॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

जिस प्रकार सिंह शावक की माता अपने पुत्र के ऊपर भय जानकर तत्क्षण उसके निकट आ जाती है, तथा एव भगवती इन वज्रदंष्ट्रा कही जाने वाली वसंत तथा शरद ऋतुओं में अपने पुत्रों की रक्षा हेतु उनके सन्निकट आ जाती है। आश्विन में हस्तयुक्त नन्दा तिथि में वेदी आदि निर्माण करके नक्तादि व्रतपूर्वक देवी की प्रतिमा स्थापित करके त्रिकाल पूजन का विधान है। इस पूजन में कुमारी पूजन का भी बड़ा महत्व है। आइये हम इसी कुमारिका पूजन के विधान के विषय में चर्चा करें।

कुमारिका पूजन या तो एक ही कन्या का प्रतिदिन हो, किंवा प्रतिदिन दुगुण तिगुण में बढ़ते क्रम की संख्या से हो या प्रतिदिन नौ-नौ कुमारियों की पूजा हो। देवी के पूजन में कदापि धन की कृपणता न करे। पूरी श्रद्धा से कुमारियों का पूजन करें। कृपणता न तो विप्रों हेतु ही करें, न कुमारियों हेतु।

“प्रातर्नित्यं पुरः कृत्वा द्विजानां वरणं ततः।
अर्घ्यपाद्यादिकं सर्वं कर्तव्यं मधुपूर्वकम्॥१४॥
वस्त्रालङ्करणादीनि देयानि च स्वशक्तितः।
वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं विभवे सति कर्हिचित्॥१५॥
विभवस्यानुसारेण कर्तव्यं पूजनं किल।
वित्तशाठ्यं न कर्तव्यं राजञ्छक्तिमखे सदा॥३९॥”

– श्रीमद्देवीभागवत ३|२६

किन कन्याओं का वरण करें?

जिस प्रकार तत्वज्ञ ब्राह्मण के वरण से ही यज्ञ की सिद्धि होती है। हर ब्राह्मण पात्र नहीं होता, तथैव इन कुमारियों के भी पात्रताचिह्न हैं। कन्या की आयु एक वर्ष से अधिक ही हो। क्योंकि एक वर्ष से पूर्व की कन्या के मुख में स्वादुशक्ति का अंकुरण नहीं हुआ रहता।

“कुमारिका तु सा प्रोक्ता द्विवर्षा या भवेदिह।
त्रिमूर्तिश्च त्रिवर्षा च कल्याणी चतुरब्दिका॥४१॥
रोहिणी पञ्चवर्षा च षड्वर्षा कालिका स्मृता।
चण्डिका सप्तवर्षा च अष्टवर्षा च शाम्भवी॥४२॥
नववर्षा भवेद्दुर्गा सुभद्रा दशवार्षिकी।
अत उर्ध्वं न कर्तव्या सर्वकार्यविगर्हिता॥४३॥”

– श्रीमद्देवीभागवत ३|२६

स्पष्ट है कि कुमारिका की श्रेणी की कन्याएं २ वर्ष की होती हैं। तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की कालिका, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नव वर्ष की दुर्गा तथा दस वर्ष की सुभद्रा कहलाती है। इससे अधिक वर्ष की आयु की कन्याएं पूजा हेतु पात्र नहीं।
कुमारी के पूजन से दुःख दारिद्र्य का नाश, शत्रुक्षय, बल, आयु तथा धन की वृद्धि होती है। त्रिमूर्ति की पूजा से वंश, धर्म, अर्थ, काम आदि की वृद्धि होती है। कल्याणी की पूजा से विद्या, विजय, राज्य तथा सुख की प्राप्ति होती है। चण्डिका की पूजा से धन तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। शाम्भवी की पूजा से सम्मोहन क्षमता, दुख-दारिद्र्य नाश, संग्राम विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा की पूजा से क्रूर से क्रूर शत्रु का नाश होता है। उग्र कर्मों की सिद्धि, तथा परलोक की प्राप्ति भी दुर्गा की पूजा से होती है। सुभद्रा की तथा रोहिणी की पूजा से रोगनाश तथा सर्वसिद्धि की प्राप्ति होती है।

