॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी

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आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी का गृहनाम पं. श्री कौशलेन्द्रकृष्ण शर्मा है। इनका जन्म आश्विन कृष्णपक्ष ८ विक्रमाब्द २०५३ को वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य अन्तर्गत कवर्धा जिले के जोगीपुर नामक छोटे से ग्राम में, एक मग शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनका वर्तमान निवास इनके पैतृक ग्राम सेन्हाभाठा (कुण्डा), जिला कवर्धा (कबीरधाम) है। इनके पिता का नाम पं. श्री नन्दकिशोर शर्मा जी है। इनकी माता का नाम श्रीमति कुसुम देवी शर्मा है, जिसका जनवरी सन् २०१८ में स्वर्गवास हो चुका है।

पिता श्री नन्दकिशोर शर्मा तथा माता स्व. श्रीमति कुसुम देवी शर्मा

इनके पिताश्री की मुख्य आजीविका पौरोहित्य ही रही है। साथ ही वे भागवत आदि शास्त्रों के अच्छे जानकार भी हैं। इन्ही के दिये भगवद्भक्तिमय वातावरण में इनका लालन सम्पन्न हुआ। इनके पिताश्री श्रीमद्भागवत के आदर्श प्रवक्ता हैं। अपने पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए ही इन्होंने पौगण्डावस्था से ही श्रीरामचरित मानस का टीका प्रवचन प्रारम्भ किया। वह ऐसी आयु थी कि बालक में इतना ज्ञान नहीं होता। ऐसी अवस्था में बालक के आसपास के जनों पर उसका व्यक्तित्वनिर्माण टिका होता है। अतएव इस छोटी अवस्था में प्रवचनारम्भ का सारा श्रेय ये अपने पिताश्री, माताश्री तथा इनके नगरवासियों को देते हैं। नगरवासियों के आयोजन में, उनके ही माध्यम से बलात् बालक मंचासीन हुआ। तब से कथा में तथा शास्त्राध्ययन में इनकी अगाध रुचि हो गई।

श्रीरामचरित का प्रथम प्रवचन

प्रतिदिन नियमित काल तक इन्हें शास्त्रों का अध्ययन भाता था। छोटी सी अवस्था में ही इनके मुखाग्र से अध्ययन के माध्यम से प्राप्त श्रुतातीत तत्वों को सुनकर इनके निकटस्थ इनपर गर्व किया करते थे। साथ ही साथ इनकी कक्षाएं भी चल रहीं थीं। उनमें भी इनका प्रदर्शन उत्तम ही था। पिताश्री की भागवत कथाओं को सुनते हुए, उनके माध्यम से अध्ययन करते हुए १७ वर्ष की आयु से इन्होंने भागवत कथा का वाचन भी प्रारम्भ कर दिया। इसके उपरान्त देवीभागवत, गीता प्रवचन, शिव आदि अन्य पुराण, रामायण आदि के एकल विषयों में इनका प्रवचन प्रारम्भ हुआ, जिनमें अध्ययन के कारण इनकी अच्छी पकड़ सिद्ध होती गई। इनकी कथाएं पिता से प्रवाहित होने के कारण ही पिता के समान ही एक तप से पूर्ण हुआ करतीं थीं। जहाँ कई वक्ता पारायणकर्ता लेकर कथा करते, दिन में १ बजे ले ५ या ६ बजे तक कथा कहते, कौशलेन्द्र की कथा उनसे बहुंत भिन्न हुआ करतीं थीं। ये प्रातः ५ बजे मंचासीन होकर, स्वयं पारायण करके उपवासपूर्वक शायं ६ बजे तक मंच में ही स्थित रहा करते थे। ऐसी कठिन तपस्या हेतु क्षुधा तथा मुत्रपुरीषादि के वेगों में विशेष अधिपत्य आवश्यक होता है, जिसे इन्होंने १७ वर्ष की आयु में ही प्राप्त कर लिया था। इस आयु के अपने कालक्रमान्तर्गत ऐसी तपस्या करने वाले बहुंत कम लोगों में इनका नाम भी है।

आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी की कथा में ली गई एक छवि

कथाएं व्यर्थ चर्चा से भिन्न, श्लोकबद्ध तथा किसी भी कथा को न छोड़ने के उद्यम से ओतप्रोत हुआ करती हैं। कौशलेन्द्र जी इस प्रकार से धर्मरक्षण कर ही रहे थे कि उसी वर्ष नवरात्र पर्व में श्रीदुर्गा की मूर्त्यार्चना में सम्मिलित होकर श्रीदुर्गाशप्तशती का प्रतिदिन तीन आवर्त पाठ कर रहे थे कि एक दिवस इन्होंने स्वप्न में देवी का दर्शन किया तथा देखा कि स्वप्न में इन्होंने एक स्तोत्र से देवी के विविध स्वरूपों की उनके समक्ष ही स्तुति की। उठने के बाद भी वे स्तुतियाँ स्मृति में रहीं अतः तत्क्षण इन्होंने उस स्तोत्र को एक पन्ने में लिख लिया, जो बाद में कहीं खो भी गया और स्तोत्र की स्मृति भी समाप्त हो गई। संस्कृत का पठनादि शैली पहले से शुद्ध रही, किन्तु इस घटना के उपरान्त संस्कृत के प्रति अधिक रुचि से वे अपने सामाजिक विद्वान् पं. श्री रवीन्द्र शर्मा जी के साथ कांकेर में आयोजित १५ दिवसीय संस्कृत सम्भाषण शिबिर में सम्मिलित हुए। वहाँ कन्याओं के माध्यम से वेद ऋचाओं का उच्चारण करते देखकर हतप्रभ कौशलेन्द्र पुनः कभी भी शिबिर में सम्मिलित नहीं हुए, हालांकि उन्हें कई आमन्त्रण आए।

