ी आनुवांशिक विविधता का आश्रय है।11Tamang R., Thangaraj K. Genomic view on the peopling of India. Investig. Genet., 3, 20. (2012).
इन तीनों शोधपत्रों को यदि ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाये तो यह बात सिद्ध हो जाता है कि वास्तव में भारत आर्यों का मूल देश है, यहाँ कोई आक्रमण नहीं हुआ।
विश्व के सबसे लंबे परिवारों में से एक भारतीय वंश
आनुवांशिकी शब्दावली में एक शब्द है, “वंश समूह (Haplogroup)”। यह वंश समूह व्यक्तियों का एक समूह है जो विशिष्ट आनुवांशिक उत्परिवर्तन (Genetic Mutation) के साथ एक सामान्य पूर्वज साझा करता है। एक वंश समूह किसी एक पंक्ति से संबंधित होता है जो आम तौर पर हजारों साल पुराना होता है। एक वंश समूह कोई एक विस्तारित परिवार है जिनका वंश एक ही है। वंश समूहों को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा गया है। पहला, Y गुणसूत्रीय पितृसत्तात्मक वंश समूह तथा दूसरा, माइटोकॉण्ड्रियाई डीएनए (mtDNA or mDNA) मातृसत्तात्मक वंश समूह। इन वंशसमूहों की पहचान अंग्रेजी वर्णमाला के A, B, C आदि द्वारा तथा उपसमूहों को अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षरों तथा अंको द्वारा (A1, A1a आदि) किया जाता है। पितृसत्तात्मक R1a1a (इसके ही मुख्य समूह R1a को ही प्रोटो इण्डो-आर्यन जीन या आर्य वंश कहते हैं।) वंश समूह पूरे विश्व में सबसे विस्तृत परिवार है, जो कि यूरेशिया में अरबों की संख्या में है। ये एशियाटिक रूस के तुवा क्षेत्र में, पोलैण्ड, रूस, यूक्रेन में तथा साथ ही, भारतीय उपमहाद्वीप में भी फैला हुआ है।
यह जो R1a1a है, यह भारतीय-युरोपिय भाषाओं के प्रचार का मानचित्र भी बताता है। यही वंश समूह इण्डो-आर्यन वंश समूह का प्रतिनिधि है। यह Y गुणसूत्रीय वंश समूह पिता से पुत्र के एक निरंतर चल रहे वंश को दिखाता है। निम्न मानचित्र में इसका विस्तार बताया गया है। नीचे दिये गए शोधपत्र को ध्यान से पढ़ें।
शोधपत्र ४ बताता है कि वंश समूह R1a1* जो पूरे यूरेशिया में पाया जाता है, वह भारत में उत्पन्न हुआ। यहाँ सितारा (*) बताता है कि यहाँ चर्चा इस वंश समूह के समस्त उपसमूहों की हो रही है।12Sharma S. et al. The Indian origin of paternal haplogroup R1a1* substantiates the autochthonous origin of Brahmins and the caste system. Journal of Human Genetics (2009) 54, 47–55; doi:10.1038/jhg.2008.2 नीचे दी गई सारिणी यह स्पष्ट कर रही है कि R1a वंश समूह अपने समस्त उपसमूहों सहित भारत में कम से कम १८००० सालों से विद्यमान है।
यह शोधपत्र २०१५ तक के हुए इन समस्त शोधों का परिशोधन करके बताता है कि वंश समूह R1a के सबसे पुराने उदाहरण युरोप या स्टेपी में नहीं अपितु भारतीय उपमहाद्वीप में पाए जाते हैं तथा उसके सबसे प्राचीन उदाहरण १५,४५० वर्ष पुराने हैं।13Lucotte G. (2015) The Major Y-Chromosome Haplotype XI – Haplogroup R1a in Eurasia. Hereditary Genet 4:150. doi: 10.4172/2161-1041.1000150
४००० वर्षों पहले भारत से ऑस्ट्रेलिया प्रवास के साक्ष्य
ऑस्ट्रेलिया में किए गए आनुवांशिक अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने पाया कि ऑस्ट्रेलिया की मुख्य आबादी के जीनों में लगभग 10% भारतीय आर्यों के भाग हैं। इससे यह निर्णीत हो गया कि आज से ४५०० से ४००० वर्ष पूर्व भारतीय किसी प्रकार से ऑस्ट्रेलिया पहुंचने में सफल हो गए थे। यह शोध देखें।
इन समस्त आनुवांशिक चर्चाओं से हमें क्या पता चलता है?
