लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
आज कलयुग में कुछ ऐसे प्रबुद्ध जनों के अनुयायी हैं जो गणेश को ईश्वर का नाम तथा ओम् का पर्याय बताते हैं किन्तु ग्रन्थ प्रारम्भ में “श्रीगणेशाय नमः” लिखने के स्थान में “ओम्” मात्र लिखने के ही पक्षधर होते हैं। ये ऐसे प्रबुद्ध हैं जो स्वयं ईश्वर को सर्वशक्तिमान् कहकर उनकी लीलाओं में प्रश्न उठाते हैं। इनके अनुयायी तथा ये, इतने विद्वान् हैं कि इन्हें प्रणव लिखना भी नहीं आता। ओम् को अशुद्ध करके ओउ्म् लिखते हैं। ये जन अवतार के विरुद्ध रहते हैं तथा पुराणादि को कपोलकल्पित कहकर भगवान् कृष्ण को “योगेश्वर” भी कहते हैं। इससे सिद्ध है कि इन्हें ईश्वर का तात्पर्य ही ज्ञात नहीं। ये वेदों को अपना मूल बताते हैं किन्तु इनका अस्तित्व मात्र २००-३०० वर्ष का है। पता चला कि इनके प्रबुद्ध महाशय की मायावाद से सम्पन्न ग्रन्थ से इनका अस्तित्व है। न ये उसके पहले थे, न बाद में रहेंगे। कई वेदमाता गायत्री के पीछे छुपकर अपना व्यवसाय चला रहे हैं।
वेदों की ऋचाओं का उल्टापुल्टा अर्थ करते हैं। गायत्री को सब हेतु सुलभ बताकर जन्मना वर्णव्यवस्था की निन्दा करते हुए स्त्रियों का यज्ञोपवीत कराकर उन अबलाओं का अपमान भी करते हैं। इस विषय में कभी और चर्चा करेंगे, अन्यथा ये विषय भंग हो जाएगा।
इन लोगों का कथन होता है कि वेदों में अवतार का, ईश्वर के साकार स्वरूप का, मूर्तिपूजा का कोई वर्णन ही नहीं। इन लोगों की सीमाएं तो असीमित है भैया! “न तस्य प्रतिमाऽस्ति” आदि मंत्रों का प्रमाण देकर ये सबकुछ सिद्ध करना चाहते हैं। इनको ज्ञात होना चाहिये कि टॉफी बच्चों को दी जाती है। जिन आचार्यों ने प्रतिमा शब्द का उपयोग सादृश्यादि प्रयोजनों से किया, यथा “सा सुशीला वपुःश्लाघ्या रूपेणाप्रतिमा भुवि।” वे आचार्य तो मूर्ख थे। ये मनमाना अर्थ करते हैं ऋचाओं का। तथापि हम वेदों की निम्न ऋचाओं, मंत्रों को प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसे कोई अंधा ही न पढ़ सके।
वेदों में परमेश्वर के साकार स्वरूप को प्रतिपादित करने वाली अनेक ऋचाएं हैं, तथापि कुछ प्रसिद्ध ऋचाएं प्रस्तुत हैं, पढ़ें।
“इ॒दं विष्णु॒र्वि च॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम्। समू॑ढमस्य पांसु॒रे॥”
रामगोविन्द त्रिवेदी का अनुवाद (सायणभाष्यानुसार) – विष्णु ने इस जगत् की परिक्रमा की। उन्होंने तीन प्रकार से अपने पैर रखे और उनके धूलियुक्त पैर से जगत् छिप सा गया।
– ऋग्वेद १|२२|१७, सामवेद १६६९
यहाँ विष्णु के तीन पैर से संसार को आवृत्त करने का प्रसंग है। इसका विस्तार ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में, यजुर्वेद के शतपथ (शतपथ ब्राह्मण १.२.५) में भी है। निम्न देखें।
अथाह यद्वैश्वदेवं वै………….इन्द्रश्च विष्णो यदपस्पृधेथां त्रेधा सहस्रं वि तदैरयेथामितीन्द्रश्च ह वै विष्णुश्चासुरैर्युयुधाते॥ तान् ह स्म जित्वोचतुः कल्पामहा इति ते ह तथेत्यसुरा उचुः॥ सोऽब्रवीदिन्द्रो यावदेवायं विष्णुस्त्रिर्विक्रमते तावदस्माकमथ युष्माकमितरदिति स इमान् लोकान्विचक्रमे ऽथो वेदानथो वाचम्॥ तदाहुः किं सहस्रमितीमे लोका इमे वेदा………….तस्मादभ्यस्ये३त्॥
