॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

हमारा भारत आज से नहीं, आदि से ही विविधताओं का देश है। यहाँ गांव गांव में प्रथाएं हैं वो भी परिवर्तन के साथ संजोई हुई। वहाँ के गीत, इतिहास आदि उनका ब्यौरा हम सब तक सुलभ कराते हैं। इन्ही विविधताओं के कारण इतिहासकारों के मन में अनेक संशय होते हैं। उनमें से ही एक संशय है कि मोहंजो-दड़ो आदि सिंधु घाटी में उपस्थित पुरातात्विक नगर किस धर्म का पालन करते थे। इस विषय पर चर्चा करें उससे पहले यह जानें कि सिंधु घाटी की सभ्यता है क्या।

इस लेख को हम दो भागों में पढ़ेंगे। पहला भाग तो यही है, दूसरा, “आर्य प्रवास एक झूठ” है।

सिंधु घाटी की सभ्यता क्या है?

सिंधु घाटी की सभ्यता (Indus valley civilization or IVC) दक्षिण एशिया के उत्तरपश्चिमी क्षेत्रों की कांस्य युगीन सभ्यता है। इतिहासविद् इसका कालखण्ड ३५०० – १३०० ई. पू. का बताते हैं।

इस क्षेत्र की खोज चार्ल्स मेसेन ने सन् १८२६ में किया, पश्चात् १९२१ में हड़प्पा का उत्खनन हुआ। अतः यह ब्रिटिश काल के उत्खनन में प्राप्त लुप्त नगरों का समूह है जो कि पाकिस्तानी पंजाब, सिन्ध तथा खैबरपख़्तूनख्वा तथा निकटवर्ती भारतीय क्षेत्रों के आसपास फैला हुआ है। इतिहासविदों ने बताया कि उस समयावधि के अनुरूप इन नगरों की जीवनशैली अत्यंत विकसित तथा सुलझी हुई थी। नेचर आदि पत्रिकाएं इसे ५ से ८ सहस्राब्दि प्राचीन बताते हैं। हरियाणा क्षेत्र में प्राप्त भिरड़ाना के अवशेष ७००० से ८००० वर्ष प्राचीन पाए गए। इतिहासविदों का कथन है कि यह वैदिक काल से भी पुरातन समय के अवशेष हैं। इनका धर्म वैदिक नहीं था। यह विचार आर्यों के युरोप से आने वाली बात से प्रभावित है। किन्तु यह कथन कि आर्य बाहर से आए, आक्रमण किया, या सौहार्द्रपूर्वक बसे, ये चिन्तन काल्पनिक लगता है क्योंकि सनातन धर्म ही सिंधु सभ्यता है। आगे आप जानेंगे कि कैसे।

पुरातात्विक आधार पर सनातन धर्म ही सिंधु धर्म

वहाँ जल की पूजा करना, स्नानागारों में ही विभिन्न प्रकार के अर्चन आदि स्पष्ट संकेत देते हैं। क्योंकि हमारे ग्रन्थों में भी स्पष्ट है कि स्थानविशेष में भिन्न भिन्न मान्यताएं तथा देवाराधन सनातन धर्म में प्रचलित थीं। अतएव वहाँ मन्दिरों का अभाव तथा जल की पूजा, बैल का महत्व आदि वहाँ की स्थानीय मान्यता का अंग होना चाहिये। कुछ लोग ओं आदि के चिह्न भी खोजते हैं। ओं आधुनिक युग में हर गली चौराहे पर लिखा हुआ होता है। इससे इसके तत्व का ह्रास ही हो रहा है। प्राचीन हिन्दू मन्दिरों तक में ओं हर जगह लिखा नहीं होता था, ऐसे में सिंधु घाटी के प्राचीन नगर कोई आश्चर्य नहीं। इन बातों से यह सिद्ध नहीं होता कि मन्दिर नहीं तो हिन्दुत्व नहीं। नीचे चित्रों पर दृष्टिपात करें।

