प्रणेता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
असितवपुरिवाञ्जनां प्रमीता-
-जिरचरणामथरिप्रभाविदीप्ताम्।
क्षणनुजशिरभित्तिशुक्तितृप्तां
वसनविरागतनुं प्रणौमि नर्याम्॥१॥
कज्जल के समान काले शरीर वाली, मृत देह पर चरण रखी हुई तथा चारो ओर धधकती ज्वाला से दीप्त, कपाल में रक्त को भरकर पीती हुई तृप्ति प्राप्त करने वाली तथा नग्न देह, अतुलित शौर्य वाली कालिका को नमन करता हूँ।
असिस्रुतरसपिञ्जिताङ्घ्रिबुध्नाम्
इलति रिपूनवनौ स्वचिह्नगत्या।
धरणिनितलप्रावृषेण्यभावां
चिकुरप्रवाहितरक्तबिन्दुवर्षाम्॥२॥
तलवार से बहते रक्त से रंगे हुए पादतलों वाली को प्रणाम करता हूँ जो भूमि पर अपने रक्तरंजित चरण चिह्नों से दैत्यसमूह को बिखेर रही हैं, डरा रहीं हैं। जिन्होंने अपने रक्तरंजित केशों के प्रवाह से रक्त की वृष्टि कर पृथ्वी पर वर्षाऋतु के समान स्थिति उत्पन्न कर दी।
भरतबलिदिने कथं त्वमीशि
ततरसनाऽङ्गमुखाट्टहासभद्रा।
विरहितनयने निरीक्ष्य भक्त-
-रुचिवसना करुणाऽरुणाऽरणाङ्गी॥३॥
हे देवि! भरत जी के बलि पर्व पर आपने कैसी लीला रची थी। (आपकी मूर्ति की) लम्बी जिह्वा तथा अट्टहास करता मुख था। किन्तु भरत जि के अकिंचन नेत्रों को देखकर आपने भक्त की रुचि अनुरूप वस्त्रादि धारण करके करुणामय नवोदित सूर्य के समान तथा शांत स्वरूप धारण कर लिया।
महिषशिवविरावरीयमाणा
करुणसमित्यवहारिका शरण्या।
त्रिविध उपदृशश्च तं गृहीत्वा
चरणनिशान्तमिवेप्सितं ददातु॥४॥
भगवान् शिव के ही स्वरूप महिष नामक दैत्य के करुण स्वर को सुनती हुई उसे करुणाकुल का दान करने वाली, उसे अपने तीन स्वरूपों में स्वीकार करने वाली आप उस दैत्य के समान ही अपने चरणों में आश्रय दें। यही कामना है।
मृधतटधुतजूटचण्डवेगा-
-सुरप्रवरव्यथनं स्वयं मुकुन्दम्।
हिमगिरितनयं तवासितव्यं-
करुणमयः सृज बान्धवं सुरेशि॥५॥
रण भूमि में अपने कण्ठ के केशों को हिला हिलाकर तथा अपनी प्रचण्ड गति से असुरवंश को भयभीत करने वाले जो स्वयं भगवान् विष्णु हैं, जो हिमालय के पुत्र हैं तथा आपके बैठने योग्य आसन हैं, हे सुरेशी! आप अपने उस भाई को हमपर दया करने वाला बना दें।
जलधरस्तननासितान्तरिक्षां
रिपुदलवज्रतडित्प्रवाहवर्षाम्।
इवकरुणमये नमामि भक्ते
करुणतरस्य रसस्य तत्सचित्रीम्॥६॥
आपके गरजते मेघों के समान स्वरूप को नमस्कार करता हूँ जो समस्त आकाश में कृष्ण वर्ण को प्रेरित कर रहा है। उस स्वरूप को नमन करता हूँ जिससे आप काले आकाश से मेघों की भांति दुष्टों पर वज्रदामिनियों की वृष्टि करतीं हैं तथा मेघों के ही करुणमय स्वरूप से आप भक्तोम पर करुणा से भरे रस की वर्षा करती हैं। मैं आपके इन दोनों (रौद्र तथा करुण) स्वरूपों को नमन करता हूँ।
जननिशिशुमिव प्रवृश्य दुग्धं
वसननिशां कुचचन्द्रतोयतुष्टिम्।
यमवृजिनकरालकालरूपां
दहनदृशां नवशर्वरीं नतोऽस्मि॥७॥
जिस प्रकार एक माता अपने शिशु को अपने वस्त्र से आच्छादित करके अपना दुग्ध पिलाती है, तथैव आप भी रात्रि रूपी वस्त्र से अपने संतानों को ढँककर चन्द्ररूपी स्तनों से अमृत का पान कराकर तुष्ट करतीं हैं। मैं आपका नमस्कार करता हूँ। यम रूपी काले केश से युक्त तथा अग्निरूपी नयनों वाली, नव रात्रियों की स्वरूपिणी, आपके समक्ष मैं नत हूँ।
तव वसुमयपादपांसुश्लक्ष्णे
रचयति विश्वविपर्ययं विरिञ्चः।
अरिमधुरिपुरात्मभूर्मृडश्च
तव कृपया हि बलान्विताः सुरेशि॥८॥
आपके रत्नों से अलंकृत एक ही चरण के धूलिकण से ही विधाता इस समस्त संसार प्रपञ्च की रचना कर देते हैं। हे देवेशी! भगवान् विष्णु, ब्रह्मा तथा भगवान् शिव भी आपकी कृपा से ही समस्त सामर्थ्यों से पूर्ण होते हैं।
पशुपतिशकलाऽमृताब्धिकन्या-
-कुमुदवरा कवयश्च कूज्यमानाः।
किमपि न च चिकेमि षुश्च तासां
श्रुतिविकलस्य प्रसूस्थलं पिपूर्हि॥९॥
कवियों के माध्यम से आप भगवान् शिव की अर्धांगिनी, क्षीरसमुद्र की कन्या तथा पद्मस्था शारदा कही गईं हैं। हे देवि! आप ही इन सबकी जननी भी कही गई हैं। (इन सब बातों को सुनकर मुझ) श्रुतियों से भ्रमित की माता के रिक्त स्थान को पूर्ण करें। मैं और कुछ नहीं जानता।
अयि जरठहथाविदारकाङ्गि
स्फुरितकपालस्रजेऽट्टहासकर्त्रि।
दृढ़पदहनने ऋतीयतां त्वं
मयि कितवेऽतिरतिं महोत्पलस्य॥१०॥
हे पृथ्वी पर कठोर चरणों से चलती हुई मानो पृथ्वी को ही ध्वस्त करने की क्षमता से पूरित जगदम्बिके! चलने के कारण आपके गले में कपाल की माला हिल सी रही है। हे अट्टहास करने वाली! अपने दृढ़ चरणों से दुष्टों का हनन करने वाली आप मेरी रक्षा करें तथा मेरे इस धूर्त मन में आपके चरणकमल के प्रति प्रगाढ़ प्रीति का अंकुरण करें।
॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा विरचितं कालिकालास्यं सम्पूर्णम् ॥