लेखक | स्वामिश्री करपात्री जी महाराज |
भाषा | संस्कृत |
प्रकाशक | गौरीशंकर प्रेस |
प्रारूप | |
आकार | 32.4MB |
फाइल संख्या | 1 |
विवरण –
वर्तमान में ऐसे कई भ्रष्ट मत हैं जो वर्णव्यवस्था को जन्मगत नहीं, कर्मगत मानते हैं। किन्तु मानना भिन्न बात है, व्यक्ति मान कुछ भी सकता है किन्तु शास्त्र का मत, जो सर्वोपरी है, आवश्यक नहीं कि व्यक्ति की मान्यता से मेल खाए। शास्त्र का मत ही सर्वमान्य है। भूलवश लोग ऐसे भ्रष्ट पंथों के चक्कर में पढ़ जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ में वर्णव्यवस्था के लिये शास्त्रों का जो मत है, वह लिखा गया है।