॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

संपर्क करें

   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

हम नवदिवस तक नवरात्र में श्रीदुर्गाजी की पूजा करते हैं। वस्तुतः यह नवरात्र आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है। नव दिवस तक हम नित्य नव देवियों की विधिवत् पूजा किया करते हैं, तदनन्तर हम दशवें दिन उस मूर्ति को जल में विसर्जित कर देते हैं। कुछ जन यहीं प्रश्न करते हैं कि क्या सच में देवी देवताओं की प्रतिमाओं को जल में विसर्जित करनी चाहिये?
हमारे शास्त्रों में धातु, पाषाण, मृदा, काष्ठादि के मूर्तियों के निर्माण का निर्णय है (शिलामृद्दारुलौहाद्यैः कृत्वा प्रतिकृतिं हरेरिति पाद्मे ६|२५३|५)। इन सबके पूजन का विधान भिन्न है। धातु तथा पाषाण की मूर्तियाँ वस्तुतः खण्डित होने के उपरान्त विसर्जित हुआ करतीं हैं। वहीं मिट्टी की मूर्ति पूजन करके विसर्जन मन्त्रोच्चार के उपरान्त ही जल में विसर्जित करना चाहिये। कहीं कहीं काष्ठ का भी यही विधान है। केवल दुर्गाजी की नहीं अपितु भगवान् पार्थिवेश्वर को, मृदा या गोमय से निर्मित गणपति को भी जल में विसर्जित करने का विधान है।

“ततः सुहृज्जनयुतः स्वयं भुञ्जीत सादरम्। अपरस्मिन्दिने मूर्ति नृयाने स्थापयेन्मुदा॥ छत्रध्वजपताकाभिश्चामरैरुपशोभिताम्। किशोरैर्दण्डयुद्धेन युध्यद्भिश्च पुरःसरम्॥ महाजलाशयं गत्वा विसृज्य निनयेज्जले। वाद्यगीतध्वनियुतो निजमन्दिरमाव्रजेत्॥

– गणेशपुराण, उपासनाखण्ड, अध्याय ५०, श्लोक – ३१-३३

यहाँ हिमवान् माता पार्वती को गणेशचतुर्थी का विधान बताते हुए कह रहे हैं कि गणपति की प्रतिमा को पालकी में रखकर आगे आगे किशोर लाठी युद्ध का प्रदर्शन करते हुए बाजे गाजे के साथ सब ले जाकर जल में प्रक्षेपित करें। अब चर्चा श्री दुर्गाजी की करते हैं। देखिये, श्रीमद्देवीपुराण में ही स्पष्ट लिखा गया है कि, “प्रातर्प्रातश्च सम्पूज्य प्रातरेव विसर्जयेत्॥” यह उक्ति नवरात्रविधि की ही है। वहीं पर, “वर्षे वर्षे विधातव्यं स्थापनं च विसर्जनम्॥” ऐसी उक्ति भी स्पष्ट है। कालिकापुराण में भी “यथा तथैव पूतात्मा व्रती देवीं विसर्जयेत्॥” आदि उक्ति है। कुञ्जिकातन्त्र में भी दुर्गानवमी (कार्तिक) का विधान बताते हुए कहा गया कि, “निर्माय प्रतिमां शक्त्या जगद्धात्र्या विधानतः। पूजयित्वा परदिने प्रतिमां तां विसर्जयेत्॥” “पूजयित्वा मृण्मयीं तां लमते वाञ्छितं फलम्॥” इनसे स्पष्ट है कि मातेश्वरी की भी मृण्मयी (मिट्टी की) मूर्ति बनाकर पूजा करके विसर्जित ही करना चाहिये। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में भी कहा गया, “हेमन्ते प्रथमे मासि……. कृत्वा प्रतिकृतिं देवीमानुचुर्नृपसैकतीम्॥”। आगे देखें…

“इति नवरात्रं कृत्वा दशम्यां देवीं विसर्जयेत्।”

– मन्त्रमहार्णव देवीखण्ड

इससे क्या निष्कर्ष निकल रहा है, आप स्वतः जान चुके होंगे।

साझा करें (Share)
error: कॉपी न करें, शेयर करें। धन्यवाद।