॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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सुनीलहस्तचन्द्रहासहाटकस्थले कबन्-
-धहीनमुण्डमालिकामयामधर्म्यमन्थिकाम्।
तथैव दुग्धसागरप्रभा प्रह्रीय ह्नाविका
इव प्रभा प्रपूरितां नुमोऽस्त्वनुग्रहार्णवाम्॥

– आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी

“नीले रंग के हाथों में चन्द्रहास तथा स्वर्णाभूषणों के स्थान, वक्षस्थल में कटे मुण्डों की माला धारण करने वाली, अधर्मियों को दुःख देने वाली तथा उसी प्रकार जैसे दुग्ध के समुद्र की कान्ति भी लज्जित होकर छुप जाये, ऐसी शुभ्रकान्ति से परिपूर्ण, कृपा की समुद्रस्वरूपिणी जगदम्बा को हम सब नमस्कार करते हैं।”

॥ पूर्वश्लोकाः ॥

मूत्रास्थिगूथास्रपलैः समिश्रा
देहा मलैः पञ्चचया विदुष्टाः।
भवन्ति चाग्नौ हि भवेच्च शुद्धिर्-
-मैत्री शरीरे न सहैव जन्यौ॥

“मूत्र, अस्थि, मल, मांस आदि का मिश्रण यह देह पापों से अपवित्र पंच तत्वों का समूह है। उसकी शुद्धि का एकमात्र साधन अग्नि है तथा उस देह की मैत्री देह से ही हो सकती है न कि चेतन से।”

तप्ताङ्गैश्च तपप्रशुद्धरुधिरैरेकत्रितैः शुल्किता
कृष्या यत्नप्रभा तथैव मिथिलायां भूमिसम्भाविता।
रामं क्रीडनकं सभागृहधनुर्भङ्गेन सद्यः कथं
सङ्गम्यादिति कारणेन विजितां लङ्कापतेः नौमि ताम्॥

“ऋषियों के तप से तप्त अंगों से कर रूप लिये गए रुधिर द्वारा लंका में उत्पन्न होने वाली तथा भूमि को जोतने का उद्यम करने से मिथिला के भूमि में उत्पन्न होने वाली कन्या श्रीरामचन्द्र जी को खिलौने जैसे धनुष के तोड़ने मात्र से कैसे प्राप्त हो जाती? इसी कारण वह रावण पर विजय प्राप्त करके प्राप्त की गईं हैं। उन्हें नमस्कार है।”

हस्तेनैकेन देवीं मृगसदृशदृशश्चाञ्जयन्तीं द्वितीये
चादर्शं शौर्यपर्ष्यमरुणितकुमुदाच्छादनं पाण्डराङ्गाम्।
दिव्यं बिन्दुं ललाटे चलति मृगवरश्चाञ्चलान्ते चरन्ते
हस्तेन स्पृष्टभूतो मुकुरमुदमनातीतरूपां नतोऽस्मि॥

“एक हाथ से जगदम्बिका अपने मृगनयन में कज्जल लगा रहीं हैं। दूसरे हाथ में दर्पण धारण कीं हुईं हैं। वहीं, (मातेश्वरी के अंगाच्छादन सौभाग्य से) गौरवाच्छन्न लाल हुए कुमुदवस्त्र को श्वेत देह में धारण की हुईं हैं। ललाट में दिव्य बिन्दु शोभित है। उनके छूट से रहे आँचल के छोर में सिंह क्रीडा कर रहे हैं। मैं उन देवी को नमस्कार करता हूँ जिनका प्रतिबिम्ब दिखाने में उनके हाथ में धृत, गौरवान्वित दर्पण भी असमर्थ है।”

दैतेयसन्नयभयोत्थितलूमलोम्ना-
-मान्दोलनेन कटकानिलसाध्वसाभाम्।
घोरारवेण रदवज्रवरेन्द्रवर्यं
सीताऽञ्चितप्रियतनुं नितरां नमामि॥

“दैत्यों के समूह का सर्वनाश करने हेतु उठे हुए पुच्छकेशों के आन्दोलन से भयंकर वातचक्र का निर्माण कर दैत्यों को भय देने वाले को तथा भयंकर गर्जना के साथ ही अपने वज्र के समान दन्तावली को दिखाकर डराने वाले को, श्रीसीताजी के द्वारा पूजित श्रीराम के प्रिय हनूमन्त को वारंवार नमस्कार है।”

हे राम जगतः समुद्रतरणीयन्ता त्वमेको महान्
गङ्गां लङ्घयितुं त्वमेव विविथे नौकां निषादात्तदा।
सस्यं यच्छबरी जगत्परिवृढ सञ्याचको गोचरः
सायुज्यादिकुलाश्च वक्रददितास्त्वत्किं कथं चेतये॥

“हे राम! आप ही इस संसार रूपी समुद्र की नौका के एकमात्र खेवैया हैं तथापि आपने गंगा को पार करने के लिये निषाद से नाव की याचना की थी। हे समस्त संसार के स्वामी! आपने जगत्पति होते हुए शबरी के फल स्वीकार किये, इस प्रकार आप मांचने वाले से लगते हैं। तथापि परोक्ष रूप से आप सायुज्य आदि प्रदान कर देते हैं अतः तुमसे भिन्न का मैं क्या तथा कैसे चिन्तन करूँ?”