हमें पता चलता है कि R1a वंश समूह की उत्पत्ति भारत में हुई। जिसके प्राचीनतम नमूने १५,४५० वर्ष प्राचीन हैं। अर्थात् आर्य भारत में १५,४५० वर्षों से रह रहे हैं। और यह बात इस बात को सिरे से झूठा करार देती है कि आर्य भारत में मात्र ३५०० वर्ष पूर्व आए। आज भारत में R1a समूह से सम्बद्ध जो अरबों की जनसंख्या है, उन सबके पूर्वज भारतीय हैं।
ये सारे खोज बताते हैं कि भारतीय लोगों का घनिष्ठ आनुवांशिक संबंध रूसी, वाइकिंग, नॉर्मन, पोलिश, प्राचीन सीथी तथा तुषारी (Tocharians) लोगों से है। और यह केवल आनुवांशिक संबंध नहीं अपितु सांस्कृतिक तथा भाषाई संबंध भी है। यह आकाट्य सिद्ध होता है कि भारतीय आर्यों की ही वंश परंपरा सुदूर पश्चिम की ओर युरोप आदि देशों तक पहुंच गई। यह बात ही आर्य प्रवास पर करारी चोंट है।
विरोधाभासी आनुवांशिक अध्ययन
इस लेख को पढ़ते पढ़ते लोगों के मन में यह बात भी आ रही होंगी कि क्या पता, कहीं भविष्य में ऐसा शोध हो जाए जो इन शोधपत्रों को झूठा साबित कर दे। तो आपको बता दूँ, भविष्य में नहीं, भूतकाल में भी ऐसे शोध हुए हैं जिन शोधों में इन शोधों के प्रति विरोधाभास का भ्रम है। किन्तु न आज के, न भविष्य के और न पहले के शोध इस बात को नकार सकते हैं कि R1a नामक आर्य वंश समूह १५,४५० वर्ष पूर्व भारत में रहते थे। भावी शोधों में इस सामान्य से शोध के परिवर्तन की संभावना नहीं है। अत्यंत क्लिष्टता से एकत्रित आँकड़े अवश्य परिवर्तनशील हो सकते हैं।
आर्य तथा द्रविड विभाजन का झूठ
आर्य तथा द्रविड, ये उत्तर तथा दक्षिण का विभाजन भी झूठ है।14https://m.timesofindia.com/india/Aryan-Dravidian-divide-a-myth-Study/articleshow/5053274.cms एक नेचर नामक पत्रिका है। उसने तीन अध्ययनों में ये पाया कि अधिकतर भारतीय चाहे आर्य हों कि द्रविड, दोनों आनुवांशिक रूप से एक ही वंश से हैं।15Dolgin E. Indian ancestry revealed (2009). doi:10.1038/news.2009.935 इस अध्ययन का शोधपत्र यहाँ से पढ़ें। मानवीय आनुवांशिकी के विश्वविख्यात वैज्ञानिक डॉ. कुमारस्वामी थंगराज ने भी विभिन्न शोधों में पाया कि भारतीय व्यक्ति एक ही आनुवांशिकी परिवार का हिस्सा है।16https://m.economictimes.com/opinion/interviews/all-indians-have-the-same-genes-kumarasamy-thangaraj/articleshow/11324640.cms आर्य वंश समूह (R1a1a) न केवल उत्तर तथा दक्षिण भारतीयों में अपितु आदिवासियों, कबीलाई वनवासियों तक में उच्च आवृत्तियों में मिला है। तमिल के संगम नामक साहित्य में भारत की जो सीमा रेखा बताई गई है, वह हिमालयों के उत्तर दिशा से प्रारम्भ है, जो कि बताता है भारत में द्रविड कोई भिन्न नहीं। इस ३०० ई.पू. के संगम साहित्य में महाभारत, रामायण, वेद आदि का भी वर्णन है। स्वयं “द्रविड” एक संस्कृत शब्द है। साथ ही, संस्कृत साहित्य के अग्रिम ग्रंथों में से एक “श्रीमद्भागवत महापुराण” के नवम स्कंध के पहले ही अध्याय में “स वै सत्यव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेश्वरः” कहकर सूर्यवंश की जन्मभूमि द्रविड भारत को कहा गया है। सूर्यवंश तथा चन्द्रवंश आर्य राजाओं की दो मुख्य धाराएं हैं। इसके अतिरिक्त चोल राजवंश पर यदि दृष्टिपात करें तो उनके माध्यम से संस्कृत तथा सनातन धर्म का देश विदेश में खूब प्रचार किया। उनकी आधिकारिक भाषा संस्कृत तथा लोकभाषा तमिल थी।
तमिल तथा आर्यों में भाषाई विरोध ही मुख्य विरोध रहा है। इस भाषाई विरोध की स्थिति मैक्समूलर से भिन्न नहीं। जिन अंग्रेजों ने तमिल का अध्ययन करके १८वीं सदी में झूठ फैलाए, उन्होंने स्वयं ही अपनी पोल खोली है। ये वीडियो देखें।
आर्य प्रवास भारत में नहीं, बल्कि भारत से हुआ इसके प्रमाण
कई ऐसे भी साक्ष्य उपलब्ध हैं जो यह स्पष्ट कर देते हैं कि प्रवास पश्चिम से भारत में नहीं अपितु भारत से पश्चिम की ओर हुआ है। नीचे इसके कतिपय प्रमाणों की चर्चा है। कुछ लोगों ने ऐसे प्रमाणों को छुपाने का प्रयास भी किया है, उनके हेतु भी उत्तर निम्नांकित है।
