॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   प्रणेता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

व्यक्ताव्यक्तं सुरूपमप्रतिमसगुणं निर्गुणं निर्विकल्पं
शब्दातीतं गुणाच्चाविचलितसचलं शाश्वतं शुद्धज्ञानम्॥
भिन्नाभिन्नप्रधानप्रतिशयनिपुणं सर्वसम्मोहनात्मं
युक्तं मुक्तं प्रकृत्यां वियदिवकमलं वीक्षितं पण्डितैश्च॥१॥

व्यक्त तथा अव्यक्त, रूपयुक्त तथा रूपहीन, सगुण तथा निर्गुण और निर्विकल्प, शब्द तथा गुणों से जिनके विषय में वर्णन न किया जा सके, अविचल (ईश्वररूप) तथा सचल (कालरूप), सदा विद्यमान रहने वाले, शुद्धज्ञानस्वरूप, भिन्न तथा अभिन्न के भी निपुण संस्थानस्वरूप और समस्त श्रृष्टि को (इसी भ्रम में) मोहित करने वाले, प्रकृति से मुक्त तथा प्रकृति से युक्त, आकाश के समान निर्मल, ज्ञानियों के द्वारा देखे गए।

सत्यमित्याहु बुद्धाऽवधिमुखनिःसृताया परं सत्यभावात्
वेदावेदस्वरूपोऽहमितिवदति यं योनिरूपं प्रधानम्॥
मायाव्यापारिकञ्च प्रकृतिस्तृतकरं क्षुण्णकारं तथैव
सूर्यो धाता सितस्यासितविदितगुणस्यापराचिन्त्यरूपम्॥२॥

जो विद्वान् (उसे) सत्य, ऐसा कहते हैं क्योंकि ये वैखरी की सीमा है किन्तु वह तो सत्यभाव से भी परे है। वे प्रधानयोनि स्वयं को वेद और अवेद (सत्य और असत्य) दोनो मैं ही हूँ, ऐसा कहते हैं। वे माया के व्यापारी (माया से खेलने वाले) हैं, प्रकृति का प्रसार करने वाले हैं, वैसे ही उसे नष्ट करने वाले भी हैं। (जैसे) सूर्य ही अन्धकार और प्रकाश दोनो का जनक है किन्तु दोनो से भिन्न (दोनों से) अचिन्त्य है।

नाभ्यामग्निं त्रसानां दहरमितिश्रुतं आरुणानामृषीणां
निस्मित्वाऽयुग्मयोनीनवनिव वितथेऽप्याप्रुतं कारणात्माम्।
सर्वात्मासम्प्रसारप्रसृतगुणमये हेतुकार्यप्रमुक्तं
साकाराकारमुक्तासदसतः परं नौम्यहं सर्वयुक्तम्॥३॥

नाभि में अग्नि रूप, आरुणी ऋषियों के हृदयों में दहर रूप तथा असत्यरूप विचित्र योनियों का निर्माण करके उनमें प्रवेश कर रहे से जान पड़ते हुए भी न प्रवेश करने वाले कारणात्मा को तथा समस्त गुणमय श्रृष्टि में उद्भासित, समान रूप से प्रसारित किन्तु कारण तथा कार्य से मुक्त, साकार तथा आकारमुक्त और सत्य असत्य से भिन्न होते हुए भी सबसे अभिन्न परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ।

कूटे विष्टः प्रकृत्या विरचयति कलां कर्मरूपं च बोधं
क्षेत्रज्ञेऽनन्तरेऽप्यारचयति कलया रागविद्ये तथैव।
दैवं दिष्टमव्यक्तं त्रिगुणगुणगतौ बुद्धिमावेशमेतै-
-स्तन्मात्राक्षाननेकान् रचयति मनसं तैर्हि हेयं समस्तम्॥४॥

