॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

संपर्क करें

   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

दोषारोपण मन का मल॥
देह मृदानिर्मित घट धूसर।
भोगे सुख दुःख स्वयं बनाकर॥
पैर गिरे यदि हाथ का मुद्गर,
क्रुद्ध कहाँ पर लक्ष्य लगाए बैठा आत्म सबल।
दोषारोपण मन का मल॥
इन्द्रिय चय अमर्त्य का आलय।
दुःख सुख सब उनसे यदि निश्चय॥
वे ही भोग रहे हैं अविमय,
इन्द्रिय ही पीडा के भोगी जहाँ देव अविचल।
दोषारोपण मन का मल॥
अंतः स्थित वह है अविनाशी।
उसे कहूँ मैं व्यथा विकासी॥
दुःखी तथा दावक सम वासी,
आमनस्य का सस्य किसे फिर कौन निकाले हल।
दोषारोपण मन का मल॥
ग्रह गोचर से दशा मुक्त वह।
जन्मरहित नित नित्य वेद यह॥
देहों को ही दुःख देते ग्रह,
ग्रह को कहूँ यही दोषी हैं हुआ इन्हीं से छल॥
दोषारोपण मन का मल॥
अद्भुत जीव निलय यह विग्रह।
रहे वहीं अस्पृश्य सदा वह॥
कर्मबन्ध जड हेतु उग्रसह,
नित्य आत्म है मुक्त साक्ष्य सा स्वयंप्रकाशित रल।
दोषारोपण मन का मल॥
कहूँ काल को दोषी दुःख का।
जीव काल है एक रूप का॥
जैसे नही धर्म मारुत का,
शुण्ठित कर दे स्वयं स्वयं को ऐसा नहीं अनल।
दोषारोपण मन का मल॥
शोक मोह के कर्म मर्म हैं।
बन्धुबन्ध सब कूट धर्म हैं॥
कूट युक्त चैतन्य वर्म है,
ज्ञानी आच्छादन का धुक्षक सत पर करे अमल।
दोषारोपण मन का मल॥

साझा करें (Share)
error: कॉपी न करें, शेयर करें। धन्यवाद।