॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण क्यों होता है, यह तो आप सब सुने ही हैं। इस विषय पर चर्चा न करते हुए सीधे आवश्यक विषयों पर आते हैं। पहले तो हमें यह ज्ञात हो कि ग्रहण दिखे, तभी मान्य होगा। विभिन्न पंचांगों में विभिन्न समय देखकर कुछ जन भ्रमित होते हैं। इन विभिन्न समयों का कारण है प्रान्तीय गणना। उनके प्रान्त में ग्रहण जब दृश्य होगा, उसका वर्णन उनके पंचांग में होगा। अत्यधिक फलदायी सूर्यग्रहण रविवार तथा चन्द्रग्रहण सोमवार का होता है।

“रविवारे संक्रमश्चेदुपरागोऽथवा भवेत्।
तदा यदर्जितं पुण्यं तदिहाक्षयमाप्यते॥”

– स्कन्दपुराण ४|९|७५

“रविग्रहः सूर्यवारे सोमे सोमग्रहस्तथा।
चूडामणिरिति ख्यातस्तदानन्तफलं भवेत्॥
वारेष्वन्येषु यत्पुण्यं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
तत्पुण्यं कोटिगुणितं ग्रासे चूडामणौ स्मृतम्॥”

– व्यासस्मृति

एक ऐसी स्थिति भी होती है जब सूर्य या चन्द्र ग्रहण के सहित ही उदित या अस्त हो जाते हैं। ऐसी स्थिति को ग्रस्तोदयास्त कहते हैं। इस संयोग में लोगों के मन में पुनः अनेक प्रश्न आते हैं। आज के लेख में आप इस विषय पर भी संदेहरहित हो जावेंगे।

ग्रहण में स्नानपूजन आदि के विचार

“ग्रस्यमाने भवेत् स्नानं ग्रस्ते होमो विधीयते।
मुच्यमाने श्राद्धदानं मुक्ते स्नानं विधीयते॥”

ग्रहणारम्भ में स्नान, मध्य में होमादिक अर्चन, मुक्त होते समय दान तथा मुक्ति के पश्चात् स्नान का विधान होता है।

– शातातप स्मृति

“स्नानं स्यादुपरागादौ मध्ये होमं सुरार्चनम्।
मुच्यमाने भवेद्दानं मुक्ते स्नानं विधीयते॥”

ग्रहण के प्रारम्भ में स्नान, मध्य में होम तथा देवार्चन, समाप्त हो रही स्थिति में दान तथा मुक्तिकाल में स्नान करना चाहिये।

– हेमाद्रि, निर्णयसिन्धु

“प्रतिमा स्पर्श न कर्तव्यं पुराण पठनं तथा।
स्नानं होमं जपं दानं कुर्यादुपरागकालिके॥”

ग्रहण कालिक विधियों में प्रतिमा का स्पर्श, पुराण पठन नहीं करना चाहिये। इसके अतिरिक्त स्नान, होम, जप, दान करना चाहिये।

– पद्मपुराण?

“गङ्गास्नानं प्रकुर्वीत ग्रहणे सोमसूर्ययोः।
महानदीषु सर्वासु स्नानं कुर्याद्यथाविधिः॥”

सूर्य तथा चन्द्रग्रहण में गंगा स्नान करना चाहिये। समस्त महानदियों में स्नान किया जाये।

– महाभारत

“कुर्याद्ग्रासं सैंहिकेयस्तत्क्षणं दुर्लभं भवेत्।
सर्वं गंगासमं तोयं वेदव्याससमा द्विजाः॥”

जब ग्रहण होता है, वह काल बड़ा दुर्लभ होता है। समस्त जल गंगाजल तथा समस्त ब्राह्मण वेदव्यास हो जाते हैं।

– पद्मपुराण खण्ड ४, अध्याय १०

“ग्रहणे स्नानं च सचैलं कार्यम्। सचैलत्वं मुक्तिस्नानपरमिति केचित्। मुक्तिस्नानाभावे सूतकत्वानपगमः। ग्रहणे स्नानममन्त्रकम्। सुवासिनीभिः स्त्रीभिरशिरः स्नानं कार्यम्। शिष्टस्त्रियस्तु ग्रहणेषु शिरः स्नानं कुर्वन्ति।”