कूट (माया) में प्रवेश करके प्रकृति (माया) के माध्यम से (ईश्वर) कला का सृजन करते हैं। अनन्तर उस कला से क्षेत्रज्ञ (पुरुष) में कर्मरूप (जातकर्तृत्व) का बोध कराते हैं। तदनन्तर राग तथा विद्या की रचना करते हैं। बाद में दैव (नियति), दिष्ट (काल), अव्यक्त, सत्व, रज, तम तथा इनसे बुद्धि तथा आवेश (अहंकार)। इनसे अनेकात्मक तन्मात्राएं, अक्ष (इन्द्रियाँ) तथा मन का सृजन हुआ और इन सब से ही त्याज्य (हेय) का उद्भव हुआ।

तत्वात् षष्ठोनत्रिंशाद्व्यतिकृतमजिरे केनचिन्नैव सत्यं
यावन्मिथ्याङ्गभूतमृगरुचिविहतान्नाम्बुप्राप्तिं कदाचित्।
सन्धानं कल्पनानां कथमिहकरणे शब्दविन्यस्तवाक्या
बद्धो वा नेत्रलब्धेन्द्रियनिहिततरोऽसत्यकृत्स्नेति मन्ये॥५॥

चौबीस तत्वों से निर्मित इस देह में किसी भी प्रकार से सत्य नहीं है, जैसे कभी भी मिथ्या से उत्पन्न मृगमरीचिका में प्यासे मृग को जलप्राप्ति की सम्भावना नहीं है। कल्पनाओं (चौबीस तत्व कल्पना ही हैं, किसीने देखा नहीं) के मिश्रण से निर्मित इस देह में (इन्द्रिय निर्मित) शब्द के विन्यास रूपी वाक्य से निर्मित उपदेश (लिखित या वैखरी दोनो) या नेत्र में प्राप्त इन्द्रिय (मिथ्या) निहित दृश्य सत्य कैसे हो सकता है? अतः ये सब असत्यस्वरूप ही है, ऐसा मै मानता हूँ।

भान्ते पान्थाऽम्बुदेभ्यो गिलितपथगतो वीर्यतः स्त्रीशरीरे
एकोनैकादशोक्ताः पवनसहचरा युक्तजीवोऽशुभास्तः।
धर्माधर्मप्रपञ्चात् सुदुःखरचितोऽवेदवेदाद्विमुक्ता-
-यीशितृस्थो जडाय भ्रमगतिचलिताश्चाभिधानाः किमत्र॥६॥

पापों के द्वारा निष्कासित जीव चान्द्रमार्ग से चलता हुआ मेघों से खाद्यान्नरूपी मार्ग से वीर्य में पहुंचकर, वहाँ से स्त्रीदेह में आता है (माया के वशीभूत हो जाता है)। दस वायु (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनंजय) ही उसके साथ चलने वाले होते हैं। (किन्तु) पाप और पुण्य, सुख और दुःख तथा सत्य और असत्य द्वारा रचित इस प्रपंच से जो मुक्त है, ईश्वर में स्थित है तथा जड के समान है, उस हेतु मिथ्यातत्व की गति से निर्मित ये (देह, पाप, पुण्य, सुख, दुःख आदि) उपाधियाँ कहाँ हैं?

कृत्स्ने वैवर्ण्यदृश्ये अणुमयविवरात्तान्निरीताश्च मुक्ताः
तत्सर्वस्यादिरूपा दृशतिद्वययुता कैतवी सत्यरूपा।
अद्रेश्याभोग्यदृश्यात्कथमिहनिखिले हिन्विताश्चैणयूथा
मंमन्यन्ते तथैवाकुहितमतिरतायात्मभ्रान्तिं किमत्र॥७॥

संसार में जो भी प्रपंच दृश्य है, इस अणुनिर्मित बिल से बाहर निकल रहे ही (संसारी होते हुए भी) सदा मुक्त हैं। इस प्रपंच की जननी (प्राकृति) दो स्वरूपों वाली है। उसका एक स्वरूप कपटपूर्ण (असत्य) है, दूसरा सत्यस्वरूप। अब इस अदृश्य तथा अभोग्य (अणु) से निर्मित संसार में (प्यासे) हिरणों के समूह भला कैसे तृप्त हो सकते हैं? जो बार बार यही चिन्तन करते रहते हैं, उन भ्रमरहित बुद्धि वालों हेतु यहाँ कैसी भ्रान्ति?

