

लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
क्या पृथ्वी का जो आकार आधुनिक वैज्ञानिक निर्दिष्ट करते हैं वही उसका मूल आकार है? आज इसी विषय पर चिंतन करते हैं। यदि आप सिद्ध हैं तो आधुनिक विज्ञान को कठपुतलियों के समान नृत्य करा सकते हैं। कारण यह कि आधुनिक विज्ञान सीमित है। उसकी सीमा दृष्टि से आगे नहीं। वह यदि मरुस्थल में मरीचिका देख ले तो उसे भी सत्य मान लेगा। कई स्थानों में अच्छा भी है तथा कई स्थानों में हास्यास्पद। बस एक आदत सुधारे। जो वस्तु समझ से परे हो, विज्ञान उसे नकार ही देता है। ये सुधारयोग्य है। आधुनिकविज्ञानानुसार पृथ्वी का कुल आकार ५१००७२००० वर्ग किलोमीटर है। जबकि हमारे शास्त्रों में इसका परिमाण ४,०००,०००,००० किलोमीटर अर्थात् ५००,०००,००० योजन है (यदि १ योजन = १३ कि०मी० तर्हि ६,५००,०००,००० कि०मी०)।
“एतावाँल्लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्य तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः॥”
– श्रीमद्भागवत पञ्चमस्कंध १६
जम्बूद्वीप पर्णाकृत मध्यस्थ द्वीप है जो समानविस्तीर्ण क्षारसमुद्र से वेष्ठित है। तत्पश्चात् ६ और द्वीप तथा दुग्धादि समुद्र भी हैं। समस्त द्वीपों में जम्बूद्वीप सबसे लघु है। आधुनिकविज्ञानानुसार पूर्वकाल में समस्त द्वीपसमूह पर्णाकृत महाकाय पैंजिया द्वीप के रूप में था। जो पैंथालासा क्षार समुद्र से वेष्ठित था। आज समस्त देशादि उसी से स्थानान्तरित हैं। इसी एक द्वीप पर समस्त सप्तद्वीपों की कल्पना करते हैं लेकिन यह सदा अनुचित है। इस द्वीप में भी कई वर्षादि तक कलयुगीय जीवों का गमन नहीं। अब प्रश्न उठता है कि यदि समस्त दृश्य भूभाग केवलमेव एक जम्बूद्वीप है तथा एकमेव क्षारसागर है सो अन्य कहाँ हैं? इसका उत्तर भविष्यपुराण में प्राप्य है।
“तदा तु भगवाञ्छक्रो विश्वकर्मागमब्रवीत्। भ्रमिश्च नासयंत्रोऽयं संस्थितः सप्तसिन्धुषु॥ त्वया विरचितस्तात तत्प्रभावान्नरा भुवि। अन्यखण्डे न गच्छन्ति स च यन्त्रस्तु मायया॥”
– भविष्यपुराण प्रतिसर्गपर्व चतुर्विंशो० ४-५
देवेन्द्र ने कहा “हे तात! सप्तसिन्धुओं में आपके द्वारा निर्मित यंत्र स्थापित हैं जिससे प्रभावित मानवादि जंतु एक से दूसरे भूखण्डों की यात्रा नहीं कर सकते।”
अर्थात् विश्वकर्माकृत अतिविकसित यंत्रों से मोहित जीव केवल वहीं की यात्रा कर सकते हैं किवा देख सकते हैं जिसे देव उन्हें दिखाना चाहें। अन्य द्वीपसागरादि गुप्त हैं जहाँ केवल सिद्धों की गति है। पुनर्प्रश्न आया कि ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी कि यंत्रों से हमें बाधित करना पड़ा? आप स्वयं सोंचे कलयुगीय मानवों की प्राकृति कैसी है। जो प्राप्त है, उसी को दूषित कर रहे हैं तो बांकी भी गम्य होता तो उसका क्या करते। तदुपरि…
“ह्रदाश्चत्वारः पयोमध्विक्षुरसमृष्टजलाः यदुस्पर्शिन उपदेवगणाः योगैश्वर्याणिस्वाभाविकानि भरतर्षभधारयन्ति॥” “एवं कुमुदनिरूढ़ो यः शतवल्शो नाम वटस्तस्यस्कंधेभ्यो नीचीनाः पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशैयासनाभरणादयः सर्व एव कामदुघा नदाः कुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तरेणेलावृतमुपयोजयन्ति॥ यानुपजुषाणानां न कदाचिदपि प्रजानां वलिपलितक्लमस्वेददौर्गन्ध्यजरामयमृत्युशीतोष्णवैवर्ण्योपसर्गादयस्तापविशेषा भवन्ति यावज्जीवं सुखं निरतिशयमेव॥”
– श्रीमद्भागवत पञ्चम० १६
ऐसी सरताएं सरोवरें विद्यमान हैं जिनके जल के सेवन से सिद्धियाँ, ऐश्वर्य, यौवन, चिरायु की प्राप्ति होती है। यह हमारे गम्य होता तो आज हम उत्पात कर रहे होते क्योंकि ये सारी वस्तुओं के हेतु मनुष्य कुछ भी कर सकता है। इलावृतस्यमध्येमेरुः। जिससे जीव सशरीर ब्रह्मलोक जा सकता है। यदि वह गम्य होता तो व्यवस्था डावाडोल हो जाती। यही हुआ भी था। भविष्यपुराण में ही “मयेन भ्रंशितो” वे विश्वकर्मारचित यंत्र मय दानव के द्वारा खण्डित किये गए थे जिससे मेरु से म्लेच्छ सशरीर देवपुरियों में प्रविष्ट होने लगे थे। पुनः सही कर समस्त व्यवस्था सुव्यवस्थित की गई थी। यह यंत्रविद्या आधुनिक अल्पविकसित विज्ञान हेतु उसी प्रकार अमान्य होगा यथा ५०० वर्ष पूर्व के विज्ञान हेतु मोबाइल तथा अंतर्जाल अमान्य थे। क्या इसके समकक्ष का आधुनिक विज्ञान ने कोई सिद्धांत दिया है? अवश्य। वह सिद्धांत है वर्म होल सिद्धांत। जिससे अंतरिक्ष को मोड़ा जा सकता है। एक शिरे से दूसरे शिरे तक बिना मध्य की यात्रा किये जाया जा सकता है। अस्तु, यह केवल कागज़ी सिद्धांत है। हमारे प्राचीन विकसित विज्ञान के चमत्कार अद्य के वैज्ञानिकों की बुद्धि से परे हैं। अर्थात् यह सिद्ध है कि दृश्य भूगोल वास्तविक तो है परंतु अपूर्ण है। पृथ्वी का वर्तमान भूगोल छोटा है।