– ऐतरेय ब्राह्मण, पञ्चिका ६|१५
इसके आगे और विस्तार पुराणों में है ही। तभी पुराणों को वेदों का विस्तार कहा जाता है। अथर्ववेद ११|६ में “ऋचः सामानि च्छन्दांसि पुराणं यजुषा सह। उच्छिष्टाञ्जज्ञिरे दिवि देवा दिविश्रितः॥” कहा ही गया। बृहदारण्यक में भी “इतिहास पुराणाभ्यां वेदार्थ मुपर्बंहयेत्” कहा गया। और इन्हीं पुराणों को ये प्रबुद्धानुयायी नहीं मानते। अस्तु। आगे बढ़ते हैं। ये निम्न ऋचा देखें।
“स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात्।स भूमि॑ꣳ स॒र्वत॑ स्पृ॒त्वाऽत्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम्॥”1यह ऋचा ऋग्वेद (१०|९०|१) में सर्वतस्पृत्वा के स्थान में विश्वतो वृत्वा पाठ भेद से उपस्थित है।
अनुवाद – जो विराट् पुरुष सहस्र मुख, सहस्र नेत्र तथा सहस्र पादों वाले हैं, वे समस्त ब्रह्माण्ड को भी आवृत्त करके दश अंगुल शेष बँच जाते हैं।
– यजुर्वेद ३१|१
हमें तो समझ में यह नहीं आता कि ऋग्वेद १०|७ के रुद्र कौन हैं। वहाँ देवी कह रहीं हैं कि “अहं रुद्राय धनुरातनोमि।” इस रुद्र को भी तो अपने ग्रंथ में उन प्रबुद्ध ने परमेश्वर का नाम बताया है। बिना हाथों के ये धनुष कैसे तानेगा? ये तो यह भी कह दें कि यह कोई अन्य रुद्र हैं। हम यदि वरुणादिकों को समर्पित ऋचाएं भी प्रमाणार्थ प्रस्तुत करें, जिन्हें ईश्वर का नाम ही बताया गया, तो भी इनका यही उत्तर होगा। अन्यथा, ऋग्वेद के प्रारम्भ में ही इन्द्र को “सोमपापिब” कहा गया है। अब बिना मुख के वे सोम को पियेंगे कैसे?
“बिभ्र॑द्द्रा॒पिं हि॑र॒ण्ययं॒ वरु॑णो वस्त नि॒र्णिज॑म्। परि॒ स्पशो॒ निषे॑दिरे॥”
रामगोविन्द त्रिवेदी का अनुवाद (सायणभाष्यानुसार) – वरुण सोने का वस्त्र धारण करके अपना पुष्ट शरीर ढकते हैं। जिससे चारो ओर हिरण्यस्पर्शी किरणें प्रवाहित होतीं हैं।
– ऋग्वेद १|२५|१३
“दर्शं॒ नु वि॒श्वद॑र्शतं॒ दर्शं॒ रथ॒मधि॒ क्षमि॑। ए॒ता जु॑षत मे॒ गिरः॑॥”
रामगोविन्द त्रिवेदी का अनुवाद (सायणभाष्यानुसार) – सर्वदर्शनीय वरुण को मैंने देखा है। भूमि पर। कई बार। उनका रथ मैने देखा है। उन्होंने मेरी स्तुति ग्रहण की है।
– ऋग्वेद १|२५|१८
इसके अतिरिक्त ईश्वर के अवतारों को बताते हुए निम्नांकित ऋचा जिसका दर्शन वैदिक ऋषियों को हुआ। जिसका संकेत गीता के चतुर्थ अध्यायान्तर्गत छठे श्लोक में भी प्राप्त है।
“प्र॒जाप॑तिश्च॒रति॒ गर्भे॑ऽअ॒न्तरजा॑यमानो बहु॒धा वि जा॑यते। तस्य॒ योनिं॒ परि॑ पश्यन्ति॒ धीरा॒स्तस्मि॑न् ह तस्थु॒र्भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥“
तात्पर्य – जो प्रजापति गर्भ से जन्मने वाला नहीं है तथापि बहुंत प्रकार से उत्पन्न होता है। उसके तत्व को पूर्णप्रकार से धीर ही देखते हैं कि उसमें ही समस्त लोकलोकान्तर विद्यमान हैं।
– यजुर्वेद ३१|१९