भारत से पश्चिमी प्रवास के साहित्यिक साक्ष्य
आर्य प्रवास भारत से पश्चिम देशों में गया। दुह्यु के पश्चिम की ओर जाने की बात ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में है ही, इसके अतिरिक्त बौधायन श्रौत सूत्र का यह भाग देखें।
“पुरूरवा ह पुरा ऐडो राजा कल्याण आस तꣳ होर्वश्यप्सराभिदध्यौ। तꣳ संवत्सरं कामयमानानुचचारैव ह स्म वै पूर्वे ऽभिश्राम्यन्ति। तद्धातिचिरं मेने तस्य ह धावतः पुरो रथं कर्तं दर्शयामास। तꣳ ह दृष्ट्वा राजावतस्थौ तꣳ हावस्थाय न ददर्शाथो ह पुनरातस्थौ तꣳ हास्थायैव ददर्श स ह सारथिं पप्रच्छ सारथे किं पश्यसीति। त्वां भगव इति होवाच रथमश्वान्पन्थानमिति। स हेक्षां चक्रे दृप्यामि वै किलेति। तꣳ ह वागभ्युवाच न वै दृप्यस्यहं वै त्वामेतं कर्तमदीदृशमिति। अथ कस्त्वमित्यह मुर्वश्यप्सरेति होवाच। सा त्वा संवत्सरं कामयमानान्वचारिषं तां मा जायां विन्दस्वेति। दुरुपचारा ह वै भवति देवा इति होवाच। का त उपचर्येति। शतं ममोपसदः। शतꣳशतं मा सर्पिष्कुम्भा अहरहरागच्छेयुस्तदाशना स्यां न त्वा नग्नं पश्येयमिति। सर्वमेवैतद्भगवति सुकरमिति होवाच। कथा त्वपि जाया पतिं नग्नं न पश्यतीत्यन्तर्वासं वसीथा इति होवाचानग्रो भवेति। तया सहोवासान्तर्वासं वसानः सा ह स्म जाताञ्जातानेव पुत्रानपविध्यति। ताꣳ ह राजोवाच पुत्रकामा उ वै भगवति वयं मनुष्याः स्मो जाताञ्जातानु त्वमपविध्यसीति। सा होवाच पर्यवेतरात्रयो भवन्ति क्षीणायुषो ऽन्ये भूयः प्रियं करवावहा इति। सायुं चामावसुं च जनयां चकार। सा होवाचेमौ विभृतेमौ सर्वमायुरेष्यत इति। प्राङायुः प्रवव्राज। तस्यैते कुरुपञ्चालाः काशिविदेहा इति। एतदायवं प्रव्राजं प्रत्यङमावसुस्तस्यैते गान्धारय स्पर्शवो ऽराट्टा इत्येतदामावसवम्॥”
– बौधायन श्रौत सूत्र १८|४४
इस पूरे खण्ड में बताया गया है कि उर्वशी नामक अप्सरा के मन में जब इला के पुत्र पुरुरवा को पति के रूप में प्राप्त करने की इच्छा हुई तो वह उसे ढूंढने लगी। उसे वह रथ से जाता दिखा। उर्वशी ने रथ के आगे गड्ढा कर दिया। उसे देखकर जब पुरुरव रथ से उतरे तब उन्हे गड्ढा नहीं दिखा किन्तु रथ पर चढ़ते ही गड्ढा पुनः दिखने लगा। उन्होंने सारथी से पूछा कि, “हे सारथि! तुम्हे क्या दिख रहा है?” सारथी ने कहा, “हे प्रभु! आप, रथ और रास्ता।” तब पुरुरवा सोंचने लगे कि संभवतः वे पागल हो गए। उसी समय उर्वशी उनके समक्ष प्रस्तुत होकर स्वयं को उन्हे समर्पित करने लगी। राजा पुरुरवा को इससे आपत्ति तो हुई किन्तु वे ईश्वर की योजना जानकर मान गए। किन्तु उन्होंने एक शर्त रखी कि उन्हें १०० मटके घी तथा १०० सेवक नित्य चाहिये। उर्वशी ने भी कह दिया कि वह उन्हें एकान्तवास के समय अपत्तिजनक अवस्था में नहीं देखेगी। अनन्तर उनके पुत्र जो पुत्र हुए, उसमें आयु पूर्व की ओर जिनका राज्य काशी-विदेह तथा कुरु और पांचाल हुए। अमावसु नामक पुत्र पश्चिम की ओर गया और गान्धार (अफगानिस्तान) स्पर्शव (फारस) अरट्टा उसके राज्य हुए।
अरट्टा अरारात (Mt. Ararat) नामक पर्वत के आसपास का क्षेत्र था जो आज तुर्की (पूर्वी आनातोलिया) तथा आर्मेनिया का क्षेत्र है। स्पर्शव या पार्श्व के रूप में जिसका अधिक उद्धरण है, वह फारस है। यह फारस नाम संस्कृत तथा अवेस्तान (पुरानी फारसी) के परशु से लिया गया है। यह कुल्हाड़ी का पर्यायवाची है। भारत तथा फारसी पर्शिया के बीच स्पष्ट सांस्कृतिक तथा भाषाई समानताएं हैं।
आर्मेनियन संस्कृति में इस अरारात पर्वत को “मासिस” (Masis) कहते हैं। यह नाम एक महान आर्मेनियाई राजा “अमास्य” (Amasya) से पड़ा। ये अमास्य पुरुरवा पुत्र अमावसु से ही निर्मित जान पड़ता है। जर्मनी के एक विचारधारक एम. विटज़ेल (M. Witzel) तथा मार्क्सवादी इतिहासकारा रोमिला थापर ने इस श्रौत सूत्र की गलत व्याख्या की जिससे भयंकर विवाद छिड़ गया था। पता नहीं, लोगों की आँखों के सामने लिखी विषयवस्तु दिखती कैसे नहीं।
