॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   प्रणेता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

नवासान्द्राच्छादो विपिनतरुवल्ली वलयिता
लताहारं चारुं सजतिक्षितिवक्षस्थलगताम्।
प्लवा भृङ्गार्यश्च मधुररववादेनसयुताऽऽ-
-गताश्चाराध्यायै स्तव इव सुराऽहो ऋतुमयः॥१॥

वन में लताओं पर नवीन तथा सुकोमल पत्ते छा गए हैं। जैसे सुन्दर लताहार को पृथ्वी अपने वक्ष पर धारण कर रही हो। मेढक तथा झींगुर भी अपनी आराध्या पृथ्वी हेतु अपनी मधुर ध्वनि रूपी वादनयंत्रों से सज्ज पधारकर आराध्या के लिये स्तवन कर रहे हैं, जैसे देवता किया करते हैं।

निशायामाकाशेऽम्बुदनिकरतः स्यन्नसलिले
बिडौजावज्रस्यप्रतिच्छवितचित्रेण सऋते।
इव ग्रीष्मातप्ते वृजिननिकुरम्बे गतरसे
पुनर्वर्षा केशसृजनगुणयुक्ताऽऽगतवती॥२॥

इंद्र की वज्रद्युति कही जाने वाली दामिनी के प्रतिबिम्ब से जो रात्रिकालीन मेघ द्वारा जल गिरता हुआ चमक रहा है, उससे यह आभास हो रहा है कि ग्रीष्म ऋतु में तपकर निरस हुए केशों को संवारने के लिये केश बनाने वाली वर्षा आ गई।

डमड्डं नादेन डमरुधरलास्यस्य मदने
यथा व्योमास्रस्य श्रथितजटया जह्नुतनया।
मुदाह्लादे क्ष्मायां नभसच्युतिता वा सुरपथ-
-स्य मुह्यन्तस्याङ्गात्स्खलितनयनाद्वर्षति यथा॥३॥

या तो डम डम नाद से नृत्यमग्न भगवान् शिव के मोहित कर देने वाले नृत्य से भगवान् व्योमकेश शिव की ही खुली जटा से गंगा आनन्दित हो पूरी पृथ्वी को सींच रही है, या तो देवताओं का पथ कहलाने वाले आकाश के मोहित तथा स्खलित नेत्रों से ही इस जल की वर्षा हो रही है।

तडित्वद्दूतैर्तद्भवनपटव्यादत्तगदिता-
-स्तरोर्स्रंसन्तैते परिमलसुमान्पुष्करकणे।
क्षितिस्पर्शात्तस्या वचनगुणमुक्ते रुचिकरे
मृदागन्धे मोदे कृषककुलसर्वाऽऽतुरतराः॥४॥

वायुरूप मेघदूतों ने घर के किवाड़ों को ध्वनि के साथ खोल दिया। वृक्ष से सुगन्धित पुष्प भी वर्षाकण के स्वागत में बिखर रहे हैं। उसके भूमि के स्पर्श से ही मिट्टी के वचनातीत तथा रुचिकर गन्ध से आनन्दित कृषकों का कुल भी बड़ा आतुर है।

रिमिज्झिं झङ्कारे नटतिघननादेन शिखिन-
-स्तथा नाट्ये तस्मिन्शशथ इव बालप्लवगणाः।
रवश्चानन्दस्यागणितखगयूथैर्प्रनदितो
अहोऽवाच्यां शोभां निखिलकुलयुक्तां कथमिमाम्॥५॥

रिमझिम ध्वनि में तथा मेघ ध्वनि से मोर नाच रहा है तथा उसके साथ मेढक जैसे छोटे छोटे बच्चे फुदक रहे हैं। असंख्य पक्षियों के समूह से आनन्द की ध्वनियाँ, चहचहाहट चरो दिशाओं में गूँज रही है। अहो! इस लोककुल की वक्तव्य से परे शोभा को वर्णित कैसे कर सकते हैं?

॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा विरचितं वर्षाऋतुवर्णनं सम्पूर्णम् ॥

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