लेखक – पं. श्री अंकित शर्मा
(कर्मकाण्डविद्, सतत अध्येता)
विभूतियों की परिगणना के संदर्भ में भगवान् ने गीता में कहा है कि “धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ”। भरतकुलश्रेष्ठ अर्जुन! धर्म के अविरुद्ध रहने वाला काम मैं हूँ। ऐसे भी काम अन्यतम पुरुषार्थ है। काम की सम्पूर्ति अर्थ के बिना नहीं हो पाती। अतः धर्म के बाद अर्थ और तब काम का नाम पुरुषार्थों में आता है। मूलतः काम की पूर्ति के लिये अर्थ की अपेक्षा हो जाती है, जिसका मूर्त अधिदैवतरुप श्रीलक्ष्मीजी हैं। यज्ञदानादि धर्मों में भी धन अपेक्षित होता है। निष्काम साधना में काम का त्याग आवश्यक होता है और धर्म की पूर्ति में सहायक अर्थ प्रतीक श्रीलक्ष्मीजी की स्थिति समझने में राजा बलि को छोड़कर देवाधिदेव इन्द्र के पास आने की प्रकृतकथा उपयोगी है। हम सद्गुण के साथ पहले सकाम होकर भी धर्म का पालन करें तो निष्कामता की साधना में वे गुण बहुत सहायक होंगे। उस समय केवल भावनापरिवर्तन भर करना होगा। अतो लक्ष्मीकी प्राप्ति रूप काम सिद्धि के लिये, उपयोगी सद्गुणों की शिक्षा के लिये यह आख्यान पठनीय है।
एक बार इन्द्र ने बड़ी कठिनाई से राजा बलि को ढूंढ निकाला। उस समय वे छिपकर किसी खाली घर में गदहे के रूप में कालक्षेप कर रहे थे। इन्द्र और बलि में कुछ बाते हुई और फिर बलि ने इन्द्र कों तत्वज्ञान का उपदेश दिया तथा काल की महत्ता बतलायी। बात दोनों में चल ही रही थी कि एक अत्यन्त दिव्य स्त्री बलि के शरीर से निकल गयी। इसे देख इन्द्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने बलि से पूछा, “दानवराज! तुम्हारे शरीर से यह प्रभामयी स्त्री कौन बाहर निकल पड़ी? यह देवी है अथवा आसुरी या मानुषी?” बलि ने कहा, “न यह देवी है ना मानुषी और न आसुरी ही। यह क्या है? तथा इसे क्या अभिप्रेत है सो तुम इसी से पूछो।” इस पर इन्द्र ने कहा, “देवि! तुम कौन हो तथा असुरराज बलि को छोङकर मेरी ओर क्यों आ रही हो?” इस पर वह प्रभामयी शक्ति बोली, “देवेन्द्र! न तो मुझे विरोचन जानते थे और न उनके पुत्र ये बलि ही। पण्डित लोग मुझे दुस्सहा, विधित्सा, भूति, श्री और लक्ष्मी के नामों से पुकारते हैं। तुम और दूसरे देवता भी मुझे नहीं जानते।”इन्द्र ने पूछा, “आर्ये! तुम बहुत दिनों तक बलि के पास रही। अब बलि में कौन सा दोष और मुझमें गुण देखकर उन्हे छोड़ मेरे पास आ रही हो?” लक्ष्मी ने कहा, “शतक्रतु! मुझे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से धाता, विधाता कोई भी नहीं रोक सकता। काल के प्रभाव से ही मैं एक को छोड़कर दूसरे के पास जाती हूँ। इसलिये तुम बलि का अनादर मत करो।” इन्द्र ने पूछा, “सुन्दरे! तुम असुरों के पास क्यों नहीं रहना चाहती?” लक्ष्मी बोलीं, “जहाँ सत्य, दान, व्रत, तप, पराक्रम तथा धर्म रहते हैं, मैं वही रहती हूँ। असुर इस समय इनसे विमुख हो रहे हैं। पहले ये सत्यवादी, जितेन्द्रिय और ब्राह्मणों के हितैषी थे। पर अब ये ब्राह्मणों से ईर्ष्या करने लगे हैं, जूठे हाथ भी मुझे छूते हैं, अभक्ष्य भोजन करते और धर्म की मर्यादा तोड़कर मनमाना आचरण करते हैं। पहले ये उपवास और तप में लगे रहते थे। प्रतिदिन सूर्योदय से पहले जागते और रात में कभी दही या सत्तू नहीं खाते थे। रात के आधे भाग में ही ये