ग्रहण में वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये। कुछ विद्वानों ने सचैल स्नान को मुक्ति स्नान कहा। मुक्तिस्नान न करने पर ग्रहणाशौच से मुक्ति नहीं होती। ग्रहण स्नान मंत्ररहित होता है। सुवासिनी स्त्रियाँ शिर को छोड़कर स्नान करें। शिष्ट स्त्रियाँ ग्रहण में शिर सहित स्नान करतीं हैं।

– धर्मसिन्धु

“जाताशौचे मृताशौचे च ग्रहणनिमित्तं स्नानदानश्राद्धादिकं कार्यमेव।”

जननाशौच तथा मृताशौच में ग्रहणनिमित्त स्नानादि करना ही चाहिये।

– धर्मसिन्धु

“सूतके मृतके चैव न दोषो राहुदर्शने।
तावदेव भवेच्छुद्धिर्यावन्मुक्तिर्न दृश्यते॥”

मरण सूतक में ग्रहण में (स्नान हेतु) दोष नहीं। मुक्ति के दर्शनोपरान्त वे भी (स्नान) से शुद्ध हों।

– लिङ्गपुराण, वृद्धवशिष्ठ

“सर्वे वर्णाः सूतकेऽपि मृतके राहुदर्शने।
स्नात्वा श्राद्धं प्रकुर्वीरन् दानं शाठ्यविवर्जितम्॥”

सभी वर्ण मृतक सूतक रहते हुए ग्रहण पर स्नान करके श्राद्ध तथा कंजूसी न करते हुए दान करें।

– अङ्गिरास्मृति

“स्नाने नैमित्तिके प्राप्ते नारी यदि रजस्वला।
पात्रान्तरिततोयेन स्नानं कृत्वा व्रतं चरेत्॥
सिक्तगात्रा भवेदद्भिः साङ्गोपाङ्गा कथंचन।
न वस्त्रपीडनं कुर्यान्नान्यद्वासो विधारयेत्॥”

नैमित्तिक स्नान में रजस्वला हुई स्त्री सीधे नदी में न नहाकर किसी अन्य पात्र में जल लेकर स्नान करके अपना रजस्वलाव्रत पालन करे। वह उसी गीले कपड़े को पहने रहे। वस्त्र को वह निचोड़े भी नहीं। (स्नान के जल को भूमि पर छोड़े, जल में नहीं।)

– व्यासस्मृति

‘आदित्यकिरणैः पूतं पुनः पूतं च वह्निना।
अतो व्याध्यातुरः स्नायाद् ग्रहणेऽप्युष्णवारिणा॥”

सूर्य के प्रकाश से स्पर्शित जल को अग्नि से शुद्ध करके (गर्म करके) रोगी स्नान करें।

– व्याघ्रस्मृति

भोजन विचार

ग्रहण काल तथा सूतक के पूर्व का बना भोजन, जल आदि ग्रहण के मध्य में, सूतक में तथा बाद में अभक्ष्य हैं। सूतक तथा ग्रहणकाल में तो हर अन्न तथा जल अभक्ष्य ही है। ग्रहणकाल में जल पीने वाला पादकृच्छ्र व्रत करे। दुग्ध, तक्र, घी, तैल आदि में बने अन्न दूषित नहीं माने गए। इनमें कुश प्रक्षेप कर दें।

“आरनालं पयस्तक्रं कीलाटं घृकसक्तवः।
स्नेहपक्वं च तैलं च न कदाचित् प्रदुष्यति॥”

– मेधातिथि

“अन्नं पक्वमिहत्याज्यं स्नानं सवसनं ग्रहे।
वारितक्रारनालादि तिलदर्भेर्न दुष्यति॥”

ग्रहण में पका अन्न नहीं खाना चाहिये। स्नान कपड़ों सहित करना चाहिये। पानी, मट्ठा, आरनाल (अन्नयुक्त खट्टा दलिया) आदि उनमें तिल तथा कुश डाल देने से अशुद्ध नहीं होते।

– मुक्तावली, निर्णयसिन्धु

“सूर्यग्रहे ग्रहणप्रहराद् अर्वाग् यामचतुष्टयं वेधः। चन्द्रग्रहे तु प्रहरत्रयं वेधः। वेधे न भुंजीत। बालवृद्धातुरविषये तु सार्धप्रहरात्मको मुहूर्तत्रयात्मकोवेधः॥”

