॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – पं. श्री महेश शर्मा
   (भागवत प्रवक्ता, शास्त्र अध्येता, लेखक)

वृषभानु सुता ने शृंगार कियो, कब दैखेंगे मोहे वो नंद लला।
इक बार चली जब सज धज के पथ बीचि मिले उन्हे बाल सखा।
अब सोच रहीं की न देखैं हमें, मुख अंचल ढाँक रहीं वो लजा।
जब देखा नही नंद नंदन ने उर बीच उठी अति व्याकुलता।
हमने तो शृंगार किये तन पे कहीं देखेंगे नेक पियारे सखा।
पर आयी जो सामने प्यारी अली, तब सौतन को निज अंग धरा।
मन मोहन ने मन जान सखी, कर बाँसुरी लै अधरों पे रखा।
जब वेणु की नाद पड़ी हिय में, तब अंचल चेतन होके उठा।
सुन राधे की अंतस कामना को, शृंगार तके राधा रमणा।

राधा रमण स्वरूप हैं मिलित श्याम श्री अंग।
भगतन खातिर ठाड़े हैं प्रिया लाल जू संग॥
होरी में मेरे लाल जू सकल आपदा भंग।
जबसे नैन मिले प्रियतम में रंग गयी तेरे रंग॥

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