श्रीनीलकुन्तलकुलासननीलकण्ठ-
-पत्रानुरक्तमुकुटं मधुरान्नहारम्।
सन्धीतकुङ्कुमकदम्बकलिप्तगण्डं
गोपालकं व्रजतरण्यभयं नमामि॥१॥
श्रीदामराममधुमङ्गलचन्द्रहास-
-स्तोकावृतं करवरेण वरं दधानम्।
धावन्तमद्भुतभयङ्करमन्दहासं
पञ्चेषुकान्तरमणं शरणं व्रजामि॥२॥
श्रीकृष्णकरसंस्पृष्टव्रीडास्मितशुभानने।
विक्षुण्णलाञ्छनारुण्ये माङ्गल्यमभिवर्धताम्॥३॥

“काले केशों के ऊपर सदा विराजमान रहने वाले मयूरपिच्छयुक्त मुकुट से शोभित, मिठाई आदि को रस्सी से बांधकर गले में धारण किये तथा विभिन्न प्रकार से बनाए गए (विभिन्न रंगो वाले) कुंकुमों से लिप्त कपोल वाले गोपालक तथा व्रज कुमारिकाओं के अभय स्वरूप कृष्ण का मैं नमन करता हूँ॥१॥ श्रीदामा, बलराम, मधुमङ्गल, चन्द्रहास, स्तोककृष्ण आदि मित्रों से घिरे हुए अपने सुन्दर हाथ में कुंकुम को धारण करके दौंड रहे तथा भय देने वाले अद्भुत मुस्कान से युक्त पंचबाण के स्वामी कामदेव के भर्ता के शरण में हूँ॥२॥ भगवान् श्रीकृष्ण के स्पर्श से श्रीराधा जी के लज्जायुक्त मुख में प्रकटित वह लालिमा इस पर्व पर मंगलता की अभिवृद्धि करे॥३॥”

मार्त्तण्डं कमलाजिनाङ्गधवले रक्तत्रिपुण्ड्रोत्तमं
पद्माश्चर्यमयायुधाभयमयं कौक्षेयकोष्णं परम्।
सूताश्चर्यमयश्च चाँमररतौ धूताहियुक्तौ सिता-
-स्तिसृभिर्मलयास्रवर्णमुडितो यस्मै नुमो भैरवम्॥

“धवल देह पर मृगचर्म तथा मस्तक में सुन्दर रक्तवर्ण का त्रिपुण्ड्र धारण करने वाले को, अपने हाथों में कमल, विलक्षण आयुध, अभय तथा उष्ण खड्ग धारण करने वाले को तथा जिनके गौरांगसम्पन्न सारथी भी आश्चर्यमय हैं उन्हें, जिनके समक्ष दो चँवर डुलाने वाले श्वेत पुरुष सर्पों से सज्जित विद्यमान हैं तथा जिनके हेतु तीन स्त्रियाँ लाल रंग का चंदन घिस रहीं हैं, उन मार्तण्डभैरव को हम नमन करते हैं।”

कालिन्दीमृदुमाधुरीरसव्रजाद्विक्तोऽर्णवे लावणे
दर्पाद्दुश्च्यवनाज्जनाश्रयमयो गोवर्धनोद्धारणः।
आधाता खरचक्रकालकलितस्यास्योर्ध्वबर्हीच्छदं
गोप्तः काञ्चनमौलि वेणुविचरो रस्यश्च मे माधवः॥

“यमुना के मधुर जल से दूर होकर लवणयुक्त समुद्र में जाकर बस गए। आप गोवर्धन का उद्धार करने वाले तथा इन्द्र के अहंकार से लोगों की रक्षा करने वाले एकमात्र आश्रय रहे, अब (उसी हाथ में) काल के समान विख्यात तीक्ष्ण चक्र के धारण करने वाले हैं। हे अपने मस्तक के मयूर पिच्छ को छुपाकर रखने वाले! हे स्वर्ण मुकुट वाले! मुझे तो मेरे नित्य वेणु के साथ विचरण करने वाले माधव (स्वरूप) ही प्रिय हैं।”

ध्याये कीलाललक्तं युगलबिससुमं पञ्चशाखे च रक्तं
रक्ताच्छादं सुवर्णाभरणरुचितमापूरितं प्राप्तरूपम्।
क्रोधाग्न्या दग्धमानाक्ष्यसृगतिभयदं सप्तिसप्तैकचक्र-
-वाहं तिग्मास्रतप्तादितिजरिपुझषाः तोयत्यक्तास्तथैव॥