ईरान तथा ईराक क्षेत्रों में यह बात प्रचलित है कि आर्य भारत से वहाँ आए। इस विषय पर निम्न प्रमाण देखने योग्य है। यह कहता है कि कुछ हज़ार साल पहले आर्यों का आगमन उनके क्षेत्र में हुआ। यह एक बार नहीं, अपितु अनेक बार आर्यों का पश्चिमी प्रवास हुआ, इसका प्रमाण है।
“चन्द हज़ार साल पेश अज़ ज़माना माज़ीरा बुज़ुर्गी अज़ निज़ाद आर्या अज़ कोहहाय कफ़ काज़ गुज़िश्तः बर सर ज़मीने कि इमरोज़ मस्कने मास्त क़दम निहादन्द। ब चूँ आबो हवाय ईं सर ज़मीरा मुआफिक़ तब’अ ख़ुद याफ़्तन्द दरीं जा मस्काने गुज़ीदन्द व आं रा बनाम ख़ेश ईरान ख़्यादन्द।”
– जुग़राफ़िया पंज क़ितअ बनाम तदरीस दरसाल पंजुम इब्तदाई सफ़ा ७८, कालम १, मतब अ दरसनहि तिहरान, सन् हिज़री १३०६, सीन अव्वल व चहारम अज़ तर्फ़ विज़ारत मुआरिफ़ व शरशुदः। (वैदिक यति मंडल द्वारा प्रकाशिक स्वामी विद्यानन्द सरस्वती की “आर्यों का आदिदेश” नामक पुस्तक में भी उद्धृत)
भारत से पश्चिमी प्रवास के पुरातात्विक साक्ष्य
वर्तमान सीरिया और आनातोलिया में आज से लगभग ३५०० वर्ष पूर्व मितान्नी साम्राज्य के संकेत मिलते हैं। उस साम्राज्य के शासक आर्य थे। उनके नाम भी संस्कृत से सम्बद्ध हैं। इस साम्राज्य की राजधानी Washikanni (वसुकर्णी) थी। वहाँ के प्रसिद्ध परत्तर्न नामक राजा का नाम प्रतर्दन सिद्ध हुआ है। उसका शासनक्षेत्र नीचे मानचित्र में देखें।
इस शासकों को हुरियन कहा गया है जो कि सूर्यन है। कैसे? जैसे कि प्राचीन भाषाओं में कई स्थानों में “स” का “ह” हो गया। उदाहरण के लिये प्राकृत भाषा जो कि संस्कृत का अशुद्ध रूप है, उसमें “हप्त हिन्दु” वास्तव में “सप्त सिंधु” है। ऐसे ही, हिन्दी की गिनतियों में भी ग़ौर करें। उनहत्तर, उसके बाद फिर सत्तर आता है। यह उनहत्तर भी उनसत्तर है। अर्थात् सत्तर से एक कम। संस्कृत में इसे एकोनसप्तति या उनसप्तति कहते हैं। तथैव सूर्यन से सुरियन, फिर हुरियन हो गया। वसुकर्णी राजधानी में वसु का तात्पर्य सूर्य की किरण से हो सकता है क्योंकि वसु का पर्याय रश्मि है। इसके राजाओ में आगे प्रतर्दन के पश्चात् त्वेषरथ (Tusharatta) नाम के राजा हुए। इनकी बेटी का विवाह मिस्र में हुआ था। राजा अमेनहोतेप तृतीय उसका पति था। त्वेषरथ का पुत्र शक्तिवज्र (Shattiwaza) हुआ। इसके काल (१३०० ई. पू. के आसपास) में हित्ती तथा मितान्नी राजा के मध्य एक शांति संधि (Boğazköy Inscription) के अंतर्गत आर्य देवता जैसे मित्र, वरुण, इन्द्र, नासत्य आदि सूचीबद्ध मिले।17https://drive.google.com/uc?export=download&id=1YCZ6JGS593B-Pi9MU4BFIg-EKBPukAnA
बोगज़कोय शिलालेख में प्राप्त मित्र सूर्य के नाम से यह निर्णीत हुआ कि मितान्नी Maiita अर्थात् मैत्र या मित्र से बना है। अर्थात् इसका नाम मित्र नामक सूर्य की ओर संकेत करता है। नुज़ी में यह जानकारी प्राप्त हुई। इस सूत्र से देखें तो जैसे इन्द्र की इन्द्राणी होती है, तथैव इस साम्राज्य का नाम मित्राणी होना चाहिये। मित्राणी का तात्पर्य सूर्य की पत्नि। क्योंकि आर्य भूमि को स्त्री मानते हैं। मित्राणी से अशुद्ध होकर यह मितान्नी हो गया। उस आनातोलियाई क्षेत्र में संस्कृत नाम वाले कई साम्राज्य थे। जैसे आज से लगभग ३९०० से ४००० वर्ष पूर्व के कुसार, कनेश, पुरुस्कंध, समूह, वाह्सूसन आदि आदि, जिनका शोधन करने से इनका वास्तविक नाम प्रत्यक्ष हो सकता है।
एक विषय से अतिरिक्त प्रश्न उठ सकता है कि यदि ये नाम संस्कृत के हैं, तो ये सब इतने भ्रष्ट कैसे हो गए। इसका सीधा सा उत्तर इतिहास में ही मिलेगा। सोंचिये। रजनीकांत को द्रविड भाषा में रजनीकांथ या रजनीकांथा कहा जाता है। ये ही भाषाई भ्रष्टता की शुरुआत है। यदि हम और दृष्टिपात करें तो श्रीलंका के तमिल लोगों को देखिये। वे दमयंती को तमयंती कहती हैं। मॉरेशियश के तमिल सुब्रह्मण्यम् को “सौप्रामोनियाम” कहते हैं। इसी प्रकार भाषाई भ्रष्टता होती है।
