॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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ये आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी के बड़े पिताश्री थे। छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिला अन्तर्गत पण्डरिया शहर से दक्षिण-पूर्व की ओर १६ किलोमीटर दूरी पर अँखरा नामक ग्राम है, जहाँ शाकद्वीपीय मग ब्राह्मण परिवार में १६ जून १९४७ के दिन पं. श्री सूरज प्रसाद शर्मा जी का जन्म हुआ। उनके पिताश्री का नाम पं. बृजभूषण प्रसाद शर्मा तथा माताश्री का नाम श्रीमती खेदिया शर्मा था। ये कुल चार भाई थे, जिनमें ये तीसरे थे। इनके ज्येष्ठों का नाम पं. श्री हलधर प्रसाद शर्मा तथा पं. श्री बलदाऊ प्रसाद शर्मा था। इनके एक अनुज थे, जिनका नाम पं. श्री नन्दकिशोर शर्मा है, जो कि अँखरा से ६.५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित सेन्हाभाठा नामक गांव में रहते हैं। इसके अतिरिक्त पं. श्री नन्दकिशोर शर्मा से बड़ी तथा इनसे छोटी एक बहन भी है जिनका नाम श्रीमती सुशीला शर्मा है जो कि कवर्धा के निकट दुल्लापुर में रहतीं हैं।

यदि सूरज प्रसाद शर्मा जी के बाल्यकाल की चर्चा करें तो वह सामान्य ही था किन्तु वे बाल्यकाल से ही प्रखर बुद्धि वाले थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अँखरा के निकटस्थ नगर कुण्डा में हुई। अनंतर, वे आगे की शिक्षा हेतु धमतरी चले गए। धमतरी में किले का हनुमान मंदिर, गायत्री संस्कृत पाठशाला धमतरी, जो कि सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय से सूत्रबद्ध था, वहाँ उन्होंने अध्ययन किया। अपने छोटे भाई को भी वहाँ पढ़ाया। सामवैदिक परिवार में जन्म होने के कारण परिवार में सर्वत्र संगीतमय वातावरण था, फलतः बालक सूरज को बाल्यकाल से ही संगीत में रुचि थी। उनके दोनो बड़े भाई तबला, गायन आदि में प्रवीण थे। सबसे बड़े भैया का सर्वाधिक प्रावीण्य वंशीवादन में था। पं. श्री बलदाऊ प्रसाद शर्मा जी तबला तथा गायन में अधिक प्रवीण थे। इन दोनों अग्रजों को देखकर इन्होंने भी संगीत में क़दम बढ़ाया। पं. श्री सूरज प्रसाद शर्मा गायन में तो प्रवीण थे ही, तबला में इनका अधिक प्रावीण्य था। घर में नित्य अभ्यास तथा निकट के क्षेत्रों में रामायण मंडली, साप्ताहिक, नवधा आदि में प्रदर्शन अनवरत था।


एक समय, किसी स्थान में कार्यक्रम के दौरान किसी कलाकार ने इनके तबला वादन पर प्रश्न उठा दिया। इससे आहत होतक पंडित जी आत्महत्या तक का मन बना बैठे, तब इन्होंने सोंचा कि आत्महत्या तो सहमति होगी, न कि प्रत्युत्तर। प्रत्युत्तर देने हेतु इन्होंने अपने अभ्यास को चरम स्थिति तक बढ़ाया। हाथों में लोहे का कड़ा पहनकर नित्य अनवरत लगभग ८ घंटे अभ्यास करते। इससे इनके वादन स्तर में अद्भुत निखार आया। पंडित जी की ख्याति छिरहा वाले पं. श्री भरत प्रसाद शर्मा जी की रामलीला मंडली से बढ़ी। वहाँ इनका परिचय तत्कालीन संगीत विशारद श्री चंदन सिंह ठाकुर तथा श्री मदन सिंह ठाकुर से हुई। इनके साथ पंडित जी की अच्छी मित्रता हो गई। वे इनके साथ जुगलबंदी किया करते।

संगीत साधना तो चल ही रही थी, साथ ही, अँखरा के निवासियों द्वारा आग्रह किये जाने पर पंडित जी ने रामकथा तथा श्रीमद्भागवत कथा का वाचन भी प्रारंभ किया। उनकी पहली भागवत कथा अँखरा में ही हुई। रुचि कथाक्षेत्र में भी बढ़ी और इस क्षेत्र में भी पंडित जी की खूब कीर्ति व्याप्त हुई। कई स्थानों में रामकथा हेतु जाया करते। उनकी कथाओं में छत्तीसगढ़ी भाषा का ऐसा सुमधुर समावेश होता कि छत्तीसगढ़ी को हिन्दी से इतर मानने वाले भी उनकी रसमयी कथा सुनकर रम जाया करते। धीरे धीरे इनका नाम वहाँ के ख्यातिलब्ध विद्वानों में गिना जाने लगा। अपने सदा प्रसन्नचित्त व्यवहार के कारण छोटों, बड़ों से सदैव इन्हें प्रेम मिला। उस क्षेत्र में संगीत तथा शास्त्रों में अनेक विद्वान् जैसे पं. श्री गोवर्धन प्रसाद शर्मा (कुण्डा), पं. श्री जगदीश प्रसाद शर्मा (कवर्धा दुल्लापुर), पं. श्री द्वारिका प्रसाद शर्मा (रैतापारा) आदि का इन्हें सदा स्नेह मिला किन्तु संगीत में इनकी जुगलबंदी जितनी पं. श्री शिवकुमार शास्त्री (कवर्धा) से जमती, उतनी संभवतः किसी से न जमती। ऊपर लिखित महापुरुष इनके संगीत साधना के पोषक थे। क्षेत्रीय ही नहीं, राष्ट्रीय कलाकारों के साथ राष्ट्रीय मंच पर भी कई बार इनके संगत की सराहना हुई।

२५ वर्ष की उम्र में इनका विवाह कवर्धा नगर से पूर्वोत्तर की ओर लगभग १६ किलोमिटर दूर स्थित सूखाताल नामक ग्राम के निवासी पं. श्री रामशरण शर्मा जी की पुत्री अरुणा देवी से हुआ। उस समय पं. श्री रामशरण जी की केवल एक पुत्री ही थी अतः पं. श्री सूरज प्रसाद शर्मा जी को आकर सूखाताल में रहना पड़ा। अनंतर, उनके प्रिय पण्डित भाई (वे अपने अनुज पं. श्री नन्दकिशोर शर्मा जी को पण्डित भाई कहते थे।) भी कालान्तर में सूखाताल ही आ गए। यहाँ भी पं. श्री सूरज प्रसाद शर्मा जी को अपनी जन्मभूमि के समान ही प्रेम मिला। सूखाताल में चूँकि वो अपने कर्तव्यों के कारण आकर बसे, अतः वे इसे अपनी कर्मभूमि कहते। यहाँ उन्हें प्रथम संतति के रूप में एक बालक प्राप्त हुआ जो कुछ समय बाद न रहा। इसके पश्चात् पं. श्री सुरेश शर्मा तथा पं. श्री उदय शर्मा, ये दो पुत्र तथा श्रीमती श्रुति देवी शर्मा, श्रीमती देवहूति शर्मा तथा श्रीमती ललिता शर्मा, ये तीन पुत्रियाँ हुईं। इन्होंने अपने परिवार के साथ मिलकर सूखाताल में ही अपने अनुज का विवाह किया और बड़े भैया पं. श्री बलदाऊ प्रसाद शर्मा के कहने पर उन्हें उनके पास सेन्हाभाठा भेज दिया। कथा तथा संगीत की सेवा अनवरत चलती रही। इसके साथ ही उनका प्रावीण्य लेखन में भी था। वे छत्तीसगढ़ी काव्य के गुप्त किन्तु सरस गीतकार/कवि थे। कथा के मध्य में ही वे प्रसंगानुसार गीत या कविता बनाकर गा दिया करते जिससे की श्रोता मुग्ध हो जाते। उनकी अधिकांश रचनाएं एक पुस्तिका के गुम जाने के कारण खो गईं, जितने उपलब्ध हैं, उसे हम इस साइट पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

संगीत के न केवल वे विशारद थे अपितु आसपास अनेकों जनों को उन्होंने संगीत सिखाया। आज भी उनके शिष्य या उनको देखकर सीखने वाले संसार में संगीत का विस्तार कर रहे हैं। वे उन सबको बहुत प्रोत्साहित किया करते थे। उस सूखाताल नामक गांव में उनके माध्यम से प्रारंभ किया गया साप्ताहिक रामचरित मानस कथा आज भी प्रतिसप्ताह होती है। उनके दिग्दर्शन में उनके छोटे भाई तथा आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी के पिता पं. श्री नन्दकिशोर शर्मा “पौराणिक” भी भागवत तथा रामकथा के अच्छे विद्वान् हुए।

अपने पुत्रों पुत्रियों का विवाहादि संस्कार भी उन्होंने समुचिततया सम्पन्न किया। जैसे जैसे आयु बढ़ी, संगीत के प्रति प्रेम और बढ़ा। उनके अंतःस्थ कलाकार तथा कथाकार युवा होता चला गया। इतना कि उनके हरिधाम गमन से एक दिन पूर्व शनिवार को अपने गांव सूखाताल में उन्होंने जो रामकथा कही तथा तबलावादन किया, लोगों का कहना था कि वह न भूतो न भविष्यति थी। २२ मई २०१६ को अपनी पत्नि को चिकित्सा के लिये बिलासपुर लेकर गए तथा चिकित्सालय के द्वार पर ही हृदयगति के रुक जाने से संगीत जगत् का जगमगाता सूरज ६९ वर्ष की आयु में अस्त हो गया। जो भी उनसे एक बार भी मिले थे, उनके स्वभाव से परिचित थे, उनके लिये ऐसा उनका अकस्मात् चले जाना बड़ा दुःसह था। उनके प्रेमी ऐसे थे कि, उनकी तेरहवी के कार्यग्रम में आयोजित “संगीतांजलि” में आए उनके अतिप्रिय श्री चंदन सिंह जी ने क्षुब्ध होकर घोषणा कर दी कि, “मेरा संगत करने वाला चला गया। अब मैं कभी नहीं गाऊँगा।” उस दिन के बाद वे गायन से विरक्त हो गए। ऐसे सुस्वभाव के धनी, सरलहृदय पं. श्री सूरज प्रसाद शर्मा जी को नमन नमन करते हैं।

इस वेबसाइट पर इनका ब्यौरा, इनकी रचनाओं को एकत्रित करना एक संरक्षण का उपक्रम है। यहाँ क्लिक करके आप उनकी रचनाओं को पढ़ सकते हैं।

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