सूर्यग्रहण में चार याम (१२ घंटे पहले सूतक) तथा चन्द्रग्रहण में तीन प्रहर (९ घंटे) का वेध हो जाता है। इस बीच कुछ भी खाना नहीं चाहिये। बालक तथा वृद्ध के लिये आधा प्रहर/तीन मुहूर्त का वेध होता है।

– धर्मसिन्धु

दान विचार

“अयने विषुवे चैव ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः।
पात्रभूताय विप्राय भूमिं दद्यात्सदक्षिणाम्॥”

अयन, विषुव, ग्रहण में पात्रभूत ब्राह्मण को दक्षिणा सहित भूमि का दान करें।

– महाभारत

प्रायश्चित्त विचार

यदि इन नियमों का खण्डन हो जाये तो उचित प्रायश्चित्त की आवश्यकता हो जाती है। अतः शास्त्रों में निम्न आदेश कहे गए।

“चन्द्रसूर्यग्रहे भुक्त्वा प्राजापत्येन शुद्ध्यति।
तस्मिन्नेव दिने भुक्त्वा त्रिरात्रेणैव शुद्ध्यति॥”

चन्द्र तथा सूर्यग्रहण के मध्य खाने वाला प्राजापत्य व्रत से शुद्ध होता है। किन्तु सूतक तथा वर्जित कालों में खाने वाला तीन दिन के उपवास से शुद्ध होता है।

ग्रस्तास्त या ग्रस्तोदय ग्रहण के नियम

जब भी ग्रहण को लेकर ही सूर्य किंवा चन्द्र अस्त हो जाते हैं, उस स्थिति को ग्रस्तास्त कहते हैं। लोगों के मन में भारी विडंबना रहती है कि शुद्धि कब मानें। आइये देखें।

“ग्रस्तास्तग्रहणे कुर्यात् स्नपनं तु परेऽहनि।
तथा ग्रस्तोदये कुर्यादिति शातातपोऽब्रवीत्॥”

ग्रस्तास्त ग्रहण की स्थिति में अगले दिन (ग्रस्तास्त सूर्य हेतु अगले दिन, चन्द्र हेतु अगली रात) स्नान करें (शुद्ध हों।) ऐसा ही ग्रस्तोदय में भी करें। (ग्रस्त ही सूर्य/चन्द्र उदित हो तो वह दिन या रात पूरा अशुद्ध कहलाता है।) ऐसा महर्षि शातातप ने कहा था।

– भृगु संहिता

“ग्रस्तावेवास्तमानं तु रवीन्दू प्राप्नुतो यदि।
परेद्युरुदये दृष्ट्वास्नात्वाभ्यवहरेन्नरः॥”

यदि सूर्य अथवा चन्द्र ग्रस्त ही अस्त हो रहे हो, ऐसी अवस्था में ग्रहण रहित उदय के दर्शन के उपरान्त ही व्यक्ति स्नान (शुद्धि) का व्यवहार करे।

– धर्मसिन्धु

“सन्ध्याकाले यदाराहुर्ग्रसते शशिभास्करौ।
तदहर्नैव भुञ्जीत रात्रावपिकदाचन॥”

सन्ध्याकाल में यदि राहु सूर्य अथवा चन्द्र को ग्रहण करता हो तो उस दिन तथा वैसी रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये।

– वृद्धगार्ग्य

“अहोरात्रं न भोक्तव्यं चन्द्रसूर्य्यग्रहो यदा।
मुक्तिं दृष्ट्वा तु भोक्तव्यं स्नानं कृत्वा ततः परम्॥”

जब चन्द्र या सूर्य ग्रहण हो तब अहोरात्रपर्यन्त ही हमें भोजन नहीं करना चाहिये। इन दोनों की मुक्ति का दर्शन करके, स्नान करके ही भोजन करना चाहिये।

– विष्णुधर्मोत्तरपुराण

“चन्द्रस्य ग्रस्तोदये तु यामचतुष्टयवेधात्पूर्वं दिवा न भुञ्जीत।”

चन्द्र के ग्रस्तोदय में यामचतुष्टयवेध से पूर्व दिन में भी नहीं खाना चाहिये।

– धर्मसिन्धु

स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में विमुक्त चन्द्र अथवा सूर्य के दर्शनोपरान्त ही शुद्धि होगी।

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