लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
कई लोगों के संदेश आए। प्रश्न आए कि दीपावली कब है। कई सज्जनों ने पूछा कि, ‘आप दीपावली कब मना रहे हो?’ हमने सोंचा कि वीडियो बनाकर इसका उत्तर दे दें। किन्तु वीडियो हेतु व्यवस्था लगेगी। एवं अनेक आचार्यों ने वीडियो बनाए ही हैं जिनमें संतुष्टिप्रद निष्कर्ष भी हैं। तब भी लोग भ्रमित हैं। इतने भ्रमित कि व्यक्तिगत रूप से पूछ रहे हैं कि हम कब दीपावली मनाएंगे। अतः सोंचा कि लेख के माध्यम से बता दें कि हम कब मनाएंगे। प्रशस्ति देने के अधिकारी कोई दीपावली ३१ अक्तूबर की प्रशस्ति प्रदर्शित कर रहे हैं तो कोई १ नवंबर की। ऐसे में उत्तर देने से पूर्व हमने स्वयं से ही प्रश्न किया कि, ‘मैं दीपावली कब मनाउँगा?’
परिस्थिति
विद्वानों के मध्य दीपावली हेतु अनेक चर्चाएं हो रहीं हैं। प्रश्न यही है कि दीपावली ३१ अक्तूबर को मनाएं कि १ नवंबर को? पहले यह जानना आवश्यक है कि इन दिनांको में तिथिव्यवस्था कैसी है। ३१ अक्तूबर के दिवस शायं ३:५३ से अमावस्या का आगमन है जो कि १ नवंबर के दिवस शायं ६:१६ तक व्याप्त होगी। दीपावली हेतु प्रदोषव्यापिनी अमावश्या का चयन होता है अर्थात् सूर्यास्त से लगभग १४४ मिनटों तक न्यूनतम अमावश्या रहे। “प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजयित्वा ततः क्रमात्” आदि से इसी काल में लक्ष्मीपूजन प्रशस्त माना जाता है। ३१ अक्तूबर को शायं ५:२९ में सूर्यास्त दृश्य है तथा अमावश्या प्रदोषव्यापिनी होकर रात्रिपर्यन्त है। वहीं, १ नवंबर को शायं ५:२८ में सूर्यास्त है जबकि उस शायं अमावश्या सूर्यास्त के पश्चात् लगभग ५० मिनट के आसपास ही व्याप्त होगी, अनन्तर प्रतिपदा का आगमन हो जाएगा।
इन स्थितियों को देखकर कई विद्वानों ने शास्त्रोक्तियों का सहयोग लेकर ३१ को ही दीपावली मान लिया। वास्तव में अनेक वाक्य हैं जो कि इसका समर्थन करते हैं यथा, “दीपोत्सवस्य वेलायां प्रतिपद्दृश्यते यदि….” आद्यादि। कि दीपोत्सवकाल प्रदोष में यदि प्रतिपदा का दर्शन हो तो वह त्याज्य है। वैसे विचारणीय है कि ये ऋषिवाक्य नहीं हैं तो किस प्रकार इसे एवं प्रभृति श्लोकों को प्रमाणकोटि में रखा जाय।
दूसरी ओर ऐसे भी वाक्य हैं कि, “दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि। तदा विहाय पूर्वस्य परेह्नि सुखरात्रिका॥” अर्थात् यदि दो दिन अमावस्या हो तो दूसरे दिन रजनीकाल में २४ मिनट भी यदि अमावस्या युति है तो दूसरा दिन ही ग्राह्य है, पहला दिन नहीं। अर्थात् यदि पूर्णरात्रिव्यापिनी अमावस्या अगले दिन २४ मिनट भी यदि सूर्यास्त के बाद प्रदोष को व्याप्त कर दे, तब अगला दिन ही ग्राह्य होगा।
अब एक ओर ‘प्रतिपद्दर्शनेन रजस्वला इव त्याज्या’ उद्घोष एवं उपरोक्त वाक्य की सामंजस्यता कैसे हो? हालाकि संदर्भित ग्रंथ में भी इसका अस्तित्व प्रश्नवाचक है तदपि प्रसिद्ध तो यह वाक्य हो ही गया। अतः इसमें हमारा मन्तव्य स्पष्ट है कि प्रतिपद्दृश्यते से तात्पर्य है कि यदि पूर्णप्रदोष को प्रतिप्रदा व्याप्त कर ले। किंवा अमावस्या प्रदोष में एक घटी से कम व्याप्त हो एवं पश्चात् प्रतिपदा का आगमन हो जाए, ऐसी तिथि ग्राह्य नहीं। इसी तर्क से ही प्रतिपद्दृश्यते एवं दण्डैकरजनीयोगे, दिवसद्वये प्रदोषव्यापिनीभ्यां परा ग्राह्या (दो दिवसों में प्रदोषव्यापिनी अमावस्या हो तो द्वितीय दिवस ग्राह्य है।) के मध्य का वैमनस्य समाप्त होगा।
“दण्डैकरजनी…” की ‘रजनी’ रात्रि है या प्रदोष?
