रचयिता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
सरससारससङ्कुलसंहित
-स्थितिसुभाषितवैभवभूषिते।
चिचरिषामि सुपादनखे वने
-विविधवृक्षदलैर्दह मे मलम्॥१॥
सुन्दर कमल समूहों के निकट विद्यमान रहने वाले (हंस) के ऊपर स्थिति करने वाली के रूप में जानी जाने वाली जगदम्बा! मैं आपके चरणनख रूपी वन में जाने का इच्छुक हूँ। वहाँ के कई प्रकार के वृक्षों के पत्तों से मेरी अशुद्धियों को नष्ट कर दें।
कथं वन्देऽहं त्वां जननि वचनैस्त्वच्च शुचितैः
रसज्ञाशैलूष्या अधियुवतिमारोपितपदे।
त्वया यद्दत्तानि त्वयि च कुशलं वा निशमतु
दधिष्येऽहं देव्यामयि वद विगायाब्जपुटिते॥२॥
माता! मैं आपकी स्तुति आपसे ही निकले वचनों से कैसे करूँ? हे जिह्वा नटी की अधिष्ठात्री देवी की उपाधि से मण्डित! देखिये, आपके द्वारा दिये वस्तुओं को यदि मैं आपको ही पुनः दे दूँ तो क्या उचित है? हे कमल के समान कान्ति वाली शारदे! कहिये। निश्चयपूर्वक कहिये।
न चाहं ते मातर्विविधविधिभिर्वासनमपि
यथा वित्तैश्चित्तैः सकलगुणरिक्तैश्च मुनिभिः।
कृतो नाहं वाऽहं स्मरणमपि शोकाकुलकुले
किमर्थं चैतावन्मयि करुणदृष्टिस्तव कथम्॥३॥
न तो मैने आपकी विविध विधियों के द्वारा वैसी सेवा ही की जैसी मुनिगण अनेक द्रव्यों, अपने चित्तों तथा त्याग के माध्यम से करते हैं। न तो मैने आपका स्मरण ही किया, किया भी तो जब मैं शोक से संतप्त हुआ, तब किया। पश्चात् भी आपने क्यों तथा कैसे मुझपर ऐसी करुणा दिखाई (यह मैं नहीं जानता)।
पुरा गौर्युद्भूतां तरुणिमिव दृष्ट्वाऽमरिपू
समक्षे लोके तेकतुरतिवितानेन धवले।
महाघण्टां कम्बुं हलमुषलशूलानि कटकं
धनुं दृष्ट्वा जीर्णौ विशिखशुचिशीर्णौ निपतितौ॥४॥
पूर्वकाल में आप गौरी के देह से उत्पन्न कन्या को देखकर दोनो (शुम्भ निशुम्भ) दैत्य सामने आकर मद के कारण हँसने लगे थे। हे धवला! अनन्तर उन्होंने जब घण्टा तथा (आपके हाथों में) शंख, हल, मूसल, शूल, चक्र, धनुष आदि आयुधों को देखा तो वे शक्तिहीन हो गए तथा (आपके द्वारा आपके) बाणों की अग्नि से मारे गए गिर पड़े।
कदा विष्णोर्जाया निधनतनया कल्पविवरे
शुषौ सर्त्री नाभेर्विभवगृहधर्त्री तटमये।
कदा मातर्मैत्रावरुणिधिषणा नैव विदिता
मया मह्यं देवि त्वमिवजननी त्वेकशरणम्॥५॥
आप कभी अन्यान्य कल्पों में भगवान् विष्णु की पत्नि, कभी ब्रह्मा की पुत्री कहलाईं। कभी पाताल में बहने वाली, कभी ब्रह्मा की पत्नि तथा कभी तटों से पूर्ण नदी कहलाईं। हे माता! कभी आप ही श्रीवाल्मीकि जी की बुद्धि कलाईं किन्तु ये रूप मेरे द्वारा नहीं जाने गए। हे देवि! मेरे लिये आप मातृस्वरूपा ही एकमात्र शरण हो।
कथं जानेऽहं त्वां विततगुणवृत्तं श्रुतिनुते
श्रुतिः सर्वं त्वाय कृतमुपकृतं चापलपति।
अपेक्षेऽहं देवि त्वमिवजननी रक्ष सततं
वयस्याभ्यां स्ताता विविधसरितां पूजितपदे॥६॥
हे श्रुतियों के माध्यम से भी वन्द्या! मैं आपके विस्तृत विभूतियों को कैसे जानूँ? श्रुतियाँ उनपर आपके द्वारा किये हुए उपकार को स्वीकार कर रहीं (कृतज्ञता का प्रदर्शन कर रहीं) हैं। अनेक सरिताओं के पूज्य स्थिति वालीं आप हेतु मैं तो यही अपेक्षा करता हूँ कि आप अपनी दोनों सखियों (यमुना तथा गंगा या गायत्री तथा सावित्री) से आवृत्त रहतीं मेरी रक्षा करें।
धनं विष्णोः शक्तिस्त्वमयि पशुनाथस्य जगति
स्वयम्भ्वः प्रज्ञानं ननु न मननीया सुनलिनि।
बहिश्चान्तः पूर्ता निगमपरतीरा न च तथा
श्रुतिस्निग्धा दिग्धाऽवतु जननि पुत्रोऽस्मि भुवने॥७॥
आप संसार में विष्णु की सम्पत्ति, शिव की शक्ति तथा ब्रह्मा का ज्ञान हैं किन्तु हे कमल की आभा वाली! आप (उनसे) न जानी जाने वालीं हैं। आप बाहर में, अंदर में भरीं हैं तथा वेदों से अतीत हैं भी और नहीं भी। आपको वेद अतिप्रिय हैं। आप वेदों से लिप्त हैं। हे माता! मैं आपका पुत्र हूँ। रक्षा करें।
दिवोदासीभिर्यत्कुमुदकलिकायुग्मनयनैः
स्वरूपं त्वां हस्तैः सचितमथ वक्त्रैः परिमितैः।
शचीशो गौरीशात्मज उदकमुक्षन्ति सुमुखे
सुरास्त्वत्पादाभ्यां स्रुतमिति कथं वच्मि कलुषः॥८॥
आप कमल की कलिकाओं के समान नेत्रों वाली स्वर्ग की दासियों (स्त्रियों) के नेत्रों से सेवित स्वरूप वालीं हैं। उनके हाथ भी आपकी सेवा में लगे हैं। अपने असमर्थ मुखों से भी वे आपकी सेवा कर रहीं हैं। शचीपति इंद्र, शिवपुत्र गणेश तथा अन्य देव आपके चरणों से टपकते जल को अपने मुखमंडल में सिंचन कर रहे हैं। मैं कलूषित (आपकी महिमा को) कैसे कहूँ?
