॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

कुछ लोगों का यह वक्तव्य होता है कि हनूमान् वानर तो थे, किन्तु वानर इत्युक्ति आदिवासियों के लिये ही प्रयुक्त होती है। कुछ जन कहते हैं कि हनूमान् की तो पूँछ भी नहीं थी। यह व्यर्थ प्रलापी गूगल के शिष्य होते हैं। इनके गुरु भी अशुद्धि से संक्रमित होते हैं अतः ये शास्त्रतत्व से सदा ही वंचित रहते हैं। अपनी अपात्रता से युक्त शास्त्र को पढ़कर उसके वाक्यों के कारण अजीर्णता से दग्ध होकर डकार मारते रहते हैं। तथापि इस लेख में हम इनके दावों पर चर्चा करेंगे।

क्या वानर आदिवासी थे?

आइये, कुछ प्रमाणों के अनुरूप सर्वप्रथम यह जानने का प्रयत्न करें कि वानर कौन हैं। यदि व्याकरणिक दृष्टि से देखें तो वानर उपाधि से स्पष्ट यह होता है कि, “विकल्पितो नरो वा”।

“वलीमुखो मर्कटो वनौकाः
प्लवङ्गमः स्यात् प्लवगः प्लवङ्गः।
हरिः कपिः कीश इमे च शब्दाः
शाखामृगो वानर इत्यभिन्नाः॥”

– अभिधानरत्नमाला २|१|१|२३१

इसके अतिरिक्त “अनेकार्थध्वनिमञ्जरि २|१|१|५५” प्रभृति अन्यान्य शब्दभाण्डागारों का भी अन्वेषण करें तो हमें वानर के समान ही पर्याय प्राप्त होते हैं। जबकि आदिवासियों हेतु सदा से ही शैलं पर्वतमटतीत्यादि अन्वयों से “शैलाट” आदि उपाधियाँ प्राप्य हैं। उन हेतु कहीं भी “वानर” की उपाधि प्राप्य कहीं भी नहीं है। अपितु, एक आदिवासी को भी यदि कोई जाकर वानर कह दे तो वह उसे अपनी प्रशंसा न मानते हुए अवहेलना ही मानेंगे किंवा स्वयं पर व्यंग्य समझेंगे।

समस्या प्रारम्भ कहाँ से हुई?

समस्या वहाँ से प्रारम्भ हुई, जहाँ से लोगों ने सोंचा कि वानर तो न बोल सकते हैं, न समझ सकते हैं। ऐसे में वानर अवश्य ही कोई आदिवासी जाति होगी। किन्तु इन बुद्धिजीवियों के दुर्भाग्य से इस वाक्य के कोई भी प्रमाण शास्त्रों में प्राप्त नहीं। ये जन इस कारण ही शास्त्रों को पूर्णतया मानते भी नहीं। जो विषय इन्हें समझ में आ जाता है, उसे यह प्रमाणित मानकर उसके अतिरिक्त को प्रक्षिप्त घोषित कर देते हैं, या तो समय के साथ उनमें परिवर्तन करने का मत देते हैं। यही नवहिन्दू चिन्तन है।

हनुमान् जी की पूँछ

कुछ जनों का यह भी मानना होता है कि हनूमान् जी की तो पूँछ ही न थी। यदि हनूमान् जी की पूँछ न होती तो उनकी पूँछ पर आग कैसे लगती? लंका का दाह कैसे होता?

“संवेष्ट्यमाने लाङ्गूले व्यवर्धत महाकपिः।
शुष्कमिन्धनमासाद्य वनेष्विव हुताशनम्॥”

जब राक्षसों के द्वारा उनके पूँछ में वस्त्र लपेटा जाने लगा, उस समय जैसे ईंधन को प्राप्त कर जंगल के सूखे काष्ठ, तृण आदि धधक उठते हैं तथा उनसे विशाल दावानल का प्रादुर्भाव होता है, तैसे उस महाकपि का देह विशाल हो गया।

– श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, सुन्दरकाण्ड ५३|७

“वानराणां हि लाङ्गूले महामानो भवेत्किल।
अतो वस्त्रादिभिः पुच्छं वेष्टयित्वा प्रयत्नतः॥
वह्निना योजयित्वैनं भ्रामयित्वा पुरेऽभितः।
विसर्जयत पश्यन्तु सर्वे वानरयूथपाः॥”

वानरों को तो अपनी पूँछ प्यारी होती है। अतः इसकी पूँछ को वस्त्रादि से आवृत्त करके आग लगाकर सारे नगर में घुमा दो ताकि सारे वानर भी इसकी दूर्दशा देख लें।