ज्ञानाच्छक्त्या च वीर्याद्व्रततिव्रतमयाद्वैभवात् स्थामनाच्च
तेजात् षाड्गुण्यपूर्णो रचयतिकलया विष्टपं सर्वमेतत्।
संस्थित्याऽस्पृश्यभूतः सगुणगुणधरो निर्गुणश्चैव सिद्ध-
-स्तद्विज्ञानाद्विभिन्नो भवतिपरिवृढ़श्चात्मलब्धा भजन्ति॥८॥

ज्ञान से, शक्ति से, वीर्य से, विस्तृत होने के भावरूपी ऐश्वर्य से, बल से तथा तेज से छः गुणयुक्त होकर अपनी कलाओं के माध्यम से वे इस भुवन की रचना करते हैं। प्राकृति से अस्पृश्य होकर वही सगुण व्रत से पूर्ण निर्गुण कहलाते हैं। इसी विज्ञान से वे (अद्वैत) परमेश्वर विभिन्न (द्वैत) होते हैं। जो आत्मतत्व को प्राप्त कर चुके हैं, वे इस बात का निरन्तर मनन करते रहते हैं।

ब्रह्मानन्दं च छद्मं प्रणवप्रतिदृशं चिन्मदं ब्रह्मज्योतिं
भोक्तां भुक्तं च साक्षीं निशितिकरवरं चाष्टचारैर्भ्रमं च
सेत्या नेत्या विमुक्तावचनरवपरं स्वानरूपं तु सैव
शुद्धाशुद्धं प्रबुद्धं कणकणकणितं नौमि भिन्नं प्रभिन्नम्॥९॥

ब्रह्मानन्दस्वरूप को, छद्माकृत को, प्रणवाकार को, चिदानन्द को, ब्रह्मज्योति को, भोक्ता को, भोग्य को, साक्षी को, प्रेरक को, आठ पाशों (घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील, जाति) के कारण भ्रमरूप को, वही है तथा वह नही है (वेदतत्व) से विमुक्त और वाक्य से अतीत को, शब्द से परे को, शब्दस्वरूप को, शुद्ध तथा अशुद्ध को, प्रबुद्ध को कण कण में विद्यमान को, भिन्न को तथा प्रभिन्न को नमन करता हूँ।

जाग्रत्स्थूले च विश्वं जगदिदमखिले तैजसं सौक्ष्म्यस्वापे
तत्सुक्ष्मे कारणस्थोऽविकृषितकरणे प्राज्ञरूपं सुषुप्त्याम्।
निर्वैरं निर्विकारं त्रिविधमिवपरं चाक्षरो योनिरूपं
कूटस्थश्चात्मतत्वं जलनिधिगहनं सर्वचिन्मात्ररूपम्॥१०॥

स्थूल देह में जागृत् चेतनावस्था में विश्वरूप, सूक्ष्म देह में स्वप्न चेतनावस्था में तैजस, उससे भी छोटे कारण शरीरस्था सुषुप्ति चेतनस्थ प्राज्ञ तथा सदा निर्वैर, निर्विकार, उपरोक्त तीनों में तथा उनसे रहित, अक्षर, परं योनिस्वरूप, कूटस्थ, आत्मतत्व, समुद्र के समान गम्भीर और चित्तत्व स्वरूप ब्रह्म को मैं नमन करता हूँ।

॥ इत्याचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्णशर्मणाप्रणीतो ब्रह्मवाणः सम्पूर्णः॥

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