कई सज्जन ऊपर दिये “दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि” में रजनी को प्रदोष से भिन्न तथा ‘दर्श’ को दर्श अमावस्या (अमावस्या का वह भाग जो उसके अंतिम पांच भागों से पूर्व हो) की स्थिति मानने की चेष्टा करते हैं। कहते हैं कि, ‘रजनी का अर्थ रात्रि है तथा प्रदोष रात्रि तथा सूर्यास्त के मध्य का तीन मुहूर्त्तों का काल होता है। अतः रजनी से योग द्वारा यह सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण प्रदोष को व्याप्त करने के पश्चात् रात्रि में भी अमावस्या न्यूनतम एक घटी व्याप्त रहे तो मान्य होगा।’ ऐसे चिन्तन से चिन्तक और भ्रमित होगा क्योंकि कहीं निर्णयामृतप्रभृति ग्रंथों में इसे रात्रि से पर कहा गया है तो हेमाद्रि प्रभृति ग्रंथों में “प्रदोषशब्दोऽत्र प्रथमप्रहरः’ कहा गया है। वाचस्पत्यम् में सूर्य के अंड के अदर्शनयोग्य काल को रात्रि कहा गया है जिसमें प्रदोष भी आता है। अमरकोश में “प्रदोषो रजनीमुखम्” कहकर प्रदोष को रजनी का मुख कहा गया। मुख का एक तात्पर्य अग्रभाग भी होता है ऐसा कल्पद्रुमवाक्य है “नदीमुखेनैव समुद्रमाविशत्”। अग्रभाग किसका भाग है? रजनी का। वह रजनी से उतना ही भिन्न है जितना शरीर के प्रत्येक अवयव होते हैं।
विस्तृत चर्चा न करते हुए चलिये मान लेते हैं कि रजनी का तात्पर्य रात्रि ही है तथा दर्श का तात्पर्य दर्श स्थिति है। अर्थात् “दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि” का अर्थ होगा, ‘यदि एक दण्ड भी अमावस्या दर्श की स्थिति में दो प्रदोषों को स्पर्श करे तो दूसरे दिन ही अमावस्या ग्राह्य होती है।’ यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या कभी इतनी लम्बी अमावस्या संभव है जो दर्श की ही स्थिति में दो दिनों के प्रदोषों को स्पर्श करे?? मात्र दो प्रदोषों को स्पर्श करती अमा ही ६६ घटी से ऊपर की हो जाएगी तब दो रात्रियों तक की चर्चा निरर्थक है।
“दण्डैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि” में रजनी का तात्पर्य रात्रि ही है। इसी का अनुमोदन धर्मसिन्धु में दीपावली लक्ष्मीपूजा प्रकरणान्तर्गत कथित है कि, “तथा च परदिने एव दिनद्वये वा प्रदोषव्याप्तौ परा। पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजादौ पूर्वा।” अर्थात्, ‘द्वितीय दिवस पर या दो दिनों के प्रदोषों पर अमावस्या पड़े तब दूसरा दिन ग्राह्य होता है। यदि मात्र प्रथम दिवस के प्रदोष पर स्थिति तथा द्वितीय दिवस अमा प्रदोषपूर्व समाप्त हो जाए तब प्रथम दिवस लक्ष्मीपूजादि हो। यहाँ से पूर्वपक्ष की व्याख्या मिथ्या सिद्ध होती है। साथ ही सिद्ध यह भी होता है कि प्रत्येक परिस्थिति के भिन्न सूत्र हैं। “प्रतिपद्दृश्यते यदि….” एवं “अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी” आदि प्रमाण अमा की ऐसी अवस्था हेतु हैं जिसमें द्वितीय दिवस अमा प्रदोष पूर्व लुप्त हो जाए। अमा दो प्रदोषों पर आए, एक पर आए, एक पर भी न आए, सबके भिन्न प्रमाण हैं। सभी प्रमाणों को एक साथ रखा जाए तो भ्रम तो होगा ही।
अब प्रश्न उठा कि ऐसा भ्रम ही क्यों हुआ? उसका कारण है काव्य की प्राकृति। काव्य यथार्थ कम तथा कूटार्थ अधिक होता है। वह सूत्रात्मक होता है। यहाँ ‘रजनी’ एवं ‘दर्श’ इसी हेतु भ्रम का कारण बना।
