॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   रचयिता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

नमामि ब्रह्मविष्णुशर्वसर्वमानसस्थिते
द्रवप्रलिप्तलोचनप्रभेश्वरीं जगन्मये।
तव भ्रुवो भ्रमन्ति देवदैत्ययक्षकिन्नरा-
स्त्वया प्ररुह्य रान्ति तां नमामि केवलाम्बिके॥१॥

हे ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवताओं के मन में नित्य वास करने वाली! क्रीडा उत्सुक नयनों वाली ईश्वरी को मैं नमस्कार करता हूँ। हे जगन्मये! आपकी भौहों की माया मात्र से देवता, दैत्य, यक्ष, किन्नर आदि घूमते (भ्रमित होते) रहते हैं। वे आपसे उत्पन्न होकर आपको ही प्राप्त हो जाते हैं। हे समस्त संसार की माता! उन देवी को नमस्कार है।

सुमौक्तिकान् वशीकृतांस्तु ग्रन्थितांश्च मस्तके
प्रभाकरस्तथार्बुदप्रभासमूहसंश्रवान्।
नवोदितार्चिवन्दितैस्तथैव पीतचन्दनै-
श्च पीतनेन्दुबिन्दुसिन्धुगूढलोचनेश्वरि॥२॥

सुन्दर मोतियाँ, जो अरबों सूर्य की प्रभा के स्वामी हैं, वे भीं वशीकृत होकर मस्तक के मुकुट में बंधे हुए हैं। हे समुद्र से गंभीर नेत्रों वाली! जैसे नवीन उदित सूर्य हो, उसी प्रकार मस्तक में पीला चंदन लगा है जिसके मध्य में लाल चन्द्र तथा बिन्दु हैं।

मयूखचक्रसाध्वसैः सदैवधर्मसंस्थिता
यथार्कतापभेषिता वपास्थशर्वरीचराः।
तवाम्लसारसस्यमालिकेषिताभयेश्वरि
करैकलाडनार्जितो कचे किमन्यदीक्षितः॥३॥

आपके चक्र की रश्मियों से भयभीत होकर सभी मर्यादित रहते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य के ताप से भयभीत होकर निशाचर जंतु बिलों में (छुपे हुए) रहते हैं। आपकी निम्बूकमालिका के दर्शनार्थियों हेतु अभय स्वरूपिणी! (एक ओर ऐसे भयभीत हैं तो दूसरी ओर) कुछ जीव जिन्होंने आपके हाथों से अपने केशों को सहलाए जाने का आभास कर लिया, वे और कुछ भी नहीं चाहते (वे भय हेतु नहीं अपितु इसी आनन्द की लालसा से मर्यादा धारण करते हैं)।

नभाकुचाग्रकुन्तलश्रमप्रलिप्तपुष्करां-
-स्तनामृताश्रयोऽजजूटकेन्दुना तु सूनुनाम्।
गदाकृपाणशङ्खचक्रपुष्कराञ्छराशनं
धरे धरेन्द्रनन्दिनि मलिम्लुचे मलाय वै॥४॥

व्योम के समान केश स्तनों के आगे तक विस्तृत हैं। उसमें (जैसे) श्रम के कारण स्वेदकणों की स्थिति है। पुत्रों हेतु उन शिवजटा में स्थित चंद्रमातत्व वाले स्तनों का अमृत ही एकमात्र आश्रय है। गदा, कृपाण, शंख, चक्र, कमलपुष्प तथा धनुष धारण की हुईं पर्वतकन्या ही पापों हेतु उनकी अपहरणकर्त्री हैं।

सुकुङ्कुमार्द्रशाटिकां सुभूषितां हिरण्मय-
-प्रभिन्नलम्बरेखया सुबद्धरत्नमेखलाम्।
यथा न मोहयेदतः कृशाकतुद्मतीस्थितां
तथापिसर्वमोहिनीं सुरद्विषे द्विषि स्थिते॥५॥

सुन्दर रक्तवर्ण की साड़ी सुन्दर स्वर्णवर्ण की अलग अलग रेखाओं से विभूषित है, जो कि कमर की करधनी से बंधी है। “किस प्रकार मोहित न करे” इस युक्ति से (जैसे वह आपके अतुल्य मोहनकला को व्यवस्थित कर रही) ही वह पतले कमर पर स्थित है। तथापि वह (सौन्दर्य) दैत्यों हेतु सर्वमोहिनी सी होकर उनको समाप्त करने हेतु स्थित है।

सुपुण्डरीकपाण्डरप्रभाप्रलिप्तपुष्पिते
वरप्रभाऽस्रनाडिरोष्ठपक्वकुन्दकञ्चिते।
मरालमूर्त्तिसन्धिषु तलेषु पाटलप्रभे
स्मरान्तकस्य कामिनि त्वयैकया हि मोहितः॥६॥