– आध्यात्म रामायण, सुन्दरकाण्ड ४|३४-३५

“इत्युक्त्वा दीर्घलाङ्गूलं प्रसार्य पवनात्मजः।
मार्गं कृत्वा समुद्रान्तमतिष्ठत्तत्र संस्थिते॥”

ऐसा कहकर पवनपुत्र हनुमान अपनी विशाल पूँछ का प्रसार करके समुद्र पर्यन्त मार्ग बनाकर बैठ गए।

– हनुमच्चरितम् (पाराशरसंहिता) ७|४३

“मत्पितुश्च सखा वह्निस्तस्मान्नास्ति भयं मम॥
तस्मात् पुच्छं दीपयित्वा लङ्कां दग्धां करोम्यहम्।”

अग्नि तो मेरे पिता के मित्र हैं, अतः मेरे हेतु भय की बात नहीं। अपनी पूँछ को प्रदीप्त करवाकर मैं लंका को जला डालुंगा।

– आनन्दरामायण, सारकाण्ड ९|१८२-१८३

“वह्निर्बभौ वानरपुच्छजन्मा
स दह्य लङ्कां खमिवोत्पतिष्णुः।
रामाद्भयं प्राप्य किल प्रतापः
पलायमानो दशकन्धरस्य॥”

वह हनूमान् की पूँछ से उत्पन्न अनल लङ्का को भस्म करके आकाश में जाता ऐसा प्रतीत हुआ जैसे राम के भय से रावण का सारा प्रताप भाग रहा हो।

– हनुमन्नाटक ६|२५

“अध ऊर्ध्वं च गेहानां दिक्षु सर्वासु सञ्चरन्।
सकलां ज्वालयामास पुच्छज्वालैः स तां पुरीम्॥”

हनुमान् ने समस्त दिशाओं में घूमते हुए घरों को ऊपर से नीचे तक, समस्त लंकापुरी को अपनी धधकती पूँछ की ज्वाला से जला दिया।

– भुशुण्डि रामायण, दक्षिणखण्ड १०४|२४

तो क्या हनूमान् वानरमात्र हैं?

विद्वानों के मध्य इन्द्रजित् का एक वाक्य प्रसिद्ध है कि, “विधीयतामेष न लौकिको हरिः (आध्यात्म रामायण सुन्दरकाण्ड ४|४)”। यहाँ इन्द्रजित् ने स्वयं भगवान् हनुमान् की अलौकिकता को स्वीकार किया और कहा कि यह कोई सामान्य सा वनचर वानर नहीं। उनके जन्म की प्रसिद्ध कथा किसे ज्ञात नहीं। कौन इस बात से अनभिज्ञ है कि वे स्वयं भगवान् भव ही हैं। शिवपुराण के शतरुद्रसंहिता, अध्याय २० के अनुसार वे स्वयं शिव तथा शिवपुत्र भी हैं। वे केसरी के क्षेत्रज तथा भगवान् शिवस्वरूप वायुदेव के औरस पुत्र कहे जाते हैं। पाराशरसंहिता (हनुमच्चरित्र) के षष्ठ पटलानुसार वे पार्वती जी से भी उत्पन्न हैं ही। वहाँ उन्हें त्रिमूर्ति भी कहा गया।

“सर्वज्ञस्तदभिप्रायं ज्ञात्वा स कपिरूपधृत्।
रमयामास तां देवीं कपिरूपधरां शिवाम्॥
सहस्राब्दप्रमाणेन क्रीडित्वा स महाद्युतिः।
तत्तेजः पार्वतीगर्भे निधाय विरराम ह॥
अग्नौ चिक्षिप तत्तेजः पार्वती धारणाक्षमा।
स चाप्यशक्तस्तद्वायौ निक्षिपन् विससर्ज ह॥
तस्मिन् केसरिणो भार्या कपिसाध्वी वराङ्गना।
अञ्चना पुत्रमिच्छन्ती बहाबलपराक्रमम्॥
तपश्चचार सुमहन्नियतेन्द्रियमानसा।
तस्यै वायुः प्रसन्नात्मा प्रत्यहं फलमर्पयन्॥
भक्षार्थमेकदा तस्यास्तत्तेजश्चार्पयत् करे।
फलबुद्ध्या तु तत्तेजस्साप्यभक्षयदङ्गना॥”

– हनुमच्चरितम् (पाराशरसंहिता) ६|२६-३१

“ब्रह्मविष्णुशिवांशत्वात्त्रिमूर्त्तिरिति विश्रुतः।”