इस मितान्नी साम्राज्य से ही संस्कृत के सबसे पुराने संकेतों में से एक मिले हैं। यह एक किक्कुली नामक अश्व प्रशिक्षक के द्वारा लिखी गई घोड़े को प्रशिक्षित करने की विधि है जो कि लगभग १४०० ई. पू. की है। उसमें संस्कृत के अंकों को स्पष्ट लिखा गया है तथा कई ऐसे संस्कृत शब्द भी लिखित हैं जो लेखक अपनी भाषाओं की सीमितता के कारण प्रचलित भाषाओं से लेता है। उस मिट्टी से निर्मित पत्थर के लेख रेखा १ से चार तक किक्कुली ने अपना परिचय कुछ इस प्रकार दिया है, “UM.MA Ki-ik-ku-li LÚA-AŠ-ŠU-UŠ-ŠA-AN-NI ŠA KUR URUMI-IT-TA-AN-NI”। अर्थात्, “किक्कुली मित्तान्नी की भूमि का निपुण घोड़ा प्रशिक्षक”। यहाँ घोड़े के लिये “असु” या “असुस” लिखा गया है, जो कि संस्कृत के अश्व से मेल खाता है।
ऋग्वेद में प्रथम उल्लिखित देवों की चर्चा हित्ती संधि में प्राप्त होने से हमने यह जाना कि ऋग्वेद का लेखन आधुनिक इतिहासकारों के बताए समय से कहीं अधिक पुरातन है। उसमें सिंधु, सरस्वती आदि नदियों का उल्लेख सिद्ध करता है कि उसका लेखन भारत में हुआ (हालाकि वेद अपौरुषेय हैं किन्तु यदि हम आधुनिक इतिहासकारों के अनुरूप भी कहें तो…)। चूँकि उसमें उद्धृत देवों का उल्लेख हित्ती संधि मे है, यह भारतीयों के अतिप्राचीन पश्चिमी प्रवास को सिद्ध करता है। अतिप्राचीन इसलिये क्योंकि भारत से विस्थापन, वहाँ सनातन धर्म का प्रसार, इन कार्यों में सहस्राब्दियाँ तो लगीं होंगी। यह इस व्यंग्य पर भी करारी चोंट है कि पहले संस्कृत बोलने वाले भारतीय नहीं, सीरियाई थे।
भारत से पश्चिमी प्रवास के आनुवांशिक साक्ष्य
२०१५ में हुए आनुवांशिक अध्ययन से पता चलता है कि युरोप ने पूर्व से भारी मात्रा में आनुवांशिकी प्रवाह को झेला है। जिसका प्रारम्भ आज से लगभग ४५०० वर्ष पहले हुआ।18Haak W. et al. Massive migration from the steppe was a source for Indo-European languages in Europe. Nature. 2015;522(7555):207–11. doi: 10.1038/nature14317. यहाँ से उस शोध से प्रभावित नेशनल जियोग्राफिक का लेख पढ़ें। यह राक्षसी प्रवास युरोप में अपने साथ कई वंश समूहों को लेकर घुसा जिसमें एक R1a1a (Indo-Aaryan Haplogroup) भी था। यह पूर्ण प्रतिस्थापन की घटना है और इसने यूरोप में प्रवेश करके वहाँ वहीं के लोगों के Y गुणसूत्र के स्तर को कम कर दिया। अर्थात् वहाँ की स्वदेशी जीन का स्थान ले लिया।
यह आनुवांशिक परिवर्तन बताता है कि आधुनिक युरोपीय जनसंख्या को बनाने में आर्य तथा कुछ अन्य जीनों का हाथ है जो मूलतः युरोप के नहीं हैं। इन युरोपीय आबादी को जन्म देने वाले वंश समूहों में सबसे बड़ा हिस्सा R1a1a का है।
कुछ लोग स्वयं को दनु की संतान कहते हैं
ऋग्वेद तथा अन्य सनातन साहित्यों में दनु नामक ऋषि कश्यप की पत्नि का नाम आता है। कश्यप की अदिति नामक पत्नि से आदित्य (देवता), दिति से दैत्य, दनु से दानव हुए। कश्यप की सुरभि आदि अन्य पत्नियों से अन्यान्य जीवों की उत्पत्ति का वर्णन है। दानव अहंकारी थे तथा वे उसी अहंकार के कारण देवताओं से सदा हारते रहते हैं। ऋग्वैदिक संस्कृत में जल की बूँद भी दनु का पर्याय है। वहीं, अवेस्तान (Avestan), सीथियन (Scythian), सर्माटियन (Sarmatian) में नदी को दानु कहते हैं।
युरोप में एक नदी है। प्राचीन ग्रीक के लोग उस नही को इस्ट्रोस (Istros) कहते थे जिसका अर्थ शीघ्र, शक्तिशाली आदि आदि होता था। इसके इन्ही अर्थों से पता चला कि यह नाम प्राचीन संस्कृत के “इषिरस्” (इष् गतौ + किरच्) से ही बना है। ऋग्वेद में,
शं नो॑ अ॒ग्निर्ज्योति॑रनीको अस्तु॒ शं नो॑ मि॒त्रावरु॑णाव॒श्विना॒ शम्। शं नः॑ सु॒कृतां॑ सुकृ॒तानि॑ सन्तु॒ शं न॑ इषि॒रो अ॒भि वा॑तु॒ वातः॑॥
– ऋग्वेद ७|३५|४
