॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

रे संगी काखर बर गुसियावौं
देख हमर काया माटी के अपने दुःख भोगै थारी के।
गोड़ मा गिर गै हाँथ के कुदरी काबर नइ चिल्लावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
हाथ गोड़ मा देव बसे हें अपने दे ला भोग रहे हें।
खजरी पीरा हाथ गोड़ मा मैं कइसे कहिलावौ,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
सबके भीतर ओही विधाता ओही सुख अउ दुःख के दाता।
मार खवइया मार मरइया सुनौ रे बेद बतावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
रास बरग के गिरहा गोचर बइठे हें दुःख सुख देये बर।
जनम मरन तक हे सब चक्कर एक बात पतियावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
सुकुरदुम्म रहि जाहौ सुन के किस्सा ला अंतस के गुन के।
बिना छुआए बइठे राम हा सुनौ रे भाइ सुनावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
करम मरम के लेख रे भइया जनमइया बर लिखै लिखइया।
अंतस के प्रानी ला सुख दुःख करम न देवै गावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
ओ प्रानी के रूप काल के मनखे मन बर मूह ब्याल के।
हवा हवा ला नइ उड़वावै देखा मैं ह देखावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥
दुःख सुख मन संसार के सग अस काया बस हा फँसे हे खग कस
अंतस मा बइठइया उड़ावै जान के मैं गोहिरावौं,
संगी काखर बर गुसियावौं॥

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