॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   रचयिता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

यस्याङ्घ्र्याभरणेन शोभिततमो लक्ष्मीप्रियः केशवो
नित्यं वै मनुते वसन् फणधरस्यास्यां च दुग्धार्णवे।
जायन्ते विविधाः प्रजा इह सदा क्षत्र्यादयो येन तद्
वन्देऽहं प्रगतिश्च यस्य निनदे सर्वस्य यं ब्राह्मणम्॥१॥

जिनके चरण रूपी आभूषणों से क्षीरसागर में सर्पशैया पर विराजमान स्वयं को भगवान् विष्णु भी शोभित तथा लक्ष्मीप्रिय मानते हैं तथा जिनसे इस यहाँ विविध प्रकार के क्षत्रियों आदि की उत्पत्ति होती रहती है, जिनके वाक्यों में सबकी उन्नति स्थित है, ऐसे ब्राह्मणवंश को मेरा नमस्कार है।

का वा अप्सरसस्स्त्रियो जननिभिर्पुत्रा इवाकाङ्क्षिताः
सौन्दर्यं प्रचुरं तथापि मनसा मानेन मुक्ता मुदाः।
विद्यावादवदास्तथैव सरला दिव्या सदा ह्यात्मभिः
प्रत्यक्षाः पृथिवीतले सुमनसस्तेषां कृपायै नमः॥२॥

अप्सराएं कौन हैं, स्त्रियाँ कौन हैं, माताएं भी जिनकी अपने पुत्रों के रूप में इच्छा करतीं हैं। सुन्दरता से परिपूर्ण होते हुए भी वे उसके अभिमान से सदा मुक्त रहते हैं। सदैव विद्या से ओतप्रोत भाषा वाले होने के पश्चात् भी सरल तथा अंतःकरण से दिव्य उन पृथ्वी के प्रत्यक्ष देवताओं की कृपा को नमस्कार है।

वेदानां श्रवसी मुखं च नयनौ पादौ कुतो नासिका
चैतावत्कुशलः कुले शमयितुं को वेदरूपं महान्।
आचारप्रणयप्रकाशितमुदो विप्रो हि वेदः स्वयं
वेदानां करुणा हि तस्य करुणा तस्मै नमो ब्रह्मणे॥३॥

वेदों के कान, मुख, नयन, चरण तथा नाक कहाँ हैं? मनुष्यों में कौन इतना कुशल तथा महान् है कि वेदों के (मानुषी) स्वरूप को देख पाए? सदाचार से सदा सम्बद्ध होने के कारण प्रकाशमान वह विप्र ही स्वयं वेद है। उसकी करुणा को ही वेदों की करुणा समझना चाहिये। उस ब्राह्मण को नमस्कार है।

शाठ्यं निष्ठुरतामधर्मविवधं निर्वादमीप्सास्थिती-
स्त्यक्त्वा चेश्वरचिन्तनेन गिरिवच्छास्त्रे रतो निश्चलः।
क्षुद्रं नैव निराकरोति विरतो देहेन देहं च वै
विप्रद्वन्द्वगतं पुरोद्भवकृतश्रेयं नुमो वाडवम्॥४॥

जो कपट, निष्ठुरता, अधार्मिक मार्ग, दूसरों की निंदा तथा कामनाओं वाले स्वभाव को त्यागकर ईश्वरचिन्तन के माध्यम से शास्त्र वाक्यों पर पर्वत के समान अडिग है, जो इस शरीर से विरक्त होते हुए भी इस शरीर को तुच्छ नहीं समझता (शरीर को भगवत्कृपा का माध्यम समझता है), जो ब्राह्मण युग्म (ब्राह्मण तथा ब्राह्मणी) से उत्पन्न तथा पूर्वजन्म का कृतकृत्य है, उस ब्राह्मण को हमारा नमस्कार है।

सन्ध्येज्याहवनादिकर्मनिरताः स्वाध्यायसेवारता-
स्तप्त्वा दीप्तमुखाः स्मितास्तदपि ये चाद्वैतनिष्ठारताः।
पापात् पुण्यगतिः ततोऽमृतपदं गायन्ति यद्बन्धिने
आकाशाद्विसृता नुमो दिविषदोऽस्माकं सुगत्यै भुवाम्॥५॥