इस ऋक् के भाष्य में “इषिरो गतिशीलः” से इसका ग्रीक भाषा के द्वारा ग्रहण सिद्ध होता है। तो… इसी नदी का वर्तमान नाम दानुब है। यह कोई संयोग नहीं कि दानु, दनु के समान ही इसका नाम हो, अपितु बाली द्वीप के हिन्दु दनु नामक जल देवी की पूजा करते हैं। इसी समान दनु से सम्बद्ध ड्निपर है जो कि Sarmatian भाषा के दनु अपर से निर्मित है, जिसका अर्थ है निकट की नदी या गहरी नदी। यह भी संस्कृत से ही सम्बद्ध है। ऐसे ही डैनियेस्टर, डॉन, डोनेट्स, डुनाज़ेक, डौगावा, डिस्ना आदि युरोपिय नदियों की भी दनु नाम से सम्बद्धता को देखकर कई चिन्तक कहते हैं युरोप में इतनी तीव्रता से आर्यों के वंश समूह की वृद्धि के कारक कहीं दानव तो नहीं। क्योंकि जिस प्रकार युरोपिय जनों को मार मारकर एक एक स्थान में गाड़ दिया गया है, ये दानवी कृत्य है।
युरोप का पुरातन पितृसत्तात्मक वंश समूह लगभग पूरा समाप्त हो गया। ५००० वर्ष पूर्व से ४००० वर्ष पूर्व की सहस्राब्दि मे ही इन घुड़सवार यामनाया लोगों ने युरोप की आनुवांशिक पहचान, संस्कृति, यहाँ तक की मिट्टी के घड़ों का स्वरूप तक बदल दिया। ये कुछ न्यूज़ हेडलाइनों को देखिये।
१. Story of most murderous people of all time revealed in ancient DNA | New Scientist
२. How one of the most violent tribes of all time conquered Europe | earth.com
३. The most violent group of people who ever lived | News Beezer
आइरिस और सेल्टिक कथाओं के अनुसार, वे आइरिस दानु नामक आइरिश देवी के वंशज हैं। आयरलैण्ड के प्राचीन लोगों को Tuatha Dé Danann अर्थात् दनु देवी के लोग कहा जाता है। इस तथ्य का प्रमाण है कि आयरलैण्ड में प्राचीन आयरिश जीन R1a1a अब भी २.५ प्रतिशत है। कम होने का कारण कांस्य युग से अब तक कई सारे आक्रमण हैं। तथापि यह ऊपर की गई चर्चा का साक्ष्य बनने के लिये काफी है।
विश्व के दो मुख्य वंश समूह
समस्त विश्व में दो मुख्य आनुवांशिक गतियाँ हैं। एक का मूल आफ्रीका है, एक का भारत है। जहाँ आफ्रीका मूल के लोग नहीं वहाँ भारत मूल के लोग ही होते हैं। युरोपियों का मूल भी भारत ही है। भारतीय पितृसत्तात्मक गुणसूत्रीय वंश समूह F की उत्पत्ति ६२,००० से ४३,००० वर्ष पूर्व भारत में हुई थी। यहाँ से उसका विस्तार हुआ। ऊपर दिए गए शोधपत्र ३ में स्पष्ट निर्णय है कि भारतीय वंश आफ्रीका से भिन्न है।
केवल इतना ही नहीं, मातृसत्तात्मक mtDNA वंश समूह M, N, R का मूल भी भारत ही है। वह भी भारत से ही फैलना प्रारम हुआ। देखें।
इनसे क्या सिद्ध हुआ है? कि आनुवांशिक रूप से भारत में मानव तभी आया जब भारत में मानव ही नहीं था। भारत से मानव अन्य दिशाओं में फैले। पिछले कम से कम १५,००० वर्षों से भारतीय वंश समूह में सम्मिश्रण नहीं हुआ है, अर्थात् बाहरी तत्वों का प्रवास भारत में नहीं हुआ है। हुआ भी है तो वह ध्यान न देने योग्य जितनी कम मात्रा में।
भारतीय हिन्दू ग्रंथों की पुरातनता
सर्वप्रथम यदि वेदों की चर्चा करें तो उनमें भी मुख्य ऋग्वेद है। वेदों की गूढ़ता इसी से समझ लें कि भाष्य पर भाष्य लिखे गए किन्तु हर वेदभाष्य नए तथा अद्वितीय ज्ञान का भाण्डागार बना। हमारी मान्यता है कि वेद ब्रह्म है। वेद का भाषिक, वैखरी वाला स्वरूप केवल उसकी अभिव्यक्ति का साधन है अन्यथा वेद अपौरुषेय है। वेद का ज्ञान सदा से विद्यमान है। बस, अलग अलग युगों में कोई ऋषि होते हैं जिन्हें वेद ध्वनियों के रूप में प्राप्त होते हैं जिनको मंत्रदृष्टा ऋषि कहा जाता है। इन मंत्रदृष्टा ऋषियों के मंत्रों को कोई एक व्यास पदासीन मुनि हर द्वापर युग में एकत्रित करके उसका लेखन कर देता है। वर्तमान व्यास ५००० वर्ष पूर्व के कहे जाते हैं। अर्थात् हमारी मान्यता से वेद का लेखन ५००० वर्ष पूर्व हुआ। अधिक जानने के लिये पढ़ें – वेद कितने प्राचीन हैं।
आधुनिक चिन्तको का मानना कुछ भिन्न है। वे कहते हैं कि वेदों का लेखन आज से लगभग ३५०० वर्ष पूर्व, अर्थात् १५०० ई. पू. हुआ होगा। उन्होंने इस तथ्य हेतु बड़ी मेहनत की है। किन्तु एक प्रश्न उठता है। नीचे की ऋचा देखें।