– हनुमच्चरितम् (पाराशरसंहिता) ६|६९

इन सब बातों से हनुमान् की विलक्षणता तो ज्ञात हो ही गई। भगवान् राम भी उनकी भाषा से जान गए थे कि यह कोई साधारण वानर तो नहीं हो सकता। न केवल एक अपितु समस्त लीलापात्र भगवान् की लीला में देवों के स्वरूप ही हुआ करते हैं जो कि लीला की समाप्ति पर अपने अपने लोकों में जाकर विराजित होते हैं। रावण स्वयं एक पात्र ही था, जिसे कभी हिरण्यकशिपु ने, कभी प्रतापभानु तो तभी किन्हीने निभाया।

हनुमान् क्या हैं?

जैसा कि सर्वत्र भगवान् हनूमान् को लङ्गूर, कपि, हरि, वानर आदि सम्बोधित किया गया, इससे तो तो सिद्ध है कि वे वानर थे। किन्तु उनके वीर्य से तथा सुग्रीवादि अन्यों के पराक्रमों से उनको सामान्य वानर भी नहीं समझा जा सकता। ऐसे में उन मायावी वानर को क्या समझें? इस विषय पर हमें श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का भी निरीक्षण करना होगा।

“वासुदेवो भगवतां त्वं तु भागवतेष्वहम्।
किम्पुरुषाणां हनुमान् विद्याध्राणां सुदर्शनः॥”

मैं ईश्वरों में वासुदेव, भक्तों में उद्धव, किम्पुरुषों में हनुमान् तथा विद्याधरों में सुदर्शन नामक विद्याधर हूँ।

– श्रीमद्भागवत ११|१६|२९

यहाँ उद्धव को उपदेशित करते हुए भगवान् वासुदेव ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया। यहाँ “वानराणां हनुमान्” न कहकर “किम्पुरुषाणाम्” कहने का यही साफल्य है क्योंकि भगवान् हनुमान् किम्पुरुष वानर हैं।

क्षारसमुद्र के मध्य में स्थित समस्त भूमि जम्बूद्वीप कहलाती है। यहाँ के अधिपति आग्नीध्र के ९ पुत्रों को यहाँ के ९ खण्ड दिए गए। राजर्षिप्रवर भरत का राज्य भारतवर्ष था। तथैव किम्पुरुषवर्ष भी है। वहाँ अन्य किम्पुरुषों सहित भगवान् हनुमान् नित्य श्रीरामचन्द्र की आराधना में अनुरक्त रहते हैं।

“किम्पुरुषे वर्षे भगवन्तमादिपुरुषं लक्ष्मणाग्रजं सीताभिरामं रामं तच्चरणसन्निकर्षाभिरतः परमभागवतो हनुमान् सह किम्पुरुषैः अविरतभक्तिरुपास्ते॥ अर्ष्टिषेणेन सह गन्धर्वैरनुगीयमानां परमकल्याणीं भर्तृभगवत्कथां समुपश्रृणोति स्वयं चेदं गायति॥”

किम्पुरुषवर्ष में लक्ष्मणजी के बड़े भैया, आदिपुरुष, सीताहृदयाभिराम, भगवान् श्रीरामचन्द्र की चरणसन्निधि में उनके रसिकवर श्री हनुमान् अन्य सजातीय किम्पुरुषों सहित भक्तिपूर्वक श्रीराम की उपासना करते हैं। वहाँ अर्ष्टिषेण तथा अन्य गंधर्वों के माध्यम से गाई गई श्रीरामचन्द्र की कल्याणमयी गाथा को सुनते हैं।

– श्रीमद्भागवत ५|१९|१-२

श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के १७वें सर्ग में समस्त देवताओं को वानर संततियों की शृष्टि का आदेश दिया गया। यह कहा गया कि अप्सरादि समस्त स्त्रियों से केवल वानरों की उत्पत्ति करें, “सृजध्वं हरिरूपेण पुत्रांस्तुल्यपराक्रमान्”। अर्थात् माता अप्सरा हो, किन्नरी हो या कोई भी हो, पुत्र वानर ही होने चाहिये क्योंकि ब्राह्माकृत नियति का साफल्य इसी में था। यह भी इनकी विलक्षणता का परिचायक होगा कि ये सभी केवल वानरी से उत्पन्न नहीं। “नागाः किम्पुरुषाश्चैव” कहकर श्लोक क्रमांक २२ में किम्पुरुषों के सहयोग की सहमति स्वयं वाल्मीकि जी ने तो दी ही किन्तु ऊपर दिये गए भगवद्वाक्य से यह समविषयवर्धक प्रमाण गौड ही हो जाएगा। अतः, जहाँ भी “वानर” उक्ति आई, उन हर स्थानों में वानररूपधारी किम्पुरुष, ऐसा समझना ही प्रशस्त होगा।

किम्पुरुष कौन हैं?