जो संध्याकर्म, उपासना तथा हवनादि कर्मों में संलग्न, स्वाध्याय की सेवा करते हुए, तप से दीप्त होते तथापि हँसमुख एवं अद्वैत में निष्ठा रखने वाले हैं, बन्दियों (जीवों) हेतु जो पाप से पुण्य तथा उससे भी आगे की गति, मुक्ति का मार्ग बताने वाले हैं और जो हमारी उत्तम गति हेतु स्वर्ग से नीचे आए साक्षात् देवता हैं, उनको हमारा नमस्कार है।

जात्या देहगुणात्मशीलनियमैर्यो ब्राह्मणत्वे गतो
विद्या यस्य प्रवाहिता सुरनदी तृप्यत्यतोऽस्मिन् कुले।
व्यक्तित्वेन शिनष्टि कर्मविवरं हास्येन प्रोत्साहनं
हृद्ग्रन्थौ भरते प्रणौमि सततं दिव्यं प्रशान्ताननम्॥६॥

जो जाति से, देह से, गुण से, आत्मा से, शील से तथा नियम से ब्राह्मणत्व प्राप्त करने वाले हैं। जिनकी विद्या हम मानवों को तृप्त करने वाली गंगा के समान बह रही है तथा जो अपने व्यक्तित्व (कर्मों से) कर्म के गूण रहस्यों का विवेक बताते हुए भी मुस्कुराकर (उस कर्म हेतु) प्रोत्साहन को हमारे हृदय में भर भी रहे हैं ऐसे प्रशान्त मुख वाले ब्राह्मण को मेरा सतत प्रणाम है।

ब्रह्मास्त्रं धनुषे पुनः सुरपतेर्वज्राय भक्तिं परां
विष्णोश्चक्रभयाच्च भक्तकृपया भूतेशशूलात्तथा।
लोके किं शुभमौषधं छदयति क्रोधेन विप्रस्य वै
कारुण्यं प्रतिघं हरीश्वरसुरज्येष्ठात्मकं नौम्यहम्॥७॥

ब्रह्मास्त्र को पुनः धनुष में बुलाया जा सकता है (अर्जुन तथा अश्वत्थामा प्रसंग)। इन्द्र के वज्र की काट हेतु भक्ति को अपनाया जा सकता है (वृत्रासुर)। भक्त की कृपा से भगवान् के चक्र से भी बँचा जा सकता है (अम्बरीष तथा दुर्वासा प्रसंग) तथा शिव के त्रिशूल से भी हम बँच सकते हैं किन्तु इस संसार में ऐसा कौन सा उपाय है जो विप्र के क्रोध से हमें बँचा पाए? ब्राह्मण की ब्रह्मविष्णुशिवात्मक रूपी करुणा तथा रोष, दोनों को मेरा नमस्कार है।

संस्कारेण च वर्धतेऽग्रजशिशुः बीजाद्वटं चाम्बुना
विद्यार्कप्रतपेन विप्रविरुदस्तेभ्यः शिशुभ्यो नमः।
रोदस्यां भुजजाश्च तेषु विमलो धर्मः सदा दक्षते
साक्षाद्धर्ममनोरमाय महते विप्राय तुभ्यं नमः॥८॥

जैसे छोटे बीज में जल से वह वृक्ष बनता है, वैसे ही संस्कार से ही ब्राह्मण बालक की उन्नति होती है। विद्या रूपी सूर्य के प्रकाश से तपते हुए उसे विप्र की उपाधि भी मिल जाती है, उन शिशुओं को भी नमस्कार है। पृथ्वी पर राजा राज करते हैं। उनपर शुद्ध धर्म का राज होता है। वह विप्र ही साक्षात् धर्म का स्वरूप है। उस महान् विप्र को नमस्कार है।

कौशलेन्द्रकृतं जप्त्वा विप्रो भवति भूषितः।
पठित्वाऽन्यश्च कृष्णस्य कारुण्यं वै समाप्नुयात्॥

कौशलेन्द्रकृष्ण जी द्वारा रचित इस स्तोत्र को जपकर ब्राह्मण और भी शोभित होने लगता है। अन्य लोग इसको पढ़कर कृष्ण की करुणा को प्राप्त करते हैं।

॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा विरचितं विप्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥

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