लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
वर्तमान समय में कुछ इतर जातियाँ हैं जो अग्रज के मरणोपरान्त अनुज को विधवा का पति स्वीकार लेतीं हैं। वस्तुतः हम इन रीतियों के विषय में कुछ कहना तो नहीं चाहते किन्तु किसी के माध्यम से पूछे जाने पर इसपर लिख रहे हैं। विधवा का विवाह समर्थन करने वाले जन मुख्यतः निरुक्त अध्याय ३, खण्ड १५ के वाक्य को तथा ऋग्वेद के मण्डल १०, सूक्त १८ की ऋचा ८ को प्रमाण के रूप में देते हैं। इसका पालन इतर जनजातियाँ नहीं अपितु कई जन किया करते हैं। पहले ऋचा को देखें।
“उदीर्ष्व नार्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुपशेष एहि। हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ॥”
तात्पर्य – हे विधवा नारी! तूँ इस मृत को छोड़कर जीवित स्वामी को प्राप्त हो। विवाह में जिसने तेरा हाथ पकड़ा था, उस पति की तथा अपनी संतान को उत्पन्न कर। तूँ ऐसे ही प्रसन्न हो।
– ऋग्वेद १०|१८|८
इसके अतिरिक्त अथर्ववेद में भी संभवतः एक ऋचा है जो हमें याद नहीं आ रही किन्तु… इस ऋचा के अध्ययन तथा पास की अन्य ऋचाओं से निष्कर्ष यही निकलता है कि यहाँ नियोगात्मक विषय ही नहीं है। यहाँ कहा गया कि जो स्त्री विधवा हो तथा गर्भवती हो वह अपने जीवित पालक (पुत्र) को प्राप्त हो। अथर्ववेद की भी यही स्थिति है। इसके अतिरिक्त, मनुस्मृति के नवम अध्याय में यथा,
“देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया।
प्रजेप्सिताधिगन्तव्या संन्तानस्य परिक्षये॥”तात्पर्य – सन्तानाभाव में विधिपूर्वक नियुक्ति के माध्यम से स्त्री देवर या सपिण्डियों से पुत्र की प्राप्ति कर सकती है।
इसे भी वे प्रमाणार्थ प्रस्तुत करते हैं। तथापि मनुस्मृति में आगे इसके नियम प्रस्तुत किये गए हैं। इतर जातियाँ जीवनपर्यन्त उस विधवा हेतु उसके देवर को ही पति मान लेते हैं जबकि यहाँ कहा गया कि पुत्रप्राप्ति के बाद पूर्ववत्, भाभी से गुरुपत्निवत् तथा अनुज की भार्या से पुत्रवधुवत् व्यवहार करें। कामियों की अधोगति होती है। परिवार के माननीय ज्येष्ठों की अनुमति से ही यह कृत्य सम्पन्न होता है, अन्यथा नहीं।
“यवीसो वा यो ज्यायानुभौ तौ गुरुतल्पगौ।
– नारदस्मृति १२|८६
नियुक्तौ गुरुभिर्गच्छेदनुशिष्यात् स्त्रियं च सः॥”
छोटे भाई अथवा बड़े भाई का अपने भाई की पत्नि के साथ व्यवहार गुरुपत्नि के गमन के समान महापाप है। बड़ों के माध्यम से पिण्डोदक के साधनाभाव में नियुक्त यह मात्र एक आपालकालीन प्रक्रिया थी। पुत्रोत्पत्ति के पश्चात् संबंध रखने पर राजा के माध्यम से पुरुष को मृत्युदण्ड देने का निर्णय है। इस प्रकार विधान वर्णन करके भी मनुस्मृति में इसे वेन की चर्चा करते हुए निन्दित कर्म ही कहा है। विधवा का ब्रह्मचर्य, सतीत्व तथा पुनर्विवाह ये क्रमशः उत्तम, मध्यम तथा अधम कार्य है। अधम कार्य को पिशाचासुरादिक विवाहों के समान निन्दित ही मानना चाहिये तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में ही इनका पालन करना चाहिये, ऐसा विधान विद्वानों ने माना है।
ये इतर जातियों में देवरों का भाभियाँ प्रणाम करतीं हैं, पैर छूतीं हैं। नियोगोपरान्त उपरोक्त दिया भाव नहीं, अपितु वे विधवा अपने वैधव्य को त्यागकर देवर के नाम से सौभाग्यवती होकर उसके साथ निवास करने लग जाती है। नियोग में भी इसकी वर्जना ही है। जैसे ऊपर कहा गया। अन्य स्मृतियों में भी नियोग का वर्णन करने के बाद कुछ ऐसा वर्णन आता है,
“स च तां प्रतिपद्येत तथैव पुत्रजन्मतः।
– नारदस्मृति १२|८१
पुत्र जाते निवर्तेत संकरः स्यादतोऽन्यथा॥”
स्पष्ट है कि पुत्रोत्पत्ति के उपरान्त कामासक्ति संकर संतानों का सृजन करेगी। देवर तथा भाभी का संबंध देखना है तो श्रीलक्ष्मण जी तथा श्रीसीताजी को देखें।
“नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
– श्रीमद्वाल्मीकीये रामायणे ४|६|२२-२३
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्॥”
श्रीलक्ष्मण जी कहते हैं कि वे केवल सीताजी के नूपुर से परिचित हैं क्योंकि उन्होंने सीताजी के चरणों का अभिवन्दन ही किया है। केयूरेकुण्डलादि को वे जानते ही नहीं।
इन सबके अनन्तर ये समस्त कृत्य कलयुग में निषिद्ध ही हैं यथा श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण, श्रीकृष्णजन्मखण्ड के अध्याय ११५ में श्लोक ११२-११३ में वर्णित है।
“देवरेण सुतोत्पत्तिं कलौ पञ्चविवर्जयेत्॥”
अतः, कुछ समाज इसका पालन करते हैं। सामाजिक स्तर पर जैसा हो किन्तु ये विधवा विवाह आज निषिद्ध तथा पूर्वमें भी अधम ही था।
आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी