

रचयिता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
कमलयमलचक्षुं यामलैर्वारणानां
महितचरणयुग्मं शुभ्रशोभां शुभाङ्गीम्।
अतिललितकटाक्षो भूतयः सेवकानां
कलितकुमुदमध्येऽधिष्ठितां तान्नमामि॥१॥
जिनके कमल की दो कर्णिकाओं जैसे नयन हैं। जिनके चरण गजयुग्मों द्वारा सदा पूजित है। जो शुभ तथा शुभ्र शोभित अंगों वालीं हैं। जिनका अत्यंत सुन्दर कटाक्ष ही उनके सेवकों का परम धन है, सुन्दर कमल के मध्य में बैठीं उन देवी को मैं नमस्कार करता हूँ।
सहस्रैर्वर्षैर्वा विविधविबुधैर्वाऽथ मुनिभिः
तवैश्वर्यं सर्वं निगमकुलमन्त्रैश्च विदितैः।
कथं जाने क्लिद्यंस्तव महिमदिव्यं हरिप्रिये
परं जाने पद्भ्यां विभवति नतो नैव च भयम्॥२॥
हजारों वर्षों में देवताओं के माध्यम से या मुनियों के द्वारा, वेदों के मंत्रादि के द्वारा आपका ऐश्वर्य को ही गाया गया है। मुझ जैसा (माया से) पीडित हो रहा उस दिव्य महिमा को कैसे जानेगा? हे विष्णु की प्रिया! मैं तो यही जानता हूँ कि जो आपके चरणों के द्वारा पाले गये, उन चरणों के समक्ष झुके मानव हेतु भय नहीं है।
अहम्मत्या लोके न तव परिचर्या विधितया
कृतोऽहं तुण्डेन न च विषयकुण्डेन वपुसा।
न त्वत् क्षन्तुं वेथे जड इव धिया लोकजननि
तथाऽऽशंसे ज्ञात्वा क्वचिदपि कुमाता न भवति॥३॥
अहंकार के कारण इस लोक में मैंने न मुख (वाणी) से और न तो विषयों के समुद्र, इस देह से तुम्हारी सेवा विधिपूर्वक की। न ही मैने अपनी जड जैसी बुद्धि से क्षमा हेतु तुमसे याचना ही की। तब भी हे जगतजननि! कभी भी कुमाता नहीं होती, यह जानकर मैं (क्षमा की) आशा कर रहा हूँ।
कटाक्षेनास्यात्तद्विलसितसुरभ्यक्षहननो
विमुक्तोऽनुक्तो यत्तुरगमुखयुक्तो वियमितः।
जगन्मुग्धे शक्तिस्तव निरुपमा विश्वजननि
रतिं मे पद्माक्षीपदनलिनयोश्चैव कुरुताम्॥४॥
आपके दृष्टिपात मात्र से विलसित कमल के समान नेत्र वाले भगवान् विष्णु का शरीर मस्तक से हीन हो गया। ऐसी उनकी स्थिति कौन जानता है जब वे परवश होकर घोड़े के मुख वाले हो गए थे। हे विश्व को वशीभूत करने वाली! आपकी शक्ति निरुपम है। हे जगज्जननि! आप स्वयं के चरणों में मेरी प्रीति उत्पन्न करें।
न जिष्णोरैश्वर्यो जडभरतवद्भक्तिरबलो
न तेषां लेशांशो गजवरदवृन्दारकप्रिये।
न दातव्यं देवि मयि विकटकल्कं स्वपदयो
-र्गृहीत्वा मृद्नीतादधमगतिगीतेन मुदिता॥५॥
न ही मेरे पास इन्द्र सा ऐश्वर्य है, न ही मुझ बलहीन में जडभरत के जैसी भक्ति ही है। गज पर कृपा करने वाले देव की प्रिया! न तो मेरे पास इन सबका लेशमात्र भी विद्यमान है। मुझमें आपको देने योग्य कुछ नहीं। मुझ अधम की बुद्धि से निःसृत इस गीत से प्रसन्न होकर मेरे इस विकट किल्बिष को अपने चरणों पर ग्रहण करके इसे कुचल डालिये।
यथा माता हस्तौ विषमनिधिव्यस्तौ स्वतरसा
शिशोर्क्रष्ट्रीं रूपं त्वयि सुगमभावैरिव धरे।
अनुज्ञातुं नेच्छा तदपि अयि पाथोजवदने
रतिं मे पद्माक्षीपदनलिनयोश्चैव कुरुताम्॥६॥
जैसे माता अपने शिशु के अनुचित कार्यों में पड़े हुए हाथों को बलात् खींच लेती है, इसी रूप को मैं सुगम भाव से आपपर धारण करता हूँ। यदि इसे स्वीकारने की आपके मन में इच्छा न हो तो भी हे कमल के समान मृदुल देह वाली! आप स्वयं के चरणकमलों में मेरी प्रीति उत्पन्न कर दें।
अहं जाने मातर्द्रवगुणगणैर्यत्र शिशुने
प्रसूस्तस्याभीष्टमवधरति गुप्तं स्मितमुखा।
ममोन्नत्यर्थे त्वं किमपि इह कर्तुं प्रतिरता
जगन्मातश्चाहं यदपि तव पुत्रोऽस्मि भुवने॥७॥
हे माता! मैं एक बात जानता हूँ कि जहाँ एक जननि खेलने की इच्छा से अपने पुत्र के इच्छित वस्तु को छुपाकर हँसती रहती है, वैसे ही आप भी खेल रहीं हैं। आप मेरी उन्नति के लिये कुछ भी करेंगी क्योंकि जो भी हो, आखिर इस संसार में मैं भी तो आपका पुत्र ही हूँ।
जगत्सत्यं वेदमनृतमिति गुञ्जन्ति कविभिः
प्रजाभ्योऽहं जाने चरणनखदीप्त्यै प्रतिगतः।
गतोऽहं त्वत् सेवाविधिनिधिमधीत्योन्नतिमिति
परं नैवापेक्षा किमपि शुभितोऽस्मान्न निखिले॥८॥
यह संसार सत्य है या असत्य है, इस प्रकार ज्ञानियों द्वारा प्रजा हेतु नित्य कहा जाता है। किन्तु मैं आपके चरण के नख की दीप्ति पर समर्पित भाव रखकर आपसे आपकी सेवाविधि की शिक्षा ही चाहता हूँ। उसीसे मेरी उन्नति है। इसके अतिरिक्त मुझे और कोई अपेक्षा नहीं। क्या इस संसार में कोई इसी (सेवासंलग्नता) मात्र से शोभित नहीं हो सकता?
