॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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राष्ट्रध्वजा बृहता विपुला

संस्कृत कविता

– आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी

 रामकृष्णसुरवरमुनिचरितायां

                              भारत्यां रमणीयां

यत्रोत्पलिफलगुह्यदुर्लभो

                             जोघुष्यन्तेऽमृतप्रवराः।

अशरणशरणाः करुणावरुणालय-

                                -वन्तस्तद्देशजना

एतद्गुणिता आर्यप्रसिद्धा

                        राष्ट्रध्वजा बृहता विपुला॥

सद्गम्याया वीरपुत्रदायाः

                             सुखप्रीतिसमुद्राया

विश्वाचार्याया प्रमदाया

                              वेदशास्त्रविद्वत्तायाः।

भरद्वाजभास्करमिहिरार्य-

                      -व्यासचरकमुनयो ध्येयाः

तेषां भूम्या जयवहलसिता

                        राष्ट्रध्वजा बृहता विपुला॥

कृषकैः स्वेदवेगकृष्टायाः

                        सैन्यरक्तस्नाताऽऽभाया

ख्यातायाः शुभधर्ममयायाः

                                सिन्धुपादुकाशुद्धायाः।

जम्बूद्वीपमौलिमुकुटाया

                            वसुन्धराशिरतिलकायाः

तस्याः केतुवरा सर्वोच्चा

                        राष्ट्रध्वजा बृहता विपुला॥

तात्पर्य – भगवान् श्रीराम, कृष्ण तथा सुरवर और मुनियों के चरितो से आच्छादित भारतभूमि पर, जिस भूभाग हेतु देवता नित्य घोषणा करते रहते हैं कि यहाँ जन्म लेना अत्यंत गूढ़ तथा दुर्लभ है, जहाँ के जन अशरणों को शरण देने वाले तथा करुणा के सागर हैं, उस रमणीय देश में आर्यों में प्रसिद्ध राष्ट्रध्वजा बृहत् तथा विपुल स्वरूप से शोभा पा रही है। सदा सुन्दर पथ में जाने वाली, वीर पुत्र देने वाली, सुख तथा प्रेम की समुद्रस्वरूपा, समस्त विश्व की आचार्यस्वरूपा, वेद, शास्त्रों की विद्वत्ता स्वरूपा, भरद्वाज, भास्कर, मिहिर, व्यास, चरक आदि सिद्धों की भूमि में जय स्वरूपी वायु के द्वारा लहराती राष्ट्रध्वजा बृहत् तथा विपुल स्वरूप से शोभा पा रही है। कृषकों के द्वारा स्वयं के पसीने सींचकर जोंती हुई, सेना के रक्त से स्नान की हुई सी, प्रसिद्ध, धर्ममय, समुद्र के द्वारा पादुका शुचिकृत, जम्बूद्वीप के मस्तक में मुकुट जैसी, पृथ्वी देवी के मस्तक की तिलक स्वरूपिणी, उस भूमि के ध्वज के रूप में सबसे ऊँची यह राष्ट्रध्वजा बृहत् तथा विपुल स्वरूप से शोभा पा रही है।

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