॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

ख्वाब में आकर कन्हैया क्यूँ सताते हो?
जो जगूँ तो यूँ ही कैसे भाग जाते हो?
रुक के पल भर देख लो रे ऐ मेरे ज़ालिम
राधिका के नाम की आँसू बहाते हो।
ख्वाब में नित ही लबों को चूम जाते हो।
असलियत में क्या पता किसको लुभाते हो।
सूखती झीलों पे जैसे ओस की बूँदे
क्यूँ गिराते हो कन्हैया क्यूँ सताते हो।

रात को यूँ ही गवाँ तुम क्यूँ डराते हो?
सौतनों संग रास कर कर क्यूँ जलाते हो?
सुर्ख़ से लब को लगा बंशी पे यूँ निशदिन
सौत के सीने के कुंकुम को छुपाते हो?
नेक किस्सों को सुनाते क्यों जिलाते हो?
क्यों हँसी की बेड़ियों से बाँध जाते हो?
आँख की होंठों के रस की डाल जंज़ीरें
दुश्मने दिल यूँ शराफत भूल जाते हो।

आ रहा कहकर यक़ीं को तोड़ जाते हो।
बोर कर कुछ इश्क में यूँ मोड़ जाते हो।
यूँ ही माथे को सँटा सीने से रातों में
ज़ाम को आधा चटाकर छोड़ जाते हो।

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