॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   प्रणेता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

महाकुण्डितातण्डमार्त्तण्डदीप्तां
बृहद्भानुसंतप्तमुण्डस्रजाङ्गीम्॥
जटाकञ्चितक्लान्तराज्ञा विरक्तां
मुदां ज्वालपां नौमि संरावकर्त्रीम्॥१॥

जिनकी कान्ति भयंकर ज्वालाओं से घिरे हुए तथा (अपने किरणों से) प्रहार कर रहे सूर्य के समान है। जिनके गले पर अग्नि से संतप्त मुण्डमाला है। जिनकी जटा में चन्द्रमा विराजमान होकर उन्हें शांत करने का परिश्रम कर रहे हैं किन्तु विफल हो जा रहे हैं। उन अट्टहास करने वाले आनन्दित ज्वालपा देवी को मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥

करे दष्टमुण्डस्रुतं खर्परेण
धयन्तीं स्थलन्तीं नटन्तीं चरन्तीम्।
क्षणे घोररूपां क्षणे दैवतेशीं
नमाम्यातुराणां रुजां रुग्णकर्त्रीम्॥२॥

जिनके हाथ में कटा हुआ सिर है तथा जो उस कटे सिर से बहते रक्त को खप्पर के माध्यम से पीतीं जा रहीं हैं। कभी रुकतीं हैं, कभी नृत्य करतीं हैं, कभीं चलने लग जातीं हैं। क्षण में भयंकर रूप बना लेतीं हैं तथा क्षणमात्र में देवताओं को वर देने वाली कारुण्यरूपा हो जातीं हैं। मैं रोगियों के हर प्रकार के रोगों को समाप्त करने वाली उन देवी को नमस्कार करता हूँ॥२॥

सितोक्ष्णि स्थितां श्रेयसाङ्गां त्रिशूलां
स्मितां रक्तवस्त्रां शुचिश्वेतवक्त्राम्।
वृषेष्टां ककुल्लालनानन्ददात्रीं
तवस्तुत्यशेषां कथं नौमि नित्यम्॥३॥

श्वेत बैल पर बैठने वाली, वरद हस्त वाली तथा त्रिशूल ली हुई, हँसती हुई, श्वेत शरीर तथा लाल वस्त्र वाली, वृष की हित करने वाली तथा उसके कूबड़ का लालन करके उसे आनन्द देने वाली को मैं नमस्कार करता हूँ। तुम्हारी कभी भी समाप्त न होने वाली स्तुति को मैं कैसे गाऊँ॥३॥

महामूषोपस्थाग्रजजनकवामाङ्गसदनां
महाऽभ्रभ्रान्ताण्डास्रजटितजटापीठमुदिताम्।
सुराणामामोदं दितितनुजहन्त्रीमभयदां
महाकालीं वेद्मि चरणमभिमव्यामि शिखरे॥४॥

जो नित्य ही महामूषक पर विराजमान गणेश तथा कार्त्तिकेय के पिता शिव के वामाङ्ग में रहतीं हैं। जो आकाश में विचरण करने वाले गोल सूर्य की किरणों के समान जटा वाले (सिंह) के ऊपर मुदित होकर बैठतीं हैं। देवताओं को आनन्द तथा अभय देने वाली तथा दैत्यों को समाप्त करने वालीं हैं। मैं उन महाकाली का मनन करता हूँ तथा उनके चरणों को अपने मस्तक में ऐसा धारण करता हूँ कि वह छूट न सके॥४॥

मरीचेः दायादतनयवनिताऽभीप्सितवरां
सुभद्रासूनुस्त्वद्दिविषदिशि तच्छाङ्करमतम्।
शुभां ज्वालां पुष्टामवगुणसुप्रुष्टां क्षयकरां
नमाम्येतज्ज्ञात्वा दहतु मम पापानि शुभदे॥५॥

आप मरीचि पुत्र कश्यप के द्वारा उत्पन्न इन्द्र की पत्नि शची को (इन्द्र रूपी पति का) अभीप्सित वर देने वाली हैं। हे देवताओं की ईश्वरी! आपके द्वारा ही सुभद्रा के पुत्र शंकराचार्य को ऐसी बुद्धि की प्राप्त हुई। मैं उन शुभस्वरपा, ज्वाला, पुष्टा, अवगुण को भस्म करने वाली तथा प्रलय करने वाली को (पाप को समाप्त करने वाली) जानकर नमन करता हूँ। हे शुभ देने वाली! आप मेरे पापों को जलाकर भस्म कर दें॥५॥

॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा कृतः कालीज्वालपास्तवः ॥

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