ऊपर जो चित्र १ में आप देख रहे हैं, यह मुद्रा (Seal) बताती है कि नमस्कार सिंधु घाटी के लोगों में शिष्टाचार का मुख्य अंग था। यह सनातन धर्म में अभिवादन का मुख्य स्वरूप है। चित्र २ के अनुरूप देखें तो इसमें नीचे जो सात कन्याएं बनीं हुईं हैं, यह अवधारणा भी सनातन धर्म का संकेत देतीं हैं क्योंकि सात बहनों की अवधारणा सनातन धर्म में भी हैं। सनातन धर्म में सात तथा तीन की संख्या महत्वपूर्ण है। अनेक सिंधु घाटी मुद्राओं में सात या तीन के अंको को दिखाया गया है। सनातन धर्म में सात द्वीप, सात समुद्र, सात किरण, सात घोड़े, बृहस्पति के सात मुख, अग्नि के सात जीभ आदि आदि तथा तीन अहंकार, तीन मुख्य देव, तीन नेत्र आदि आदि प्राप्य है ही, वहीं पुराणों में सात कृत्तिकाओं का वर्णन प्राप्त है जो कि कार्तिकेय की माताएं कहीं जातीं हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में अम्बा, अभ्रयन्ती, मेघयन्ती आदि सात नाम भी सात स्त्रियों का संकेत ही है। वहीं द्रविड भाषाओं में इन्हें पोलेराम्मा, मुथ्यालाम्मा आदि नामों से पुकारा जाता है। ये उपलब्ध मुद्रा (चित्र २) इस बात का भी संकेत करती है कि सिंधु सभ्यता द्रविड थी क्योंकि कृत्तिकाओं तथा कार्तिकेय का द्रविड प्रान्त में आज भी अत्यंत महत्व है।

चित्र ३ में जो मुद्रा है उसमें पीपल का वृक्ष तथा दो सींग वाले घोड़े दृश्य हैं। पीपल के वृक्ष का चित्र तो कई उत्खननों में मिला है। इससे स्पष्ट है कि सिंधु सभ्यता में पीपल का महत्वपूर्ण स्थान था। सनातन धर्म में भी पीपल का महत्वपूर्ण स्थान है। गीता के विभूतियोगाध्याय में भगवान् ने पीपल को स्वयं का स्वरूप बताया है। वृक्षों में पीपल को साक्षात् विष्णु ही माना जाता है। वहीं, अन्य संकेतों का अध्ययन एक अनुसंधानकर्ता रमन माथिवनन ने किया है। रमन Quora के माध्यम से इस चिह्न को शिबि साम्राज्य का चिह्न बताते हैं। आज से ५००० वर्ष पूर्व सिंधु घाटी का वह समस्त क्षेत्र राजा शिबि का ही राज्य था। शिबि के ही नाम पर शाहवान का प्राचीन नाम शिबिस्तान था। चित्र ४ में आप स्वास्तिक मुद्रा देख रहे हैं। स्वास्तिक का महत्व सनातन धर्म में क्या है, ये तो आप सब जानते ही हैं।

चित्र ५ में जो मुद्रा है, उसमें आप बैल तथा कुछ व्यक्तियों का युद्ध देख रहे हैं। यह किसी पर्व की ओर संकेत करता है। किसी समारोह से सम्बद्ध जान पड़ता है। द्रविड प्रान्त में आज भी तमिलनाडु में पोंगल के समय “जल्लिक्कट्टु” नामक खेल आयोजित होता है जिसमें एक बैल तथा बहुंत से व्यक्ति आमने सामने होते हैं।

उस क्षेत्र के उत्खनन में अनेक शिवलिंग आकृतियाँ मिलीं हैं किन्तु अधिकांश वर्तमान के इतिहासविद् पूर्व के आंग्ल इतिहासविदों से प्रभावित उन्हें केवल रास्तों तथा सीढ़ियों की सजावट बताते हैं।