“मैं उनका ध्यान करता हूँ जो रक्त के समान श्रेष्ठतम (सुर्ख़) लाल रंग के हैं। जिनके हाथ में दो लाल वर्ण के ही कमल पुष्प शोभित हैं। जिनका वस्त्र भी लाल वर्ण का है तथा जो सुवर्णनिर्मित समस्त रुचिकर आभूषणों से भूषित सुन्दरतम दृश्यमान हैं। क्रोधाग्नि से जिनके लाल नेत्र भय देने वाले हैं। जो सात घोड़े तथा एक चक्के वाले वाहन में बैठते हैं तथा जिनकी तीव्र रश्मियों से आतप्त असुर उसी प्रकार त्रस्त रहते हैं जैसे जल से विहीन मत्स्य संत्रस्त रहा करते हैं।”

आकाशे रुचिमण्डले स्मितमुखां पद्मासनां शीभितां
योगीभिर्नटभिर्महोरगमहाबुद्धप्रबुद्धादिभिः।
रक्तालिप्तमिवांशुकं हितवतीं पद्मद्वयं मञ्चितां
देवि त्वामभिवन्दयामि मनसाऽव्यक्ते समग्राम्बिके॥

“आकाश में किरणों से आच्छादित मण्डल के मध्य में हँसती हुई पद्मासन लगाकर बैठीं हुईं, योगी, सर्प, नर्तक तथा बुद्ध प्रबुद्ध आदि के माध्यम से प्रशंसित, रक्त से लिप्त से दिख रहे लाल वस्त्रों को धारण की हुई तथा दो कमल के पुष्पों को ऊपर उठाईं हुईं हे देवि! हे अव्यक्त स्वरूप वाली! हे इस संसार की माता! मैं आपका वन्दन करता हूँ।”

पितुर्भक्त्युद्रेकात् स्वशयकृतमाल्यमतिशुभं
जपाबिल्वैर्जातीबकुलकितवैर्बालरचितम्।
यदास्वीकर्तुं चान्धकरिपुप्रयत्नात् सुमनसा
गणेशाङ्घ्र्योर्स्रस्ता निजगदुरतुल्यान्विधिचयान्॥

“पिता के भक्ति उद्रेक में भगवान् बालगणेश अपने हाथों से निर्मित जपाकुसुम, बिल्वपत्र, जातीपुष्प, धतूरा, बकुल आदि से युक्त माला को भगवान् शिव को समर्पित कर रहे थे। जैसे ही उस मालिका को स्वीकार करने हेतु जैसे ही भगवान् शिव झुके, तभी सारे पुष्प (माला से टूटकर) गणपति के हाथों से उनके चरणों में गिरने लगे। मानों वे अपने सौभाग्य (गणपति के हाथों से भगवान् शिव हेतु समर्पित होना) का वर्णन कर रहे हों।”

वनैकान्ते प्रीतिर्प्रपदितवराङ्गस्यलसिता
सुपश्यन्त्यादर्शे सुमरचितवेण्यारचयिताम्।
शिरास्रेष्वाबद्धाः सुमप्रमुदिता युग्ममदने
स्खलन्ताः सर्वेषु त्रुटिष्वनुक्रपध्वं शुभमयाः॥

“एकान्त वन में भागवान् श्रीकृष्ण की परम प्रेयसी श्रीराधारानी दर्पण में अपनी वेणी को पुष्प से रचते श्रीकृष्ण को देख रहीं हैं। तभी उनके केशों से आबद्ध पुष्प भगवान् कृष्ण तथा श्रीराधिका के प्रेम में आनन्दित होकर गिर गए। वे शुभत्वमय पुष्प सदा ही हमपर कृपा करें।”

श्रीपार्वतीशवपुषाङ्कमुदस्थिताय
नन्द्यादिसन्नयपरार्ध्यसुरेश्वराय।
ह्रस्वाङ्गकुञ्जरभरोत्कटमञ्जुलाय
हेरम्बलम्बजठराय नमो नमस्ते॥

“भगवान् पार्वतीरमण के गोद में बैठे हुए आनन्दमग्न के हेतु, नन्दी आदि समूहगणों के अग्र्य सुरेश्वर हेतु, वामन तथा गज के समान भरे हुए विशाल देह वाले परम सुन्दर हेतु तथा बड़े पेट वाले हेरम्ब हेतु नमस्कार है।”

करचरणमुखश्रीच्यावकं कृच्छ्रकालं
नवकुवलयवर्हं भम्भरव्यूहजालम्।
इव विगलितसस्यं जाम्बवं तद्रसाल-
-ममतिवरशुभाङ्गं नौमि तं नन्दबालम्॥

“हाथ, चरण तथा मुख को मिलाकर हँसने वाले, दुःखों का नाश करने वाले, नए कमलदल के समान भृङ्गयूथ को फँसा लेने वाले, जैसे विगलित रस से भरा जाम का फल हो, (काले होकर भी) चन्द्रमा के समान अंगो वाले नन्द के पुत्र को नमस्कार करता हूँ।”

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