॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

वर्तमान समय में हम जिस पृथ्वी पर निवास करते हैं, प्रश्न यही है कि हम उसके विषय में कितना जानते हैं। सम्भवतः इसके विषय में हमें एक प्रतिशत का भी ज्ञान नहीं। हमें यह ज्ञान अवश्य है कि हमारे समक्ष ज्ञान का अथाह भण्डार सनातन शास्त्रों के रूप में पड़ा है किन्तु हम या तो इसे Mythology (मिथकशास्त्र) मान लेते हैं, या तो हम उन ग्रंथों का अध्ययन बिना संप्रदायनिष्ठ गुरु के ही करना प्रारम्भ कर देते हैं। हम जब इन शास्त्रों को मिथक मान लेते हैं तब हम इनपर विश्वास नहीं करते तथा हम आधुनिक इतिहासकारों की शरण में चले जाते हैं। यह उसी प्रकार है जैसे विशाल सरोवर के समक्ष खड़े होकर मात्र करकभर के जल में स्नान करके आतप शांत करने का प्रयत्न करना। कारण, एक विकसित इतिहासविद् जो कि यह भी जानता है कि ब्रह्माण्ड अण्डाकार है, नव ग्रह हैं जबकि उस काल में वर्तमान के समान विविध सहयोगी संयंत्रों का अभाव था, उसके रहते उन सज्जनों के समक्ष पहुंच जाते हैं जिनका समूह ३०० साल पहले तक पृथ्वी को चपटी कहता था।

आधुनिक इतिहासकार भी दो जाति के होते हैं। एक तो वर्तमान इतिहास से सनातन ग्रंथों को मिलाने का प्रयास करते करते अनेक विरुद्ध परिभाषाएं रचते हैं, दूसरे ऐसे जो सिरे से ही शास्त्रों को नकार देते हैं। कुछ यही स्थिति भूविज्ञानियों की भी है।

भूविज्ञानियों के अनुसार विशाल पेंजिया नामक महाद्वीप से विभाजित समस्त सप्तद्वीप बनें जो वर्तमान में दृश्य हैं। विभिन्न कालों के ज्ञान हेतु उस द्वीप तथा विशाल पैंथालासा समुद्र के विभिन्न नाम कहे गए। हमारे भारतीय भूवैज्ञानिक तथा चिन्तक जिनकी आस्था सनातन धर्म में भी है, वे कहते हैं कि अमेरिका से जापान तक जो सात द्वीप हैं, यही सात द्वीप जम्बू, प्लक्षादि सप्तद्वीपों के रूप में शास्त्रों में वर्णित हैं। आज इसी बात का अन्वेशण करेंगे।

आधुनिकविज्ञानानुसार पृथ्वी का कुल आकार ५१००७२००० वर्ग किलोमीटर है। जबकि हमारे शास्त्रों में इसका परिमाण ४,०००,०००,००० किलोमीटर अर्थात् ५००,०००,००० योजन है (यदि १ योजन = १३ कि०मी० तर्हि ६,५००,०००,००० कि०मी०)।

“एतावाँल्लोकविन्यासो मानलक्षणसंस्थाभिर्विचिन्तितः कविभिः स तु पञ्चाशत्कोटिगणितस्य भूगोलस्य तुरीयभागोऽयं लोकालोकाचलः।।”

– भागवत पुराण, पञ्चम स्कंध, अध्याय १६

प्रश्न यहाँ क्या उठा? यह कि दोनों गणनाओं में इतना अंतर क्यों? आगे यह बात स्पष्ट होगी। इस भूमण्डल में ही जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौञ्च, शाक तथा पुष्कर द्वीप स्थित हैं। वहीं इनके चारो ओर खारा पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध तथा मीठे जल के समुद्र वेष्ठित हैं।

“जम्बूप्लक्षाह्वयौ द्वीपौ शाल्मलश्चापरो द्विज।
कुशः क्रौञ्चस्तथा शाकः पुष्करश्चैव सप्तमः॥
एते द्वीपाः समुद्रैस्तु सप्तसप्तभिरावृताः।
लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलैः समम्॥”

– विष्णुपुराण, द्वितीय अंश, अध्याय २

इन समस्त द्वीपों के मध्यद्वीप को ही जम्बूद्वीप कहा गया है। इसके अधिपति प्रियव्रत पुत्र आग्नीध्र ने अपने क्षेत्र जम्बूद्वीप को अपने नौ पुत्रों में आबंटित किया था। भारतवर्ष नाभि के अधिकार में प्राप्त हुआ था। इस भारतवर्ष को ही कर्मभूमि कहा जाता है। यह कर्मभूमि कही गई। इसके अतिरिक्त समस्त स्थान भोग्यक्षेत्र हैं। स्पष्ट है कि शूद्रयोनि पापपुण्य के समत्व का निष्कर्ष है। चूँकि भारत से इतर देशों में कलयुग स्थिति के अनुरूप गुरुण्ड, म्लेच्छ तथा यवनों का वास है। ये योनियाँ सिंहादि योनियों के समान ही पापाधिक्य से संतप्त हैं।