कौशलेन्द्र जी ने वस्तुतः पारंपरिक रूप से कभी भी संस्कृत का अध्ययन नहीं किया तथापि स्वप्न वाली घटना के बाद संस्कृत के सुन्दर काव्यों का उनके माध्यम से लेखन हो जाता। वे अत्यंत चकित थे। पिताश्री ने बताया कि यह अवश्य ही माता सिद्धेश्वरी तथा हनुमन्तलाल की कृपा है। स्वयं को अपात्र मानते हुए कौशलेन्द्र नित्य इस कृपा का आदर करते हैं। उनके माध्यम से स्वप्न में प्राप्त स्तोत्र लिखा पन्ना उन्हें पुनः प्राप्त हुआ। उसे उन्होंने “श्रीभवानीसप्तकस्तोत्र” का नाम दे दिया। इसके अतिरिक्त हिन्दी में भी “तीव्र दामिनी वर्षा निर्मल” आदि इनके सुन्दर काव्य हैं। संस्कृत में श्रीसूर्यहर्णम्, श्रीगणपतिमदनम्, श्रीब्रह्मबाणस्तोत्रम्, श्रीनृसिंहप्रपन्नस्तोत्रम्, आदि अनेक कृतियाँ हैं। वहीं अपने मग समुदाय के उत्थान हेतु संस्कृत का श्लोकबद्ध ग्रन्थ अव्यंगभानु इनके द्वारा लिखित तथा नोशन प्रेस के माध्यम से प्रकाशित हुआ। यह इनके माध्यम से लिखित प्रथम ग्रंथ है।

भागवत तथा मानस के प्रखर प्रवक्ता श्री छत्रधर शर्मा जी के मुख से निग्रहाचार्य श्रीभागवतानन्द गुरु जी के बारे में सुनकर कौशलेन्द्र जी अत्यंत प्रभावित हुए। छत्रधर शर्मा जी के घर पर ही उनकी भेट हुई। आगे कौशलेन्द्र जी को धर्मरक्षण क्षेत्र में निग्रहाचार्ययशोवर्धनसम्मान भी मिला। आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी के प्रथम ग्रंथ अव्यंगभानु हेतु प्रकाशन संबंधी अनेक सहयोग भी उन्हें श्रीभागवतानंद जी से मिले। कौशलेन्द्र जी को संतों की संगति बहुंत भाती है। संतों की ही कृपा से इनके नाम में कौशलेन्द्र के बाद कृष्ण लगा। ये संत का ही आशिर्वाद रहा।

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु जी के साथ आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी की एक छवि
आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी निग्रहाचार्य जी से निग्रहाचार्ययशोवर्द्धनसम्मान ग्रहण करते हुए
धर्मरक्षण हेतु निग्रहाचार्य यशोवर्धन
स्वयं की पुस्तिका “अव्यंगभानु” को श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य श्री वासुदेवाचार्य “विद्याभास्कर” जी महाराज को निवेदित करते हुए।

जब जब आप किसी विशेष कार्य में आगे बढ़ते हैं, कुछ आपके निकटस्थ लोग ही आपका पैर खींचते हैं। कुछ को आपसे चिढ़ होती है तथा कुछ जलते हैं। ऐसी ही स्थिति कौशलेन्द्र जी के साथ भी रही है। यहाँ तक कि उनके ऊपर कुछ दुष्टों ने अकारण ही प्रशासनिक कार्यवाही (FIR) आदि तक किया था। तथापि ऐसी सत्ताओं से अप्रभावित वे सदा ही अपने कार्य पर संलग्न हैं। सूर्यनाराण की प्रपन्नता में लीन कौशलेन्द्र जी श्रीजी के प्रति प्रेम के कारण ही अपने नाम के अग्र में आचार्यश्री लिखते हैं।

अभी आप जहाँ विद्यमान हैं, ये वेबसाइट आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी का आधिकारिक वेबसाइट है जिसमें वे ज्ञानवर्धक तथा भ्रमाभिभंजक लेख और अपनी कृतियों को प्रकाशित करते हैं। उनके इस वेबसाइट का देखरेख श्री छत्रधर शर्मा जी किया करते हैं। आप आचार्यश्री से सम्पर्क करने के लिये यहाँ पधारें।

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