लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
यहाँ दिये गए सारे वाक्य शास्त्रों के हैं। इनका उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहीं अपितु भागवत प्रवाचिका युवतियों तथा श्रोताओं को अवगत कराना है। ये शास्त्र सिद्धान्त धर्म है। इनका पालन न करने वाला हर व्यक्ति अधर्मी ही होगा।
“इतिहासपुराणं च पञ्चमं वेद उच्यते।”
इतिहास (महाभारत) तथा पुराण को पंचम वेद कहा जाता है।
– श्रीमद्भागवत १|४
“नाम वा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेद आथर्वणश्चतुर्थ इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः…..”
अर्थात्, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेत तथा चौथा अथर्ववेद है तथा इतिहास (महाभारत), पुराण वेदों का पंचम वेद है।
– छान्दोग्य ७|१|४
“इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्॥”
इतिहास (महाभारत) तथा पुराण, दोनो के माध्यम से वेद का विस्तार होता है।
– महाभारत १|१|२६७
“श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो”
वेदों को ही श्रुति कहा जाता है।
– मनुस्मृति २|१०
“स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचराः।”
स्त्री, शूद्र और पतित विप्रों के लिये श्रुतियाँ गोचर (वागिन्द्रिय से सम्बद्ध) नहीं (वाचन के लायक नहीं)।
– श्रीमद्भागवत १|४|२५
प्रश्न :- आपने गोचर को वागिन्द्रिय से ही क्यों युक्त किया? इससे क्या संगतता सिद्ध है क्योंकि यहाँ मात्र “गोचर” लिखा है और “गोचरो इन्द्रियार्थाश्च हृषीकं विषयीन्द्रियम्….”? यहाँ इस इन्द्रिय का तो प्रसंग लिखित ही नहीं। गोचर का उपयोग ऐसा होता है जैसे, “घ्राणस्य गोचरो गन्धः”। यहाँ तो ऐसा वर्णन नहीं है।
उत्तर :- निष्कर्ष तक जाने हेतु यह जानना आवश्यक है कि श्रीमद्भागवत कथा किन किन इन्द्रियों हेतु गोचर है। कथामण्डप में श्रीमद्भागवत को इन्द्रियार्थ ग्रहण करने वाले दो लोग होते हैं। पहला, वक्ता। जो भागवत को मुख के माध्यम से ग्रहण कर रहा है। दूसरे, श्रोता। जो कि श्रीमद्भागवत को कानों के माध्यम से ग्रहण कर रहा है। इसके अतिरिक्त कथा को ग्रहण करने की अन्य कोई भी इन्द्रियाँ उपस्थित नहीं। ऐसी स्थिति में “त्रयी न श्रुतिगोचराः” के अंतर्गत या तो वाचन की वर्जना होगी या तो श्रवण की।
हमने गोचराः से वाचन को ही बाध्य क्यों किया? इसलिये क्योंकि श्रवण अबाध्य प्रमाणित है। देखें –
“स्त्रियः शूद्रादयो ये च तेषां बोधो यतो भवेत्।”
“स्त्रियः शूद्रादयो ये च बोधस्तेषां भवेद्यतः।”
– श्रीमद्भागवत तथा श्रीशिवपुराण माहात्म्य
इन श्लोकों में कथा की सूचना स्त्री, शूद्रों को देकर श्रवण हेतु निमंत्रित करने का आदेश है। अतः श्रवण बाध्य नहीं। अब श्रीमद्भागवतकथाविषयेन्द्रिय के रूप में मुख मात्र बचा जिससे वाचन संभव है। इससे स्पष्ट है कि “न श्रुतिगोचराः” से वाचननिषेधात्मक संकेत है। एक बात और है। किंचित् निरीक्षण यह भी करें कि क्या शास्त्रों में गौकर्ण जी, शुकदेव जी प्रभृति पुराण प्रवाचिकाएं भी हुईं? क्या शास्त्रों में उनका वर्णन है? स्त्रियों का ब्रह्मवाद पति की सेवा है। उनका अनुकरण करने वालीं हीं ब्रह्मवादिनी हैं। अन्यथा तो स्त्रियों/द्विजेतरों हेतु यह भी कहा गया है कि,
“नाऽश्रोत्रियतते यज्ञे ग्रामयाजिकृते तथा।
स्त्रिया क्लीबेन च हुते भुञ्जीत ब्राह्मणः क्वचित्॥
अश्लीकमेतत् साधूनां यत्र जुह्वत्यमी हविः।
प्रतीपमेतद्देवानां तस्मात्तत् परिवर्जयेत्॥”वेदाध्ययन रहित, समूह विशेष के याजक, नपुंसक तथा स्त्री के द्वारा होम किये गए यज्ञ में ब्राह्मण भोजन न करे। जहाँ ऐसे लोग हवन करते हैं, वह वर्णाश्रम को मानने वाले तथा देवताओं हेतु प्रतिकूल यज्ञ/हवन हैं, इस कारण ऐसे यज्ञ को वर्जित करें।
– मनुस्मृति ४|२०५-२०६
इनमें हमने अपना कोई मन्तव्य नहीं रखा। पाठक/पाठिका स्वयं प्रज्ञावान/वती है कि निष्कर्ष प्राप्त कर ले।