सोते थे, दिन में तो ये कभी सोने का नाम भी नहीं लेते थे। व्याकुल, विषादग्रस्त, भयभीत, रोगी, दुर्बल, पीड़ित, तथा जिसका सर्वस्व लुट गया हो, उसको सदा ढांढस बंधाते और उसकी सहायता करते थे। पहले ये कार्य के समय परस्पर अनुकूल रहकर गुरुजनों तथा बड़ेबूढ़ों की सेवा में सदा दत्तचित्त रहते थे। ये उत्तम भोजन बनाकर अकेले ही नहीं खाते थे। पहले दूसरों को देकर पीछे अपने उपभोग में लाते थे। सब प्राणियों को अपने ही समान समझकर उनपर दया करते थे। चतुरता, सरलता, उत्साह, निरहंकारिता, सौहार्द्र, क्षमा, सत्य, दान, तप, पवित्रता, दया, कोमल वाणी और मित्रों से प्रगाढ़ प्रेम, ये सभी गुण इनमें सदा उपस्थित रहते थे।”
“निद्रा, आलस्य, अप्रसन्नता, दोषदृष्टि, अविवेक, असंतोष और कामना ये दुर्गुण इन्हें स्पर्श तक नहीं कर सके थे। पर अब तो इनकी सारी बातें निराली तथा विपरीत ही दीख पड़तीं हैं। धर्म तो इनमें अब रह ही नहीं गया है। ये सदा काम, क्रोध के वशीभूत रहते हैं। बड़ेबूढ़ों की सभाओं में ये गुणहीन दैत्य उनके दोष निकालते हुए उनकी हंसी उड़ाया करते हैं। वृद्धों के आने पर ये लोग अपने आसनों पर से उठते भी नहीं। स्त्री पति की, पुत्र पिता की आज्ञा नहीं मानता। माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि, और गुरुओं का आदर इनमें नहीं रह गया। इनके रसोइये भी अब पवित्र नहीं होते। छोटे बालक आशा लगाकर टकटकी बांधे देखते ही रह जाते हैं और दैत्य लोग भोजन की वस्तुएँ अकेले चट कर जाते हैं। ये पशुओं को घर में बांध देते हैं, पर चारा और पानी देकर उनका पालन पोषण नहीं करते। ये सूर्योदय तक सोये रहते हैं तथा प्रभात को भी रात ही समझते हैं। प्रायः दिनरात इनके घर में कलह ही मचा रहता है। अब इनके यहाँ वर्णसंकर संतानें होने लगी हैं। वेदवेत्ता ब्राह्मणों और मूर्खों को ये एक समान आदर या अनादर देते हैं। ये अपने पूर्वजों द्वारा ब्राह्मणों को दी हुई जागीरें (जीविकाक्षेत्र) अपनी नास्तिकता के कारण छीन लेते हैं। शिष्य अब गुरुओं से सेवा करवाते हैं। पत्नी पति पर शासन करती है और उसका नाम ले लेकर पुकारती है। संक्षेप में, ये सब के सब कृतघ्न, नास्तिक, पापाचारी, और स्वैरी बन गये हैं। अब इनके वदन पर पहले का वह तेज नहीं रह गया है। इसलिये देवराज! अब मैंने भी निश्चय कर लिया कि इनके घर में नहीं रहूंगी। इसी कारण से दैत्यों का परित्याग करके तुम्हारी ओर आ रही हूँ। तुम मुझे स्वीकार करो। जहाँ मै रहूंगी, वहाँ आशा, श्रद्धा, धृति, क्षान्ति, विजिति, संतति, क्षमा और जया ये आठ देवियाँ भी मेरे साथ निवास करेंगी। मेरे साथ ही ये सभी देवियाँ भी असुरों को त्याग कर आ गयी हैं। तुम देवताओं का मन अब धर्म में लग गया है, अत एव अब हम तुम्हारे ही यहाँ निवास करेंगी।” तदनन्तर इन्द्र ने उन लक्ष्मी जी का अभिनन्दन किया। सारे देवता भी उनका दर्शन करने के लिये वहाँ आगये। तत्पश्चात् सभी लौटकर स्वर्ग में आये। नारदजी ने लक्ष्मी जी के आगमन की स्वर्गीय सभा में प्रशंसा की। एक साथ ही पुनः सभी ने बाजेगाजे के साथ पुष्प और अमृत की वर्षा की। तब से फिर अखिल संसार धर्म तथा सुखमय हो गया।
– महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्ष० २२४-२२८, बृहत्पाराशर स्मृति, अध्याय ९९। महा० अनुशासनपर्व, अध्याय ११