“इ॒यं शुष्मे॑भिर्बिस॒खाइ॑वारुज॒त्सानु॑ गिरी॒णां त॑वि॒षेभि॑रू॒र्मिभिः॑। पा॒रा॒व॒त॒घ्नीमव॑से सुवृ॒क्तिभिः॒ सर॑स्वती॒मा वि॑वासेम धी॒तिभिः॑॥”
जो (इयम्) यह (शुष्मेभिः) बलों से (बिसखाइव) कमल के तन्तु को खोदनेवाले के समान (तविषेभिः) बलों और (ऊर्मिभिः) तरङ्गों से (गिरीणाम्) मेघों के (सानु) शिखर को (अरुजत्) भङ्ग करती है उस (पारावतघ्नीम्) आरपार को नष्ट करनेवाली (सरस्वतीम्) वेगवती नदी को (धीतिभिः) धारण और (सुवृक्तिभिः) छिन्न-भिन्न करनेवाली क्रियाओं से (अवसे) रक्षा के लिये जैसे हम लोग (आ, विवासेम) सेवन करें, वैसे तुम भी इसका सदा सेवन करो।
– ऋग्वेद ६|६१|२
प्रश्न यह है कि सरस्वती नदी का वेगवती, शिखरों को अपने तरंगों से भंग करने वाली आदि आदि स्वरूपात्मक व्याख्या बताती है कि वेद जिस भी काल में प्रकट हुए, सरस्वती नदी का स्वरूप ऐसा था। किन्तु आधुनिक चिन्तकों के अनुसार १००० से १५०० ईसा पूर्व तो सरस्वती नदी सूख गई थी। ऐसे में ऋग्वेद में सरस्वती का ऐसा रूप कैसे वर्णित है जो कि स्वस्थ सरस्वती का चित्रण है? सरस्वती का जैसा चित्रण ऋग्वेद में हुआ है, वैसी सरस्वती आज से ६००० ई. पू. के आसपास ही थी। इससे स्पष्ट होता है कि वेदों का दर्शन ७००० से ८००० वर्ष पूर्व या उससे पहले का तो है।
अभी हमने वेदों की चर्चा की। आइये वेदों के उपरान्त अन्य पुराण, इतिहास आदि की भी चर्चा करें। इसका भी मूल सरस्वती रहेगी। निम्नांकित श्लोक पर दृष्टिपात करें।
“सरस्वती पुण्यवहा ह्रदिनी वनमालिनी।
– महाभारत ३|८८|२
समुद्रगा महावेगा यमुना यत्र पाण्डवः॥”
इस महाभारत के श्लोक में सरस्वती को ह्रदिनी (गहरा) तथा वनमालिनी (वनों से आच्छादित) कहा गया है। वर्तमान समय में सरस्वती का जो क्षेत्र प्राप्त हुआ है, उस क्षेत्र में नदी के कारण वन भी रहे ही होंगे। आज वहाँ की स्थिति इससे उलट है। यह भी लगभग उसी कालखण्ड का परिदृश्य होगा जो ऊपर ऋग्वेद का प्राप्त हुआ। ऐसे अनेक उदाहरण अनेक पुराणों, ग्रंथों में प्राप्य हैं जिन्हें लोग व्यास, वाल्मीकि आदि की कृतियाँ कहते हैं। इसके बाद के भी ग्रंथ हैं, किन्तु वे व्यास आदि की कृतियाँ नहीं हैं, अन्य महापुरुषों के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह बात तो सिद्ध हो ही गया कि ये सब ग्रंथ जिन्हें भारतीय ५००० वर्ष प्राचीन मानते हैं, वे वास्तव में उतने प्राचीन या कम से कम ५००० वर्ष से पूर्व के तो हैं। वेदों तथा पुराणों की भाषा को देखकर उन्हें पुराना, नया कहा जाता है, किन्तु इन प्रमाणों से यह अनुमान भी लगता है कि हो सकता है, एक विशिष्टताप्राप्त संस्कृत स्वरूप तथा एक अन्य सामान्य संस्कृत रहा हो। आज भी हिन्दी ऐसी ही एक भाषा है। विशिष्ट संस्कृत में पुरातन तथा सरल में तत्कालीन प्रचलित शब्दों का समावेश हो, क्या पता। किन्तु यह तो सिद्ध है कि ये ग्रंथ ५००० साल या उससे पूर्व के हैं। ऐसे में १५०० ई. पू. के आर्य आगमन को यह तथ्य भी झूठा साबित करता है।
निष्कर्ष
इन समस्त आनुवांशिक, पुरातात्विक, ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि आर्य प्रवास एक बड़ा झूठ है। कुल मिलाकर कहें तो यह सम्पूर्ण सिद्धान्त केवल फूट डालो राज करो की नीति का हिस्सा है। वास्तव में सनातन धर्म ही सिंधु सभ्यता है। यह न केवल हम अपितु अधिकांशतः वैज्ञानिक तथा टाइम्स ऑफ इण्डिया भी कहता है। देखें।
हमने जाना कि इण्डो आर्यन भाषाओं की उत्पत्ति भारतीय उपमहाद्वीप में हुई। वैदिक सभ्यता तथा सिंधु घाटी की सभ्यता एक है। ऋग्वेद की, महाभारत आदि का लेखन कम से कम ५००० से ७००० वर्ष पूर्व या उससे पहले हुआ था (इससे पूर्व भी ऋग्वेद मौखिकी धारा में चिरकाल से प्रवाहित रही होगी)। हित्ती संधि में देवों के नाम भी कुछ यूँ ही संकेत करते हैं। सनातन धर्म भारत का मूल तथा पूरे एशिया के धर्मों का मूल धर्म है। भारतीय सभ्यता के पुरातात्विक सर्वेक्षणों से प्राप्त निष्कर्ष बाइबल की कहानी कि विश्व का आरंभ ८५०० वर्ष पूर्व हुआ, को नकारती है। अपने तथाकथित धर्म की रक्षा हेतु ही अंग्रेज भारतीय संस्कृति की कालगणना को कम आंककर भारत को नीचा दिखाते आए हैं।
