लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
करक चतुर्थी या करवा चौथ के नाम से यह बड़ा ही प्रचलित व्रत है जो वर्ष से चतुर्थीव्रतों में से एक है। इस दिन सौभाग्य की अक्षरता हेतु स्त्री भगवान् गणपति की पूजा करती है। आधुनिक काल में इस व्रत में भी विविधता परिलक्षित होती है अतएव इस लेख को लिखने का उद्देश्य सिद्ध है। स्त्रियाँ उन विविधताओं के कारण भ्रमित हो जातीं हैं किन्तु उनके मन में यह भाव भी होता है कि उनसे व्रत में कोई दोष न हो।
आधुनिक समय में फिल्मों से आयी कई प्रथाएं जैसे चलनी में दीपक रखकर पति को तथा चंद्र को देखना आदि प्रचलित हैं जिसके कोई शास्त्रीय प्रमाण प्राप्य नहीं हैं। धर्म को इससे कोई हानि नहीं अतएव, यह व्रत की परंपरा से मुक्त कृत्य है ऐसा समझकर इस कृत्य को करने में कोई दोष नहीं। तथापि इस एक कृत्य को करके मुख्य शास्त्रोक्त कृत्य को न करना दोष है। आइये देखें कि शास्त्रों में इस व्रत का कैसा विधान है।
नारद पुराण तथा वामन पुराण में इसका वर्णन प्राप्त है। नारदपुराण के पूर्वार्ध ११३वें अध्याय में विनायकादि वर्षपर्यन्त के चतुर्थी व्रत विषय में सनातन ऋषि इस व्रत का भी वर्णन करते हैं।
“कपर्दिगणनाथोऽसौ प्रीयतां तैः समर्पितैः।
– नारद पुराण, पूर्वार्ध, अध्याय ११३
चतुर्थ्यां कार्तिके कृष्णे करकाख्यं व्रतं स्मृतम्॥४३॥
स्त्रीणामेवाधिकारोऽत्र तद्विधानमुदीर्यते।
पूजयेच्च गणाधीशं स्नाता स्त्रीसमलंकृता॥४४॥
तदग्रे पूर्णपक्वान्नं विन्यसेत्करकान्दशः।
समर्प्य देवदेवाय भक्त्या प्रयतमानसा॥४५॥
देवो मे प्रीयतामेवमुच्चार्य्याथ समर्पयेत्।
सुवासिनीभ्यो विप्रेभ्यो यथाकामं च सादरम्॥४६॥
ततश्चंद्रोदये रात्रौ दत्त्वार्घं विधिपूर्वकम्।
भुञ्जीत मिष्टमन्नं च व्रतस्य परिपूर्तये॥४७॥
यद्वा क्षीरेण करकं पूर्णं तोयेन वा मुने।
सपूगाक्षतरत्नाढ्यं द्विजाय प्रतिपादयेत्॥४८॥
एतत्कृत्वा व्रतं नारी षोडशद्वादशाब्दकम्।
उपायनं विधायाथ व्रतमेतद्विसर्ज्जयेत्॥४९॥
यावज्जीवं तु वा नार्या कार्य्यं सौभाग्यवांछया।
व्रतेनानेन सदृशं स्त्रीणां सौभाग्यदायकम्॥५०॥”
अर्थात्, कार्तिक मास के कृष्णचतुर्थी पर करकव्रत में केवल स्त्रियों का अधिकार है। अन्य व्रतों को सभी रखते हैं किन्तु इस व्रत में स्त्रीमात्र को आदेश है। उस दिवस स्नान तथा श्रृंगार करके भगवान् गणेश की पूजा करनी चाहिये (वटपत्र में गणपति, पार्वती, शिव, कार्तिकेय बनाकर)। पूजन में पके हुए अन्न को दस करकों में रखकर भगवान् गणपति को समर्पित करना चाहिये तथा उन करकों का विप्र या सुवासिनियों को दान कर देना चाहिये। रात्रिकाल में चन्द्रोदय के उपरान्त भगवान् चन्द्र को अर्घ्य देकर मिष्ठान्न से व्रत की पारणा करनी चाहिये। इस व्रत को स्त्री चाहे तो १६ किंवा १२ आवृत्ति के पश्चात् उद्यापित कर दे या सौभाग्याभिवृद्ध्यर्थ जीवनपर्यन्त निर्वाह करे, यह उसकी इच्छा होगी।
व्रतराज में भी इस व्रत का वर्णन है जहाँ वामन पुराण से संदर्भ लिया गया है (वर्तमान में ये संदर्भ वामन पुराण में उपलब्ध नहीं) जिसमें अर्जुन का इंद्रकील पर तपश्चर्यार्थ निवास तथा उनकी रक्षा हेतु भगवान् श्री कृष्ण से सुनकर द्रौपदी का इस व्रत को करने की कथा वर्णित है। जिसमें कि शिवपार्वती संवाद में वीरावती तथा शची से सम्बद्ध कथा वर्णित है। इस व्रत के प्रभाव से ही अर्जुन को विजय की प्राप्ति हुई “श्रीकृष्णस्य वचः श्रुत्वा चकार द्रौपदी व्रतम्। तद्व्रतस्य प्रभावेण जित्वा तान् कौरवान् रणे॥”।