आनुवांशिक साक्ष्य

वास्तव में धर्म पर अनुवांशिकता कोई बंधन नहीं। आनुवांशिकी से हम यह ज्ञात नहीं कर सकते कि वह वंश समूह (Haplogroup) किसी विशेष संस्कृति या सभ्यता से जुड़ा हुआ है या नहीं। तथापि भारतीय उपमहाद्वीप के आनुवांशिक साक्ष्य यह बताते हैं कि इनका इतिहास लगभग ५०,००० से ६०,००० वर्ष पुराना है। इनका वंश समूह आफ्रीका के बाद दूसरा विस्तृत वंश समूह है जिनका विस्तार भारत से युरोपीय देशों तक तथा ऑस्ट्रेलियाई मूलनिवासियों के अंदर भी लगभग ११% विद्यमान है। जो न केवल इनकी विकसितता का प्रमाण है बल्कि यह भी बताता है कि इतने विशाल समुद्र को पार करके वे ऑस्ट्रेलिया तक पहुंच गए थे। अधिक…

अन्य विश्लेषण

चित्र ७

ऊपर चित्र ७ में आप Quora का एक लेख देख रहे हैं जिसमें श्री रमन माथिवनन महोदय बता रहे हैं कि उनके माध्यम से सिंधु घाटी की लिपि के तमिल अनुवाद में २० से भी अधिक स्थानों में “इवि” शब्द को प्राप्त किया है। वे कह रहे हैं कि, “यह द्रविड के संगम साहित्य में पाण्ड्य राजघराने की उपाधि इवि थोलकुण्डी से मिलता जुलता है।” इवि शब्द “शिबि” का ही भ्रंश है। रमन कह रहे हैं कि, “पाण्ड्य नीम तथा पीपल को बड़ा महत्वपूर्ण मानते थे। कुछ पाण्ड्य वंशज स्वयं को “इक्षु वागू” भी कहते हैं।” ये इक्षु वागू “इक्ष्वाकु” का भ्रंश है। साथ ही, हमारा पौराणिक साहित्य द्रविड प्रान्त को ही सूर्यवंश का उद्गम स्थल भी कहता है। जैसे ये प्रमाण देखें…

“योऽसौ सत्यव्रतो नाम राजर्षिर्द्रविडेश्वरः”

– श्रीमद्भागवत ९|१|२

इसमें संकेत है कि “जो सत्यव्रत नामक द्रविड के राजा हुए, वे ही सूर्यपुत्र मनु हो गए।” इनका ही श्राद्धदेव तथा विवस्वत नाम भी है। इनके पुत्र ही इक्ष्वाकु भी थे। अतः द्रविड राजवंशों का स्वयं को इक्ष्वाकु कहना कोई आश्चर्य नहीं। पाण्यों का संबंध या तो इक्ष्वाकु से होगा, या तो शिबि से। यदि ये इक्ष्वाकु के वंशज रहे होंगे तो शिबि के अनन्तर इन पाण्ड्यों को चन्द्रवंशी शिबि से ही सम्बद्ध प्रसिद्धि मिली होगी जिससे कि ये शिबि से जुड़ गए होंगे। द्रविड भाषाओं में इवि का अर्थ प्राचीन भी होता है। पाकिस्तान के उस सिंधु घाटी के क्षेत्र में अनेक नगरों के नाम आज भी द्रविड भाषाओं में ही हैं।

आर्य प्रवास तथा सिंधु घाटी का संबंध तथा इस सभ्यता को वैदिक सभ्यता से भिन्न बताने का उद्देश्य

आर्य प्रवास या आर्य आक्रमण के सिद्धान्त का प्रतिपादन उन आंग्ल अध्येताओं ने किया है जिन्होंने वेद का अध्ययन किया। उनके अनुसार १५०० से १८०० ई. पू. युरोपीय क्षेत्र के मूल वाले कुछ लोग भारत आए तथा उन्होंने या तो सिंधु सभ्यता को नष्ट किया या तो वे शांतिपूर्ण रूप से उनमे सम्मिलित हो गए। इस बात के प्रमाण हेतु आनुवांशिक अध्ययन, भाषाई अध्ययन तथा पुरातात्विक अध्ययनों नाम लिया जाता है। वास्तव में इस सिद्धान्त का पोषक प्रमाण न तो आनुवांशिकी दे पाई, न भाषाई शोध और न ही उत्खननों तथा इतिहास से ही यह साबित हो पाया। विस्तृत जानने हेतु नीचे दिये लेख का अध्ययन करें।