समस्त वेद ही ऐसे तत्वों से भरा है। सायणादि के भाष्यों को छोड़कर जब द्विज ऐसे प्रबुद्धों का अनुवाद पढ़ते हैं तो उनकी बुद्धि भी वेदों के प्रति तिलकवत् हो जाती है। ये ऐसे प्रबुद्ध हैं जिनको “कृष्णगर्भ” में काले आदिवासी दिखते हैं। ये ऐसे प्रबुद्ध हैं जिन्हें “कविरसि प्रचेता” में कबीरदास जी के दर्शन हो जाया करते हैं। पाणिनि के “ससजुषोरूः” को तो ये नकार ही देते हैं।
वेदों में मूर्तियों की आराधना का वर्णन
इन्हीं जनों के मुख से “न तस्य प्रतिमा” ऋचा सदा उद्भासित हुआ करती है। इसे ये मूर्तिपूजा के विरोध में बोलते हैं। वे किंचित् इसे भी निरख लें।
“कासी॑त्प्र॒मा प्र॑ति॒मा किं नि॒दान॒माज्यं॒ किमा॑सीत्परि॒धिः क आ॑सीत्। छन्दः॒ किमा॑सी॒त्प्रउ॑गं॒ किमु॒क्थं यद्दे॒वा दे॒वमय॑जन्त॒ विश्वे॑॥”
– ऋग्वेद १०|१३०|३
महर्षि सायणकृत ऋग्वेदभाष्य में वे इसी “कासीत्प्रमा” वाली ऋचा का भाष्य करते हुए कहते हैं, “हविष्प्रतियोगित्वेन मीयते इति प्रतिमा देवता॥” अर्थात् यज्ञ में जो आज्य बना, वह तो स्वरूपात्मक है। अन्न स्वरूपात्मक है। उसे हम किसे अर्पण करें? जब ग्राह्य ही स्वरूपात्मक है तो ग्राहक को भी स्वरूपवान् होना होगा। अतएव, यज्ञान्न को स्वीकार करने हेतु जिसका वरण हो, वही प्रतिमा है। वेदों में अर्चना का वर्णन कहाँ नहीं है। दृश्य का समुचित ग्रहण हेतु दृष्टि चाहिये। पहले समझें कि अर्चन क्या है। यह अर्चँ पूजायां धातु में ल्युट् के समावेश से बनता है। अर्चन का तात्पर्य होता है पूजन। पूजन तो आकार वाले का ही हो सकता है। ईश्वर के निराकार तत्व के उपासक योग द्वारा तथा साकार रूप से ईश्वर को अर्चन द्वारा प्राप्त करते हैं। वेद में ये आदेश क्या संकेत करते हैं, स्वयं अनुमान लगाएं।
“अर्च॑त॒ प्रार्च॑त॒ प्रिय॑मेधासो॒ अर्च॑त। अर्च॑न्तु पुत्र॒का उ॒त पुरं॒ न धृ॒ष्ण्वर्चत॥”
पण्डित क्षेमकरण दास त्रिवेदी का अनुवाद – (प्रियमेधासः) हे प्यारी [हितकारिणी] बुद्धिवाले पुरुषो! (धृष्णु) निर्भय (पुरं न) गढ़ के समान [उस परमेश्वर] को (अर्चत) पूजो। (प्र) अच्छे प्रकार (अर्चत) पूजो। (अर्चत) पूजो। (अर्चत) पूजो (उत) और (पुत्रकाः) गुणी सन्तानें उस को पूजें।
– ऋग्वेद ८|६९|८, अथर्ववेद २०|९२|५
बिना प्रतिमा के अर्चन की असम्भावना के कारण ही यहाँ प्रतिमा का अनुमान लगाना ही पड़ेगा। यदि प्रश्न उठे कि फिर प्राचीन मूर्तियाँ उत्खननादि में क्यों नहीं मिलतीं? इसके कई कारण हो सकते हैं। संभावना यह भी है कि प्रतिमाएं मिलीं किन्तु गुप्त रखी गईं हों। कुछ विद्वान् अध्ययन से यह निष्कर्षित करते हैं कि जिस काल में भगवान् कृष्णद्वैपायन ने वेदों का पुनर्भाग किया था, उस द्वापरयुगान्त में निश्चित् ही काष्ठ प्रतिमाओं का प्रचलन था। अतएव आज इतनी प्राचीन मूर्तियाँ उत्खनन में अदृश्य हैं। उत्खनन में मूर्तियाँ न मिलने का कारण सामयिक प्रलयसदृश घटनाक्रम भी है।
अतः व्यर्थ ही इन प्रबुद्ध जनों के चक्कर में न पड़ें। किसी सम्प्रदायगत गुरु के माध्यम से अध्ययन करें।