॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

अभी एक दृष्टि आइएएस के शिक्षक श्री विकास दिव्यकीर्ति जी का वीडियो चारो ओर चल रहा है, जिसमें वे बता रहे हैं कि कुछ विषयों को लेकर लोग रामचरित्र पर कटाक्ष करते हैं। इस वीडियो से उनपर बड़ी थूथू हो रही है। अपने इस वीडियो में श्रीराम के प्रति व्यंगात्मक रवैये का पश्चाताप उन्होंने दि लल्लनटॉप चैनल के इंटरव्यू में यह कहकर किया कि वे स्वयं हिन्दू हैं। हालाकि हमने तथा अनेक जनों ने उनके उस वीडियो को भी देखा है जिसमें वे कहते हैं, “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि भगवान् हैं या नहीं।”। आज इसी, विकास दिव्यकीर्ति जी के द्वारा परोक्ष रूप से किये गए सांस्कृतिक कटाक्ष प्रसंग के अस्तित्व का कारण जानने का प्रयास करेंगे। कथन यह सही ही है कि किसी भी घटनाक्रम का एक छोटा सा भाग हम चलचित्र के रूप में देखकर उसमें हो रही पूरी घटना को नहीं समझ सकते। तथापि यदि हम बिना साम्प्रदायिक होकर भी विश्लेषण करें, किन्तु हमने यदि अपना समस्त जीवन शास्त्रों को दिया हो, ऐसी अवस्था में क्या इन विषयों का निष्कर्ष श्री विकास दिव्यकीर्ति जी के समान होगा? यह प्रश्न है।

सीता के प्रति श्रीराम के कटु शब्द

प्रश्न यही है कि भगवान् श्रीराम जैसे मर्यादित पुरुष ने अपनी पत्नि को ऐसी स्थिति में ऐसा कैसे कह दिया?

“सुवृत्तामसुवृत्तां वाप्यहं त्वामद्य मैथिलि।
नोत्सहे परिभोगाय श्वावलीढं हविर्यथा॥”

हे मिशिलेशनन्दिनि! तुम्हारा आचार शुद्ध हो, कि अशुद्ध हो। मैं तुम्हे अब उसी प्रकार ग्रहण नहीं कर सकता जिस प्रकार कुत्ते के चाटे हविष्य को (यज्ञ हेतु) ग्रहण नहीं करते।

– महाभारत, अरण्यपर्व २९१|१३

“रावणाङ्कपरिक्लिष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा।
कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपदिशन्महत्॥”

तुम रावण के गोद में बैठ चुकी हो तथा उस दुष्ट के नेत्रों से देखी जा चुकी हो। ऐसे में अपने कुल को महान् बता रहा मैं किस प्रकार तुम्हारा ग्रहण कर सकता हूँ?

– श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, युद्धकाण्ड ११५|२०

यह तो निश्चित ही लेखक के स्त्रीद्वेष को बताता है, ऐसा श्री दिव्यकीर्ति जी को लगने लगा। इस बात की पुष्टि उन्होंने द लल्लनटॉप नामक मीडिया चैनल को दिये अपने इण्टरव्यू में भी कही।

देखिये, ऐसा नहीं है। जिस प्रकार हमने पहले कहा कि चलचित्र के केवल एक अंश को देखने मात्र से सम्पूर्ण कथा को जानना असंभव है, उसी प्रकार एक श्लोकमात्र से भी सम्भव नहीं। जिन श्रीरामचन्द्र ने रावण का वध करके स्वयं हनुमान को श्रीसीताजी के पास भेजा (प्रविश्य नगरीं लङ्कां कौशलं ब्रूहि मैथिलीम्), उन्ही राम का मन क्षणमात्र में आशङ्कित कैसे हो गया? सवाल उठता है। इसका निष्कर्ष वाल्मीकिरचित आध्यात्मरामायण से प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

“मायासीतां परित्यक्तुं जानकीमनले स्थिताम्।
अदातुं मनसा ध्यात्वा रामं प्राह विभीषणम्॥
गच्छ राजन् जनकजामानयाशु ममान्तिकम्।
स्नातां विरजवस्त्राढ्यां सर्वाभरणभूषिताम्॥”