उत्तर तथा दक्षिण भारतीय आनुवांशिक रूप से एक हैं। आर्य द्रविड का भेद झूठ है। भारतीय सभ्यता एक निरंतर, अखंड सभ्यता है तथा मिश्र, मैसोपोटेमिया आदि से भी प्राचीनतम है। प्राचीन आर्य ही R1a1a को पश्चिम की ओर लेकर गए, उनके वंशज स्लाव (Russians, Ukrainians, Czechs, Poles, Slovaks, Serbs, Croats, Macedonians), स्केण्डीनेवियन आदि हैं। ये सब प्रमाण १९ सदी के झूठ का पर्दाफाश करता है। तथापि हम भारतीयों की कमी है कि हम असत्य को ही प्रसारित करते हैं।
आज भी शूद्र समुदाय स्वयं को आर्यों से भिन्न समझते हुए इस विचारधारा को मानते हैं। बेचारे वर्णव्यवस्था से अल्पज्ञ स्वयं को राक्षसों, दैत्यों का वंशज समझते हैं। हालाकि ऐसे कबीले हैं जिनका नाम “असुर” आदि है, किन्तु वह सब “रामनामी जनजाति” के समान असुर नाम को बाद में ग्रहण किये। ऐसा हम इस कारण मानते हैं क्योंकि असुर एक संस्कृत शब्द है और कबीलों की सदा ही अपनी अलग भाषा रही है। तमिलनाडु आदि के लोग स्वयं को द्रविड तथा आर्यों को अपना शत्रु मानते हैं। ये विचारधारा भी अंग्रेजों की देन है। १९ शतीं में अंग्रेजों ने पहले तो तमिल सीखा, फिर बेचारों को अनुचित बातें बताकर मूर्ख बनाया। ऐसे कई अंग्रेजों ने अपनी मनसा मैक्समुलर के समान जगजाहिर भी की है। उनका उद्देश्य भारत को ईसाई राष्ट्र बनाना था। यह विषयान्तर होगा, तथापि, चर्चा छिड़ ही गई है, तो अपनी स्वेच्छा से इसका खण्डन आप निम्न वीडियो में विस्तार से देखें।
अंग्रेजों के जाने के बाद भी आज इस सिद्धान्त तथा पाश्चात्य आगन्तुकों के द्वारा सुलगाई आग से ईसाई, इस्लाम तथा बौद्ध फायदा उठा रहे हैं। वे शूद्रों तथा द्राविडों को गुमराह करके धर्मपरिवर्तन कर रहे हैं। वास्तव में “ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राश्चत्वाराः श्रेष्ठवर्णकाः” सनातन धर्म के चार स्तम्भ इसके चार वर्ण हैं। अंग्रेजों तथा मुगलों के वशवर्ती ब्राह्मण समुदायों से हीनदृष्टि से देखे जाने तथा अंग्रेजों द्वारा बहकाए जाने से शूद्र तथा अन्य तमिल आदि भटक गए हैं। इसका एक कारण धर्माल्पज्ञता भी है। सिंधु घाटी सनातन धर्म की प्राचीनता का प्रमाण है। सुमेरिया से इसकी समानता तथा सुमेरिया से प्राचीन होना सिद्ध करता है कि सुमेरिया आदि की सभ्यताएं इनसे से विकसित हुईं।
इस लेख को पढ़ने वाले २ प्रकार के लोग हो सकते हैं। हम उन्हें यह सलाह देते हैं कि प्रकार १ इस लेख को जितना हो सके उतना फैलाएं। प्रकार २, जिन्हें इतने प्रमाणों के बाद भी यह लेख बकवास लग रहा हो, वे इस लेख को जितना हो सके छुपाने का प्रयास करें। तथापि याद रहे, सत्य एक दिन उजागर होता ही है।
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संदर्भित बिंदु
- Sarkar A. et al. Oxygen isotope in archaeological bioapatites from India: Implications to climate change and decline of Bronze Age Harappan civilization. Sci. Rep. 6, 26555; doi: 10.1038/srep26555 (2016).
- https://gizmodo.com/a-civilization-without-war-1595540812
- http://www.dailymail.co.uk/sciencetech/article-3791308/The-forgotten-utopia-Indus-people-lived-700-years-without-war-weapons-inequality.html
- https://www.newsgram.com/general/2015/12/01/vedic-and-harappan-are-respectively-literary-and-material-facets-of-same-civilization-b-b-lal
- https://www.newsgram.com/general/2015/11/30/no-evidence-for-warfare-or-invasion-aryan-migration-too-is-a-myth-b-b-lal
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