अमावस्या यदि दिनपर्यन्त तथा प्रदोषव्यापिनी हो तो सर्वोत्तम मानी जाती है। उस दिन प्रातःकाल अभ्यंग तथा मध्याह्निक श्राद्ध करके उसके अनन्तर सूर्यास्त के पश्चात् प्रदोषकाल में लक्ष्मीपूजन करके रात्रि में बलिराज्य मानकर उल्कापात तथा डिण्डिमघोष (पटाखे जलाना तथा ध्वनि करना), दीपवृक्षपूजन, जागरणादि करना चाहिये।
धर्मसिंधु में कहा गया कि, “अमावस्यायां प्रातरभ्यङ्गः प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादिविहितम्। तत्र सूर्योदयं व्याप्यास्तोत्तरं घटिकाधिकरात्रिव्यापिनी दर्शे सति न संदेहः॥” अर्थात् अमावस्या के दिवस प्रातः अभ्यंग तथा प्रदोषकाल में दीपदान एवं लक्ष्मीपूजन करना चाहिये। वहाँ सूर्यास्त के पश्चात् रात्रि में (प्रदोष भी रात्रि का भाग ही है क्योंकि सूर्यास्त के पश्चात् रात्रि ही होती है। संधि को प्रदोष नहीं कहते।) १ घटी व्यापिनी अमावस्या को भी संदेहमुक्त होकर ग्रहण करना चाहिये। स्कन्दपुराण के वैष्णवखण्ड में कार्त्तिकमासमाहात्म्य के अंतर्गत एक किसी अध्याय में (संभवतः नवम) बालखिल्यगण दीपावली के दिवसकृत्य का वर्णन करते हुए कहते हैं, –
“ततः प्रभात समये त्वमायां तु मुनीश्वराः।
स्नात्वा देवान्पितॄन्भक्त्या संपूज्याऽथ प्रणम्य च॥
कृत्वा तु पार्वणश्राद्धं दधिक्षीरघृतादिभिः।
दिवा तत्र न भोक्तव्यमृते बालातुराज्जनात्॥
ततः प्रदोषसमये पूजयेदिंदिरां शुभाम्।
कुर्यान्नानाविधैर्वस्त्रैः स्वच्छं लक्ष्म्याश्च मण्डपम्॥”
अर्थात् अमा (अमावस्या) तिथि पर (दीपावली के दिन) प्रातःकाल नहाकर (तैलाभ्यंगसहित क्योंकि “तैले लक्ष्मिर्जले गङ्गा”) देवताओं तथा पितरों का अर्चन करके पार्वणश्राद्ध करें। उपवासपूर्वक रात्रिमुख प्रदोषकाल में सुन्दर मण्डप बनाकर, सुसज्जित करके श्रीलक्ष्मीजी का पूजन करें।
यदि १ नवंबर से तुलना करें तो, क्योंकि ३१ अक्तूबर को अमावस्या ३:५३ मिनट शायं पर आ रही है अतः उस दिन प्रातः अमावस्या न होने के कारण किसी भी प्रकार दीपावली के प्रातः के कर्त्तव्य सिद्ध नहीं किये जा सकते। उदया तिथि के चिन्तन से तो वह तिथि चतुर्दशी सिद्ध होती है। वहीं १ नवम्बर को प्रातः से शायं, प्रदोष में १ मुहूर्त्त से अधिक काल तक अमावस्या व्याप्त है जिसमें कि प्रातर्मध्याह्नसायं एवं रात्रि, सबके कर्त्तव्य किये जा सकते हैं तथा उदयस्था तिथि होने से दीपवृक्षादि के पूजनविधान को भी करना सम्मत ही है।
एक स्थिति बनती कि यदि अमावस्या ३१ अक्तूबर को और शीघ्र प्रारम्भ होती एवं १ नवंबर के दिन प्रदोष से अस्पृश्या किंवा घटी मात्र से कम व्यापिनी होती तब यदि वह ३१ अक्तूबर को प्रातः व्यापिनी न होती तब भी ३१ अक्तूबर ही ग्राह्य होता। उस समय ‘प्रतिपद्दृश्यते’ तथा “अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्दशी। पूजनीया तदा लक्ष्मीः…” आदि सूत्र सिद्ध होते, जैसे कि पूर्व में चर्चा हुई।
निष्कर्ष
सिद्ध होता है कि ३१ अक्तूबर दीपावली हेतु अप्रशस्त है। अमावस्या का दण्डमात्र भी दो प्रदोषो को करे तो दूसरा ही ग्राह्य होगा। इस हेतु ३१ अक्तूबर के पक्षधरों के माध्यम से प्रदत्त किसी भी प्रमाण का अपमान किये बिना १ नवंबर हेतु प्रदत्त प्रमाणों से सामंजस्य सिद्ध किया जा सकता है। अतः मेरे हेतु तो १ नवंबर ही दीपावल्यर्थ सिद्ध है। कालिकापूजनार्थ मात्र अर्धरात्रिव्यापिनी अमावस्या ३१ अक्तूबर ग्राह्य है। अन्तरे, अब किसीको केवल पटाखे जलाना हो या दीपों से घर को सजाना मात्र हो तो वह प्रतिदिन ही दीपावली माने इसमें हमें क्या ही आपत्ति हो सकती है। हमने यहाँ मात्र अपनी चर्चा की। किसीको कुछ मनवाने का हमारा कोई औचित्य नहीं।