॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   प्रणेता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

शिवसङ्गमुदाङ्करतं सुरतं
नटराजनटं नृतुयूथमुखम्।
सुकृतेर्निकरं इतिख्यातिमयं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥१॥

“जो भगवान् शिव के गोद में बैठे बड़े आनन्दित हैं। जो कि नटराज के पुत्र तथा नटियों के समूह के भी मुख्य हैं। जो सुकृति के घर के रूप में प्रसिद्ध हैं, अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

विबुधाधिपतिं स्वधितिं भिदुरा-
-मरिवृत्रविदूषकशूरवरम्।
नवचण्डवितण्डविहङ्गरुचं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥२॥

“जो विबुधों के भी अधिपति हैं तथा जो तीक्ष्ण परशु को धारण करते हैं। जो शत्रुभय को समाप्त करने वाले वीरशिरोमणि हैं तथा जिनकी छवि नव उदीयमान सूर्य के समान है, अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

गिरिशाङ्गप्रभाऽङ्गभवं शुभदं
खनकासनमग्र्यवरं प्रमदम्।
विधुसम्भ्रमभ्रष्टकरं कलिलं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥३॥

“वे भगवान् शिव की अङ्गप्रभास्वरूपिणी श्रीपार्वतीजी के अङ्ग से उत्पन्न, समस्त शुभों के दाता, मूषकवाहन, सर्वथा अग्र रहने वाले, परमानन्दस्वरूप, चन्द्रमा के गहन मद को समाप्त करने वाले हैं। अरे चित्त! तूं यहाँ नित्य उन गणों के अधिपति, गणपति का स्मरण कर।”

चतुरं चतुराङ्गमयं कुटितं
शशिश्वेतयशं यशसिद्धिप्रियम्।
रवप्रीतिमतिं शितिपिङ्गदृशं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥४॥

“जो चतुर, चार हाथ वाले तथा वक्री हैं। जो चन्द्रदेव के समान श्वेतवर्ण के, सदा यश तथा सिद्धि देने वाले हैं, जिन्हे संगीत अति भाता है तथा जो भूरे रंग के नेत्रगोलक वाले हैं, अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

जगदण्डकरण्डपिचण्डधरं
पृषदश्वविधूनकशब्दग्रहम्।
कमटावयवं द्विपशुण्डगुरुं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥५॥

“मधुकर के जाल सा यह जगत् जिस उदर में स्थित हो जाए, वे ऐसे जठर के स्वामी हैं। वायुदेव को आन्दोलित कर रहे कानों वाले, छोटे छोटे अंग वाले तथा हाथी के शुण्ड को धारण करते हैं। अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

दशषड्युगयुग्मशयानुयुतं
हरिदीप्यवृकाभिगतं सुभगं
प्रथमाद्ययुगाच्चकलेर्विमलं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥६॥

“कभी जिनके दस, कभी छः, कभी युगसंख्यात्मक चार तो कभी दो हाथ होते हैं। कभी जो सिंह पर, कभी मयूर पर तथा कभी मूषक पर विद्यमान हो जाते हैं। ऐसे जो सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा कलयुग में जिनके सुन्दर स्वरूप हैं, अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

परिदीर्णपदोन्नतश्रोणिवपो-
-दरतुन्दिलितस्तनकण्ठमयम्।
भरबाहुप्रसव्यरदामुसितं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥७॥

“जिनका फूला हुआ पैर, चौड़ा कमर, बड़ा पेट तथा जिनके स्तन तथा गला भी फूला हुआ है। जिनके भारी हाथ हैं तथा जिनका अपसव्य दन्त टूटा हुआ है, अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

न हि मित्रकलत्रसगोत्रशुभा-
-स्तव शक्तिरितस्तरणाय भवे।
गणनाथमनाथपतिं प्रगुणं
स्मर रे इह चित्त गणाधिपतिम्॥८॥

यहाँ तुझे इस समुद्र से तारने हेतु कोई मित्र, पत्नि, भाईबन्धु कोई नहीं हैं जिन्हें तूँ अपनी शक्ति कहे। वे गणनाथ अतिसरल तथा अनाथों के नाथ हैं अतः अरे चित्त! तूँ उन गणपति का स्मरण कर।”

॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणाविरचितं गणपतिमदनं सम्पूर्णम् ॥

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