॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

आज वैकुण्ठ चतुर्दशी है। आप सबको कोटिशः शुभकामना। आज की तिथि को भगवान् हरि तथा हर के प्रेम की परिचायिका कहें तो अतिशयोक्ति नहीं। भगवान् हरि को हर से सुदर्शन चक्र की प्राप्ति जो हुई थी।

वैसे, सुदर्शन चक्र का सम्बन्ध श्रीसूर्यनारायण से अकाट्य है। क्योंकि वे ही इस चक्र के जनक हैं। संज्ञा के अश्विनी स्वरूप बना लेने पर क्रोधित सूर्य को शांत करके सह्य तेजयुक्त बनाने हेतु संज्ञा के पिता त्वष्टा ने भगवान् सूर्य के तेज से ही इस चक्र का निर्माण किया था।

“रूपं तव करिष्यामि लोकानन्दकरं प्रभो।
तथेत्युक्तः स रविणा भ्रमौ कृत्वा दिवाकरम्॥
पृथक् चकार तत्तेजं चक्रं विष्णोरकल्पयत्।”

– मत्स्यपुराण, अध्याय ११

“आराधयामास हरिः स्वयमात्मनमात्मना।” भगवान् हरि सहस्र पद्मों से हर की आराधना कर रहे थे कि दैवात् एक कमल कम हो गया। उससे भगवान् हरि ने अपना नयन ही निकालकर भगवान् शिव को अर्पित कर दिया। इससे प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उन्हें यही चक्र प्रदान किया।

“हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।
यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।
त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्॥”

– श्रीशिवमहिम्नस्तोत्र

“ततः प्रीतः प्रभुं प्रादाद्विष्णवे प्रवरं वरम्।
प्रत्यक्षं तैजसं श्रीमान् दिव्यं चक्रं सुदर्शनम्॥”

– वामन पुराण, अध्याय ८२

“त्वमेवमाधाय विभो वरायुधं
शत्रुं सुराणां चहि मा विशङ्किधा।
अमोघ एषोऽमरराजपूजितो
धृतो मया नेत्रगतस्तपोबलात्॥”

– वामन पुराण, अध्याय ८२

अर्थात्, भगवान् शिव इस चक्र को दैत्यवधार्थ श्रीवासुदेव को देते हुए कह रहे हैं कि, “हे विभो! आप इस अमोघ अस्त्र को धारण करके इसके उपयोग से देवशत्रुओं का निर्भीकतापूर्वक संहार करें। मैंने तप के प्रभाव से शक्र द्वारा आराधित इस चक्र को अपने नेत्र में धारण कर लिया था।”

इस चक्र के बारह अर तथा छः नाभियाँ, दो युग हैं। चैत्राद्याः फाल्गुनान्ताश्च मासास्तत्र प्रतिष्ठिता आदि उक्तियों से यत्र तत्र इस चक्र की तुलना भगवान् सूर्य से ही की जाती है। जैसे रामायण में भी –

“तत्सूर्यमण्डलाभासं स्वभासा भासयन्नभः।
कालचक्रनिभं चक्रं मालेः शीर्षमपातयत्॥”

– वाल्मीकीय रामायण, उत्तरखण्ड, सर्ग ७

भगवान् शिव के मस्तक में साक्षात् सूर्य ही उनके तीसरे नेत्र हैं। उसकी शीतलता हेतु चन्द्र विद्यमान हैं, अन्यथा वह समस्त कृत्स्न को ही भस्म कर दे। भगवान् शिव उस चक्र से संहार करते हैं, वहीं भगवान् विष्णु रक्षा।

इस चक्र को प्राप्त करने के उपरान्त भगवान् विष्णु ने कहा कि, “यह अमोघ है, मैं कैसे जानूँ?” तब भगवान् शिव ने इसे स्वयं पर ही उपयोग करने का आदेश दिया। इससे भगवान् शिव का विग्रह तीन रूपों में विभक्त हो गया जिनके शुभनाम हिरण्याक्ष, सुवर्णाक्ष तथा विरूपाक्ष हुए जो विश्वेश, यज्ञेश तथा यज्ञयाजक स्वरूप थे। भगवान् हरि तथा हर के एकत्व को तो “स्वयमात्मनमात्मना” से बता ही दिया। भक्तजनरंजन की ये लीलाएं हैं।

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