मायासीता को त्यागने हेतु तथा अग्नि में स्थित जानकी जी को प्राप्त करने के मन से भगवान् ने विभीषण से कहा कि राजन्! जाओ। जनकनन्दिनी को शुद्ध करके, सुन्दर वस्त्र तथा समस्त आभूषणों से आभूषित करके मेरे समक्ष ले आओ।

– आध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड १२|६७-६८

“रामोऽपि दृष्ट्वा तां मायासीतां कार्यार्थनिर्मिताम्॥
अवाच्यवादान्बहुशः प्राह तां रघुनन्दनः।”

राम ने अपने कार्यसिद्धि हेतु निर्मित मायासीता को देखकर उसे कई न बोलने योग्य वाक्य कहे।

– आध्यात्म रामायण, युद्धकाण्ड १२|७५-७६

यहाँ क्या स्पष्ट हुआ? यही कि जिस सीता को भगवान् ने ऐसे सम्बोधन कहे, वह सीता “कार्यार्थनिर्मिता” मायासीता थीं। जिसे छोड़कर अग्नि में सुरक्षित श्रीसीताजी को ग्रहण करने हेतु योजना में भगवान् ने “जानबूझकर” विशङ्कित होते हुए संदेहयुक्त वाक्यों को कहा। क्या इस लीला से वह छाँयासीता भी अवगत न थीं? न होतीं तो श्रीलक्ष्मण जी को यह न कहतीं कि “लक्ष्मणं प्राह मे शीघ्रं प्रज्वालय हुताशनम्॥”

अहो बन्धु! रावण की मृत्यु के उपरान्त श्री जानकीजी से मिलकर आए श्री हनुमान् जी के मुख से श्री जनकनन्दिनी का हाल सुनकर, स्मरणकर, विभीषण को उन्हें लाने के लिये कहते हुए जिन रामचन्द्र की आँखों में अश्रु की धारा बह चली थी (आगच्छत् सहसा ध्यानमीषद्वाष्पपरिप्लुतः। स दीर्घमभिनिःश्वस्य जगतीमवलोकयन्॥ – वाल्मी. युद्ध. ११४), वह भला हृदय से श्रीसीताजी को ऐसे वाक्य कैसे कह सकते थे?

भगवान् निश्चित ही यह भी चाह रहे होंगे कि दोष मुझपर लगे किन्तु सीता पर न लगे। भविष्य में लोग सीता पर उंगली न उठाएं। अनन्तर महाभारत के अनुसार ब्रह्मा आदि देवगणों के कथनों से भगवान् को सन्तुष्टि मिली। ब्रह्मदेव ने बताया कि रावण को नलकूबर का श्राप है कि जिस काल में वह बलात् किसी स्त्री का अतिक्रमण करेगा, उसी समय उसका मस्तक विदीर्ण हो जाएगा। वहीं, वाल्मीकि कृत रामायण में सीताजी अग्निप्रवेश करतीं हैं। कथानक में इस भेद को कल्पभेद कहते हैं। वस्तुतः इन ग्रन्थों के लेखकों ने अपनी आँखों से जैसा देखा, उसी प्रकार लिखा। खैर, इस विषय में पढ़कर संदेह होना कोई बड़ी बात नहीं जबकि इस घटना के साक्षियों ने ही यह कहना प्रारम्भ कर दिया था कि, “परस्परं प्राहुरहो स सीतां रामः श्रियं खां कथमत्यजज्ज्ञः॥”

शम्बूक वध प्रसंग

दूसरा प्रश्नः शम्बूक वध पर था। शम्बूक एक शूद्र था। वह सशरीर स्वर्ग जाकर वहाँ का राजा बनने हेतु तप कर रहा था (वाल्मीकि रामायण)। ऐसे में पहले ये देखना है कि ये अधर्म कैसे है। भगवान् की एक लोकपरंपरा है। जिसमें योनियों का सृजन क्रम रखा गया है। योनियों में कुत्ते, बिल्ली जैसे जंतु तथा ब्राह्मण, क्षत्रीय आदि जातियाँ (उपयोनियाँ) भीं हैं। जिस प्रकार कोई शेर, बाघ नहीं बन सकता उसी प्रकार कोई शूद्र ब्राह्मण नहीं बन सकता। ये वाक्य देखें –