“हीनाङ्गीं वर्जयेत्कन्यां कुष्ठयुक्तां व्रणाङ्किताम्।
गन्धस्फुरितहीनाङ्गीं विशालकुलशम्भवाम्॥१॥
जात्यन्धां केकरां काणीं कुरूपां बहुरोमशाम्।
सन्त्यजेद्रोगिणीं कन्यां रक्तपुष्पादिनाङ्किताम्॥२॥
क्षामां गर्भसमुद्भूतां गोलकां कन्यकोद्भवाम्।
वर्जनीयाः सदा चैताः सर्वपूजादिकर्मसु॥३॥”

– श्रीमद्देवीभागवत ३|२७

दस वर्षाधिक वर्ष की कन्याओं के साथ ही ऐसी कन्याएं जो विकलांगी हो, कुष्ठ तथा घाव युक्त हो, जिसके देह के किसी अंग से गंध आती हो, विशाल कुल में उत्पन्न, जन्म से अंधी, तिरछी नज़र देखने वाली, कानी, कुरूप, अत्यधिक शारीरिक केशों (रोमों) वाली, रोगी, जिसका रजोधर्म प्रारम्भ हो चुका हो, अत्यंत दुर्बल, समय से पहले ही जिसका जन्म हो गया हो, विधवा से जिसका जन्म हुआ हो, कम आयु वाली कन्या माता से जिसका जन्म हो गया हो, इन कन्याओं को भी अपात्र कहा गया है।

कैसी कन्याओं का वरण करें? जैसे पूर्व में बताया गया, उपरोक्त चिह्नों से मुक्त तथा २ वर्ष से १० वर्ष की आयु तक की रोगरहित, सुन्दर अंगों वाली, सुन्दरी तथा अच्छे कुल (एक ही वर्ण के माता पिता से उत्पन्न) की कन्या ही ग्राह्य है।

किन किन वर्णों/जातियों की कन्याओं का पूजन किया जाये?

“ब्रह्माणी सर्वकार्येषु जयार्थे नृपवंशजा।
लाभार्थे वैश्यवंशोत्था मता वा शूद्रवंशजा॥५॥
ब्राह्मणैर्ब्रह्मजाः पूज्या राजन्यैर्ब्रह्मवंशजाः।
वैश्यैस्त्रिवर्गजाः पूज्याश्चतस्रः पादसम्भवैः॥६॥”

– श्रीमद्देवीभागवत ३|२७

स्पष्ट है कि समस्त कार्यों की सिद्धि के लिये ब्राह्मण कुल की कन्या, विजय हेतु क्षत्रीय कुल की कन्या, लाभ हेतु वैश्यकुल की तथा शूद्र कुल की कन्या की पूजा निर्दिष्ट है। ध्यातव्य यही है कि कन्या वर्णसंकरी (भिन्न जातियों के माता पिता से उत्पन्न) न हो। ब्राह्मण साधक हेतु केवल ब्राह्मण वंश की कन्या ही पूज्य है। क्षत्रीय हेतु क्षत्रीय तथा ब्राह्मण वंश की कन्या, वैश्य हेतु ब्राह्मण, क्षत्रीय तथा वैश्य वंश की कन्या तथा शूद्र हेतु चारो वर्णों की कन्याएं पूज्य हैं।

प्रतिदिन यथाशक्ति पूजन आवश्य है। यदि प्रतिदिन नहीं तो अष्टमी तिथि में अवश्य पूजन करें (अतोऽष्टम्यां विशेषेण कर्तव्यं पूजनं सदा।)। यदि प्रतिदिन पूजन करें तो अष्टमी को विशेष पूजन करें। यदि प्रतिदिन उपवास का सामर्थ्य न हो तो सप्तमी, अष्टमी, नवमी का उपवास करें, इन तीन तिथियों में ही सारे अनुष्ठान करें।

“पूजाभिश्चैव होमैश्च कुमारीभोजनैस्तथा।
सम्पूर्णं तद्व्रतं प्रोक्तं विप्राणां चैव भोजनैः॥१४॥”

– श्रीमद्देवीभागवत ३|२७

पूजा, होम, कुमारी पूजन-भोजन तथा ब्राह्मण भोजन कराने से ही यह नवरात्र व्रत पूर्ण होता है।

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