त्वदुत्पन्नास्तृप्ता विधिगिरिशदृप्तावुपवृषा
नियुक्तास्तत्रैवाखिलजगतकृत्येषु गुणतः।
पराशक्तेः रूपं किमिह विदितं नास्ति कमले
मया मन्ये मातर्मम निखिलरूपां त्वमिति च॥९॥
आपसे ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव उत्पन्न होते तथा पोषित, हर्षित होते हैं। वे आपके द्वारा वहीं अपने गुणों के अनुरूप संसार के कृत्यों हेतु नियुक्त किये गए हैं। हे कमला! मेरे द्वारा आप पराशक्ति का रूप कैसा है, यह जाना नहीं गया। हे माता! मैं तो यही मानता हूँ कि आपका यही रूप (आपका कमला स्वरूप) मेरा सर्वस्व है।
रमां प्राप्तुं शीयञ्छविरजितरूपोऽमरसुर
-द्विषोः सङ्ग्रामेण पृथुकमठरूपेण जुगुरे।
तदा लब्ध्वा दीप्तो न च महिमलिप्तस्तव सुत
-स्तथाऽतो मूर्तस्त्वं मम प्रति न चैतावदवतु॥१०॥
रमा को प्राप्त करने हेतु मुरझाती छवि वाले अजित (विष्णु) ने देवता तथा असुरों के युद्ध से तथा विशाल कछुआ बनकर तुम्हे प्राप्त करने का प्रयत्न किया, तब तुम्हे प्राप्त करके शोभित हो पाए। किन्तु तुम्हारा यह पुत्र तो भगवान् विष्णु सम महिमा वाला नहीं है, अतः तुम मेरे प्रति ऐसी निष्ठुर न बनो।
नेच्छामि सर्वविभवाश्च यतस्तु तेषां
सानिध्ययोगगतनिष्ठुरतां च दृष्ट्वा।
धीरैर्धनैर्भुजबलैः कृतवन्दनेन
यत्नेन वा न च समेति सुरेन्द्रपूज्ये॥११॥
मैं ऐश्वर्यों की उपलब्धि से आपकी प्राप्ति में होने वाली कठिनाइयों को देखकर किसी भी ऐश्वर्य की कामना नहीं करता। हे इन्द्र की पूज्या! बुद्धि से, धन से या बल आदि से किये गए पूजन से या अन्य युक्तियों से भी आपकी प्राप्ति संभव नहीं।
वासितासु पृथुकेषु जन्तुषु स्थावरेषु च चरेषु सर्वथा।
दर्शनं तव सदैव प्रेक्षय प्रत्ययेऽखिलविपर्ययोदरि॥१२॥
हे कारण स्वरूपिणी! विश्वप्रपंच की जननी! स्त्रियों में, बालकों में, जन्तुओं में, स्थावरों तथा जंगमों में हर प्रकार से मुझे आप स्वयं का ही दर्शन कराएं।
मयैतत्कथितं सर्वं भावं हृदयगोचरम्।
अतो भवतु हे देवि प्रसन्नो मयि सर्वदा॥१३॥
मेरे द्वारा यहाँ मेरे हृदय में आए सारे भाव कहे गए हैं। अतः हे देवि! आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये।
स्तुतावप्यत्र हे देवि बहवः त्रुटयः कृताः।
तत्सर्वं क्षम्यतां मातः सदैव इव बालिशः॥१४॥
यहाँ आपकी स्तुति में भी मैने बहुत सी त्रुटियाँ कर ही दीं हैं। उन सबके लिये आप मुझे बालक समझकर सदैव क्षमा करें।
अम्बिकेऽहं महद्याप्यस्त्वमेवाघहरे परे।
कोपात्त्वन्नास्ति गन्तव्यं तदेच्छसि तथा कुरु॥१५॥
हे माता! मैं बड़ा निकृष्ट हूँ और आप सबसे बड़ी पापनाशक हैं। आप कोप करेंगी तो मैं कहाँ जाउंगा? तब भी आपको जैसा लगे आप वैसा करें।
॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा विरचितं श्रीरमाऽपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