आधुनिक भूवैज्ञानिकों के पक्षधर समस्त सातों द्वीपों को कुछ ऐसे बताते हैं कि पुष्कर अमेरिका है, शाक ईरान, जम्बू भारत है आदि आदि। इस तर्क में प्रश्न यही उठता है कि क्योंकि इन समस्त द्वीपों को चारो ओर से एक एक समुद्र घेरे हुए है। वे समुद्र कहाँ हैं? जो समुद्र हैं भी सो सब क्षारसमुद्र हैं। और भारत जम्बू कैसे हो सकता है क्योंकि उसे तो जम्बू का एक वर्षमात्र बताया गया? इससे तो यह निष्कर्ष निकलता है कि जम्बूद्वीप भारत से कम से कम नौ गुणा तो बृहद है ही। क्यों?

इन समस्त प्रश्नों में भविष्यपुराण का एक वाक्य और जोड़ दें तो मस्तिष्क को शिशिरता की प्राप्ति हो जाती है। वह वाक्य यह है…

“तदा तु भगवाञ्छक्रो विश्वकर्मागमब्रवीत्।
भ्रमिश्च नासयंत्रोऽयं संस्थितः सप्तसिन्धुषु॥
त्वया विरचितस्तात तत्प्रभावान्नरा भुवि।
अन्यखण्डे न गच्छन्ति स च यन्त्रस्तु मायया॥

देवेन्द्र ने कहा ‘हे तात! सप्तसिन्धुओं में आपके द्वारा निर्मित यंत्र स्थापित हैं जिससे प्रभावित मानवादि जंतु एक से दूसरे भूखण्डों की यात्रा नहीं कर सकते।'”

– भविष्यपुराण, प्रतिसर्गपर्व २४|४-५

अर्थात् विश्वकर्माकृत अतिविकसित यंत्रों से मोहित जीव केवल वहीं की यात्रा कर सकते हैं किवा देख सकते हैं जिसे देव उन्हें दिखाना चाहें। अन्य द्वीपसागरादि गुप्त हैं जहाँ केवल सिद्धों की गति है। पुनः प्रश्न उठा कि ऐसी क्या आवश्यकता आन पड़ी कि यंत्रों से हमें बाधित करना पड़ा? आप स्वयं सोंचे कि कलयुगीय मानवों की प्राकृति कैसी है। जो प्राप्त है, उसी को दूषित कर रहे हैं तो बांकी भी गम्य होता तो उसका क्या करते। तदुपरि…

“ह्रदाश्चत्वारः पयोमध्विक्षुरसमृष्टजलाः यदुस्पर्शिन उपदेवगणाः योगैश्वर्याणिस्वाभाविकानि भरतर्षभधारयन्ति॥” 
“एवं कुमुदनिरूढ़ो यः शतवल्शो नाम वटस्तस्यस्कंधेभ्यो नीचीनाः पयोदधिमधुघृतगुडान्नाद्यम्बरशैयासनाभरणादयः सर्व एव कामदुघा नदाः कुमुदाग्रात्पतन्तस्तमुत्तरेणेलावृतमुपयोजयन्ति।। यानुपजुषाणानां न कदाचिदपि प्रजानां वलिपलितक्लमस्वेददौर्गन्ध्यजरामयमृत्युशीतोष्णवैवर्ण्योपसर्गादयस्तापविशेषा भवन्ति यावज्जीवं सुखं निरतिशयमेव॥”

– भागवत पुराण, पञ्चम स्कंध, अध्याय १६

ऐसी सरताएं सरोवरें विद्यमान हैं जिनके जल के सेवन से सिद्धियाँ, ऐश्वर्य, यौवन, चिरायु की प्राप्ति होती है। यह हमारे गम्य होता तो आज हम उत्पात कर रहे होते क्योंकि ये सारी वस्तुओं के हेतु मनुष्य कुछ भी कर सकता है। अतः कलयुगीय जीवप्राकृति को ध्यान रखकर भगवान् के आदेश से विश्वकर्मा द्वाया यह यंत्र स्थापित किया गया। समुद्र वस्तुतः आज भी अगम्य ही है। यह बात वैज्ञानिक भी मानते हैं। उस समुद्र से इस यंत्र को प्राप्त करना कलयुगीय जीवों हेतु असंभव है। अतः श्रुति ही प्रमाण है। कोई विश्वास करे, न करे।

वहीं आधुनिक विज्ञान इस यंत्र को ही नहीं मानेंगा। किन्तु यह आश्चर्य की बात नहीं। कुछ शतकों पहले यह पृथ्वी को गोल भी नहीं मानता था।

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