सिंधु सभ्यता को समझने हेतु आपको ऊपर दिये गए “आर्य प्रवास एक झूठ” नामक लेख को अवश्य पढ़ना चाहिये, जहाँ हर प्रकार के प्रमाणों सहित यह सिद्ध किया गया है कि आर्यों का प्रवास एक कोरी कल्पना मात्र है।

आंग्ल अध्येताओं का मात्र यही उद्देश्य था कि शूद्रों को अन्य वर्णों के विरोध में खड़ा किया जाए ताकि भारत में धीरे धीरे ईसाइयत का प्रसार हो। मैक्समुलर आदि जनों के पत्रों से उन सबकी ये मनसा सिद्ध है। “आर्य प्रवास एक झूठ” नामक लेख में इसकी विस्तार से चर्चा है। सिंधु घाटी के उत्खनन हेतु ही भारतीय पुरातत्व विभाग का गठन हुआ। उत्खनन के साक्ष्यों को तोड़ मरोड़ कर आर्य प्रवास से जोड़ दिया गया। भाषाओं का भी युद्ध छिड़ गया। यह भी उन्हीं अध्येताओं की करतूत थी कि जिन्होंने केवल शाब्दिक साम्यता के कारण संस्कृत को युरोपीय भाषा घोषित कर दिया। जबकि युरोपीय भाषाओं के समान ही संस्कृत विश्व के हर भाषा से मेल खाता है। युरोपीय अंग्रेजी आदि भाषाओं का वाक्यविन्यास, कर्ता, क्रिया आदि का स्थान संस्कृत से भिन्न है।

अगस्त्य मुनि के द्वारा निर्मित तमिल भाषा को द्रविड भाषा कह दिया गया, जबक द्रविड स्वयं संस्कृत शब्द है। आज भी तमिल भाषी वैदिक सभ्यता से विद्वेष करते हैं। भारतीय शूद्र आज भी आर्यों से विरोध करते हैं तथा आज भी बड़े पैमाने पर इस सोंच से ईसाई, मुस्लिम तथा बौद्ध हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन कराने में सफल हो रहे हैं।

निष्कर्ष

सनातन धर्म ही सिंधु घाटी का धर्म है। इसके अनेक प्रमाण सिंधु क्षेत्र के पुरातात्विक सर्वेक्षण में मिले हैं। बाल के बीच में रेखा बनाना, चूड़ी पहनना तथा वहाँ की मुद्राएँ, शिवलिंग आदि अनेक प्रमाण उनके हिन्दू होने का सबूत देते हैं। अंग्रेजों के माध्यम से बाइबल के वाक्य कि, ८५०० वर्ष पूर्व सृष्टि चली थी, को झूठा साबित होने से बचाने के लिये तथा भारतीय जनता के मध्य फूट डलवाने के लिये तमिल संस्कृत विवाद, आर्य द्रविण विवाद, आर्य आक्रमण, आर्य प्रवास आदि प्रतिपादित किये गए तथा वेदों को भी मात्र ३५०० वर्ष प्राचीन कहा गया। अंग्रेजों ने हमें हर प्रकार से क्षति पहुंचाई चाहे वह आर्थिक दृष्टि से हो, कि ऐतिहासिक तथा धार्मिक। सनातन धर्म की प्राचीनता का पता कोई नहीं लगा पाया। भिरड़ाना आदि के शोधों से सनातन धर्म लगभग ९००० पहले के संकेत दे चुका। आगे के शोधों की आवश्यकता है जिससे कि और पुरातनता प्रमाणित हो। अगले लेख में और खुलासे पढ़ें जिससे कि आप एक बार पुनः सोंचने पर मजबूर हो जाएंगे।

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