आप सुन्दर श्वेतपद्म के समान कान्ति से खिली हुईं हैं। आपके देह में रक्त की जो धमनियाँ हैं, वे लाल रंग की तथा आपके ओष्ठ पके हुए लाल कुन्दरू के फल के समान चमक रहे हैं। कोमल अंगों की संधियाँ तथा हाथपैरों के तल लाल प्रभा लिये हुए हैं। हे कामदेव को समाप्त करने वाले की कामिनि! उन शिव को मात्र तुम ही मोहित कर सकती हो।

अनेकमुण्डभूषिते मलीनभस्मलेपिते
दिगम्बरे हृदस्थले कदम्बकुञ्जवासिनि।
विभिन्नरत्नकुण्डलद्वयेन चुम्बितेश्वरि
स्तुवत्यजस्तयोर्विधी समानरूपणेच्छया॥७॥

अनेक मुण्डों की माला से आभूषित, मलीन भस्म लिप्त तथा खुले हुए हृदय में कदम्बकुंज की रहने वाली का स्थान है। विभिन्न रत्नों से युक्त दो कुण्डलों से चुम्बित कपोल वाली! भगवान् शिव भी स्वयं कुण्डल ही बनने की इच्छा से उन दोनों कुण्डलों के भाग्य की प्रशंसा करते हैं।

सुवर्णहारमालया विभिन्नपुष्पजातिभिः
नगद्वयोन्नतस्तनौ विभूषितौ स्रजा तथा।
भ्रमेऽमराश्च नासिकाकलापहेमहायनैः
लषन्त्यनुष्णतामतेदवीक्षणे मनोरमे॥८॥

स्वर्ण के हारों से तथा अनेक पुष्पजातियों से पर्वत के समान उन्नत दोनो स्तन विभूषित हैं। देवता आपकी सुवर्णनथ के प्रकाश से भ्रमित से हैं। वे इच्छा करते हैं कि यदि इसका प्रकाश किंचित् न्यूनता को प्राप्त हो जाए तो वे आपके मनोरम मुख को देख पाएं।

तुषारपर्वतोद्भवमृगेन्द्रपीठसंस्थिते
समस्तदैत्यनाशकाप्रफुल्लगर्भगर्विते।
नितम्बभारधारणासमर्थभूतमीक्षितो
वहाम्यहं प्रमोददृश्यमीक्षिते स्मितेश्वरि॥९॥

हिमालय के द्वारा (हिमवान् वाहनं सिंहमिति दुर्गासप्तशती) उत्पन्न सिंह के पृष्ठ में बैठीं! आपका संकुचित गर्भ ही समस्त दैत्यों का नाशक (पुत्रों को उत्पन्न करने वाला) है, जिसपर आपको सदा अभिमान है। (आपके) नितम्बों के भार को सहने में पृथ्वी को असमर्थ देखकर “मैं ही इसे ढोता हूँ” इस भाव से आनन्दित सिंह के आनन्द को देखकर आपके मुख में भी मुस्कान प्रकट है।

अनेकपुष्पपांसुभिः युजन्ति रक्तचन्दनै-
-रलक्तमङ्घ्रिलेपनं रजन्ति किङ्करास्तव।
उदीक्ष्य तं भयेऽनुधावमानदैत्यसङ्कुल-
-स्त्वधीथ दैत्यबान्धवास्रबिन्दुरञ्जनेश्वरि॥१०॥

आपके दास आपके चरणों हेतु अनेक पुष्पपरागों से तथा रक्तचंदन से आलता बनाकर आपके चरणों का लेपन कर रहे हैं। उसे देखकर दैत्यों का समूह भयभीत होकर भागने लगता है। उस आलता को वे अपने बान्धवों का रक्त समझने लगते हैं, जिससे आपके चरण रंगे हैं।

योगीपुरे शुभपुरे नितरां स्थितां यां
नौमीति भावभविके पटले स्थितोऽहम्।
दृष्ट्वाऽङ्गणे प्रतिनिधिं तव दीप्यमानं
श्लोके स्तुतिं तव मुदा भव लोचनेशि॥११॥

योगीपुर (जोगीपुर) नामक सुन्दर पुर में जो देवी स्थित हैं, उनको बारंबार नमस्कार है, इस शुभ भावसमूह में मैं स्थित हूँ। आपकी दीप्तिमती मूर्ति को आपके भवन में देखकर आपकी स्तुति की रचना कर रहा हूँ। हे लोचनेशी (लोचनेश्वरी)! तुम प्रसन्न हो जाओ।

॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा कृता श्रीलोचनेश्वरीस्तुतिः॥

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