“क्षत्रियो वाऽथ वैश्यो वा कोटिकल्पशतेन च।
तपसा ब्राह्मणत्वं च न प्राप्नोति श्रुतौ श्रुतम्॥”

– देवीभागवत ९|२९|६८-६९

अर्थात् तप करके कोई भी ब्राह्मण नहीं बन सकता, बांकी काम तो छोड़िये।

देवीभागवत में ही, “जन्मनालब्धजातिस्तु” कहकर जन्म से ही जाति मिल जाती है कह दिया गया। वहीं, श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में “जन्मना ब्राह्मणः श्रेयान् सर्वेषां प्राणिनामिह।” कहकर भी जन्म से ही वर्ण का निष्कर्ष बता दिया गया। यदि कर्म से कोई भी ब्राह्मण, क्षत्रिय हो जाता तो परशुराम ब्राह्मण न कहलाते बल्कि क्षत्रिय कहलाते क्योंकि उनका स्वभाव क्षत्रियों का था।

ये तो रही जाति की बात। शम्बूक शूद्र था। शूद्र का कर्तव्य क्या है? गीता कहती है, “परिचर्यात्मकं कर्मः शूद्रस्यापि स्वभावजम्।” अर्थात् शूद्र का स्वाभाविक कर्म सेवा है। तप किसका कर्म है? वस्तुतः तप विविधार्थी है, तथापि यहाँ प्रयुक्त तपस्या निश्चित ही वानप्रस्थियों की है क्योंकि…

“भिक्षोर्धर्मः शमोऽहिंसा तप ईक्षा वनौकसः।
गृहिणो भूतरक्षेज्या द्विजस्याचार्यसेवनम्॥”

शान्ति तथा अहिंसा संन्यासी का, तपस्या और भगवद्भाव वानप्रस्थी का, यज्ञादि तथा समस्त जीवों की रक्षा ही गृहस्थ का और आचार्य की सेवा ही ब्रह्मचारी का धर्म है।

– श्रीमद्भागवत ११|१८|४२

अर्थात् तप गृहस्थ का नहीं है। यति और वानप्रस्थी कौन हो सकता है? ब्राह्मण ब्रह्मचारी, यति, गृहस्थी और वानप्रस्थी हो सकता है। वहीं क्षत्रिय ब्रह्मचारी, गृहस्थी तथा वानप्रस्थी हो सकता है। वैश्य केवल ब्रह्मचारी और गृहस्थी हो सकता है। शूद्र के लिये गृहस्थमात्र प्रशस्त है क्योंकि वह बांकी से सरल है (श्रीमद्भागवत कृष्ण उद्धव संवाद)। तो यहाँ जब शम्बूक जो शूद्र है तथा जिसे गृहस्थ आश्रम का अधिकार है, वह यदि तप करने लगे तो क्या यह अधर्म न होगा? वहीं, गीता में कहा गया कि “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दन्ति मानवः।” अर्थात् स्वकर्म (स्वजातिगत कर्म) से सिद्धि मिलती है। तथा, “स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मः भयावह”।

शम्बूक के लिये उचित मार्ग क्या था इन्द्र बनने का? यह था कि वह शूद्र का कार्य करे। तदनन्तर अगला जन्म वैश्य का लेकर वैश्य का कार्य करे। तदनन्तर क्षत्रिय जन्म लेकर वह ऐसा पराक्रम करे कि वह इन्द्रत्व प्राप्त कर ले। ये तप से मांगने योग्य पद नहीं। इस प्रकार योनिक्रम है। आप ऋषि मैत्रेय के अन्य जन्मों की कथा पढ़ सकते हैं कि किस प्रकार वे कीटयोनि से ब्राह्मण योनि को प्राप्त किये। इसका कोई शॉर्टकट नहीं है। अब इस ईश्वर के बनाए क्रम के विरुद्ध जाते शम्बूक का वध किया गया। प्रश्न उठता है कि वध ही क्यों किया गया? समझा भी तो सकते थे न? तो आज का परिपेक्ष्य ही देखें। आज कौन मानता है इन बातों को जो कल शम्बूक समझता? उसकी कामनाएं बता रहीं थीं कि वह न समझता। उसकी कामना तप से ईश्वर की प्राप्ति नहीं अपितु भोग की प्राप्ति थी। वह विषयासक्त था। और “यस्त्वेतत्कृच्छ्रतश्चीर्णं तपो निःश्रेयसं महत् । कामायाल्पीयसे युञ्ज्याद् बालिशः कोऽपरस्ततः॥” अतः उसका वध करके उसे उस देह से मुक्त करना ही श्रेयस बँच गया।

बाँकी, ये सब लीलाएं हैं। लीला और कर्म भिन्न वस्तु हैं। लीला ग्राह्य नहीं क्योंकि वह अप्राकृत हुआ करतीं हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसी अवस्था में अपनी पत्नि पर संदेह करता अतः भगवान् से संदेह की लीला की। भगवान् के कर्म (लीला) ग्राह्य नहीं अपितु उनके उपदेश ग्राह्य है। विष कौन पिये?
मारने को तो उन्होंने रावण को मारा किन्तु रावण को मारने के बाद देवत्व दे दिया। शम्बूक का वध लौकिक था किन्तु अलौकिकता से भगवान् ने सीधे उसे स्वधाम ही दिया होगा। उसे तो इन्द्र से भी बड़ा पद मिल गया न! भगवती दुर्गा के हाथों से मरने के बाद महिषासुर देव बन गया। बिना उसके पूजा के देवी की पूजा अधूरी कही गई (कालिका पुराण)।

अतः, श्रीराम के चरित्र पर प्रश्न खड़ा करना सदा अनुचित है। विकास दिव्यकीर्ति जैसे महानुभावों की बुद्धि आज भी स्वतंत्र नहीं हुई। वह धर्म को बचकानी बात मानती है। हमारे आदिकवियों को ऐसे लोगों से कोई फर्क नहीं पड़ता। जो घटना हुई, यथावत लिखित है। तथापि, श्रीतुलसीदास जी ऊपर बताए गए तत्व को जानते हुए यह बात भी जानते थे कि साधारण जनता इसे पढ़कर भ्रमित होगी। क्योंकि उनका ग्रंथ सब के लिये है। न कि रामायण के समान केवल गुरुकुलों में पढ़ाने हेतु। इन ग्रंथों को बिना पात्र गुरू के समझ पाना मुश्किल है। उसी प्रकार जैसे गणित तथा भौतिकी को कोई व्यक्ति उस विषय के शिक्षक से बिना मिले नहीं समझ सकता। तो तुलसी जी ने यही सोंचकर ये विषय लिखे ही नहीं। वे चाहते तो भवभूति के समान घटनाक्रम में थोड़ा बदलाव कर सकते थे, किन्तु उन्हें यह ठीक न लगा होगा। क्योंकि चाहकर भी भवभूति शम्बूक वध की घटना को बदल नहीं पाए। क्योंकि उनका लेखक मस्तिष्क इसका आदेश नहीं देता संभवतः।

तो ये सारी बातें रहीं। बांकी वेद को अपौरुषेय ऐसे कहा गया, एक उदाहरण से समझें। जैसे… बैंजमिन फ्रैंकलिन ने बिजली की खोज की। तो क्या हम ये मानें कि उससे पहले बिजली थी ही नहीं? थी किन्तु मिली नहीं थी। उसी प्रकार वेद सर्वदा से थे। भाषा में उनका लेखन बाद में हुआ। भाव का भाषात्मक परिवर्तन हुआ। अंतिम वार ५००० वर्ष पूर्व हुआ अतः उसे ही वैदिक काल कहते हैं।

आशा है कि इस लेख से आपके संदेह दूर हो गए होंगे। यह लेख निष्पक्ष है। हमने किसीको दोषी या गुणी नहीं कहा। जो उचित तर्क रहा, उसे दिया। नारायण॥

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