किम्पुरुष देवों के समान किन्तु उनसे निम्न मायावी देवयोनि है। अभिधानरत्नमाला में ही “स्यात्किन्नरः किम्पुरुषस्तुरङ्गवदनो मयुः” कहकर इन किम्पुरुषों का पर्याय किन्नर, अश्वमुख आदि कहा गया। अब इन्हे व्यक्ति लिङ्गद्योतक किन्नरों से तुलना न करें क्योंकि “तुरङ्गवदन” इस तुलना को नकार देता है। यह देवगायक कहे गए हैं। हालाकि किन्नर तथा किम्पुरुष दोनो पर्याय कहे जाते हैं किन्तु उनमे कुछ भेद होता है। “वाचस्पत्यम्” के अनुसार,

“किम्पुरुषो देवयोनिभेदे देवगायके अमरः। स च अश्वाकारजघनो नराकारमुखः। किन्नरस्तु अश्वाकारवदनो नराकारजघन इति तयोर्भेदः।”

अर्थात्, किम्पुरुष तथा किन्नर में यही भेद है कि किम्पुरुषों का मुख नर के समान तथा जघन अश्व के समान होता है और किन्नरों का मुख अश्व के समान तथा जघन नर के समान होता है। ये दोनो वंशक्रम में भाई ही कहे जाएंगे क्योंकि महाभारत की उक्ति है,

“राक्षसाश्च पुलस्त्यस्य वानराः किन्नरास्तथा।
यक्षाश्च मनुजव्याघ्र पुत्रास्तस्य च धीमतः॥
पुलहस्य सुता राजञ्छरभाश्च प्रकीर्तिताः।
सिंहाः किम्पुरुषा व्याघ्रा ऋक्षा ईहामृगास्तथा॥”

– महाभारत, आदिपर्व ६७|७-८ (वा ६६)

समस्त चराचर की शृष्टि तो मुनियों से ही हुई। उसी प्रकार किन्नरों की उत्पत्ति पुलस्त्य से तथा किम्पुरुषों की पुलह से कही गई है। यही इन दोनो का भेद है। यदि इन दोनों में कोई भेद न होता तो श्रीमद्भागवत के वामनावतार प्रसंग अष्टम स्कंध के अध्याय २० में “नेदुर्मुहुर्दुन्दुभयः सहस्रशो गन्धर्वकिम्पूरुषकिन्नरा जगुः” न कहते। अस्तु। साथ ही, पुनः यह वाक्य स्मरण हो कि इन किन्नरों की तुलना समलैंगिकों से न करें क्योंकि उनका युग्म नहीं हुआ करता और यदि होता भी है तो वह निरर्थक ही होता है जबकि किन्नर की स्त्रियाँ किन्नरी कहलातीं हैं। कुमारसम्भव के तृतीय सर्ग में किम्पुरुषों का अपनी योषाओं के साथ क्रीडावर्णन भी है।

निष्कर्ष

अन्तिम निष्कर्ष यही है कि मायावी किम्पुरुष एक क्षुद्र (छोटी) देवयोनि है। भगवान् हनुमान् स्वयं एक किम्पुरुष ही हैं, जिनका स्वरूप वानरों का है, अतः वे वानरवेशी हैं। जिस प्रकार भगवान् विष्णु ने मानवी योनि में अवतार लिया तथैव किम्पौरुषी योनि में भगवान् हनुमान् का अवतार हुआ। मानव योनि की लीला करते हुए भी भगवान् देववन्दित हैं तथैव किम्पुरुष वानर योनि की लीला करते हुए भी भगवान् हनुमान सदा वन्दित हैं। ऊपर पाराशर संहिता ने हनुमान् को “त्रिमूर्ति” सिद्ध भी किया है।

यही त्रेतायुगीय श्रीरामावतार के तत्कालीन वानरों की समान्य वानरों से विलक्षणता है। भगवान् हनुमान् की पूँछ भी थी, इसमें भी कोई संदेह नहीं। हमे चाहिये कि हम किसी भी फेसबुक आदि के ऊटपुटांग लेखों का अध्ययन न करते हुए किसी पात्र गुरु के समक्ष अपने प्रश्न रखें। हम स्वाध्याय भी कर सकते हैं किन्तु वह भी गुरुसानिध्य में ही श्रेयस्कर है अन्यथा नहीं।

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