कदाचिद्देवि त्वं दशपदभुजास्यैरवयवैः
क्वचिच्चाष्टाभिस्त्वं हनति दनुजं हेतिदधने।
क्वचिद्वीणाग्रन्थसृणिशिवप्रियस्रग्भिरविता
कथं सन्नश्चेक्षै शिरसि तलमाधेहि पदयोः॥९॥
हे देवि! कभी आप दश दश भुजा, चरण तथा मुख से युक्त हो जाती हो, और हे विभिन्न शस्त्रों को धारण करने वाली! कभी तुम आठ भुजाओं से दानवों को मारती हो। कभी तुम वीणा, पुस्तक, अंकुश तथा अक्षमाला से आभूषित हो जाती हो। मैं (देखने में) अक्षम कैसे देखूँ? (अतः) इस मस्तक में अपने पैरों के तलवे को रख दो।
कृच्छ्रातपाशुगगती मुनिभिः प्रतापैः
प्राप्ताऽम्बिके न च सुतस्तव शक्तिरेषा।
पूर्णो विधेर्न तु निधेरपि सन्निधिं ते
वाञ्छामि योऽनधिकृतः क्षमतां सुरेशि॥१०॥
कृच्छ्र ताप तथा वायु आदि से निर्वाह करने वाले मुनियों के प्रताप से आप उन्हें प्राप्त हो गईं किन्तु हे अम्बा! आपके पुत्र के (मेरे) पास ऐसी शक्ति नहीं है। न तु मैं (आपके आराधन की) विधियों को जानता हूँ, न तो मेरे पास कोई विशेष निधि है, तथापि मैं आपकी सन्निधि की कामना करता हूँ। हे सुरेशी! इस (मुझ कामना करने हेतु) अनधिकृत को क्षमा करें।
नाहं समज्ञाविततो विवेकी
प्रसूतवत् सर्वविधप्रसिद्धः।
त्वं विश्वगर्भे न च मां त्यजस्व
विपात्सु सम्पत्सु सदा जगत्सु॥११॥
मैं आपके पुत्रों के समान कीर्तिप्राप्त तथा हर प्रकार से प्रसिद्ध, विवेकी नहीं हूँ। हे समस्त संसार की माता! तुम मुझे इस संसार में विपदाओं में तथा संपदाओं में मत छोड़ो।
बालकश्चाश्रितो मातुर्युवकस्तु स्वमाश्रितः।
तथाऽहं त्वयि चाशासे एवं मा मां त्यजेश्वरि॥१२॥
एक बालक माता पर आश्रित रहता है तथा एक युवक स्वयं पर आश्रित रहता है। उसी प्रकार मैं आपके प्रति आशा करता हूँ। हे ईश्वरी! मुझे मत त्यागो।
त्वामत्र वन्दने देवि मया दोषाः कृतास्तथा।
तदर्थं क्षम्यतां मातश्चैवं मा मां त्यजेश्वरि॥१३॥
यहाँ आपके वन्दन में भी मैने बहुत सारे दोष कर दिये हैं। उन सबके लिये मुझे क्षमा करें। हे माता! हे ईश्वरी! आप मुझे न छोड़िये।
पात्रत्वादधिकं याञ्चां ज्ञात्वा च जगदीश्वरि।
वाचालत्वं मया क्षान्त्वा रोचते यत्तथा कुरु॥१४॥
आपको लगे कि मैं अपने गुणों से अधिक कुछ मांग रहा हूँ तो हे जगदीश्वरी! मेरे बड़बोलेपन को क्षमा करते आपको जो अच्छा लगे, आप वैसा करें।
॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा कृतं शारदाऽपराधक्षमापनं सम्पूर्णम् ॥