॥ घृणिः ॥ ॐ नमो भगवतेऽजितवैश्वानरजातवेदसे ॥ घृणिः ॥

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   प्रणेता – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
   (कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)

न मन्त्रं तन्त्रं वा विविधकुलयन्त्रागमशुची-
-न्न तत्वं मायायास्तवचरणदास्याश्च सचितः।
सितास्तस्या वृत्याऽऽचरणपतिता योग्यविकला
न योग्योऽहं देव तदपि नृमृगेद्रार्तिथयिषे॥१॥

न मैं मंत्र जानता हूँ, न तन्त्र जानता हूँ, न ही विविध प्रकार के यंत्र, वेद तथा शुद्ध्याशुद्ध्याचार ही जानता हूँ। न ही मैं आपकी दासी माया का तत्व ही जानता हूँ। हम मर्त्यवासी इसी माया के स्वभाव से बद्ध हैं, योग्यता तथा अपने आचरणों से भी पतित हैं। न मैं ही आपसे कुछ मांगने के योग्य ही हूँ, तथापि हे नरसिंह! हे देव! मैं आपसे वारंवार याचना कर रहा हूँ।

न यज्ञस्योपायं गुणकथनभक्तेश्च विदिता-
-विधीनामेमीप्सास्थितबधिरभोगावृतकुलः।
न योगाङ्गे पद्माविभुरवमजाल्मस्तव पदे
स्थितोऽहं मेदित्वा शरणदपरं त्वं हि तवसे॥२॥

न ही मैं यज्ञ का उपाय ही करता हूँ। न मैं आपके गुणकथनों की बताई गई विधि से भक्ति ही करता हूँ। मैं इच्छाओं में स्थित रहने वाला, बहरा तथा विभिन्न भोगों से घिरा हुआ हूँ। मैं धृष्ट हूँ। मैं योग के अंगों से भी दूर हूँ किन्तु हे पद्माविभु! हे शक्तिमान्! मैं तुम्हे ही शरणदाता जानकर तुम्हारे चरण में स्थित हूँ।

सहस्रा व्योमेशा उदयगिरिकूटादिव प्रभ-
-स्तथा स्कम्भात्तीव्रप्रलयनिधनाक्रोशकलितः।
प्रचण्डान्शोः तिग्मघृणिरिव जटाकण्ठलुटितः
सदेहो मर्त्यानां मननविटपं वेदगहनम्॥३॥

जैसे हज़ारों सूर्य उदीयगिरि के छोर से उदित हो रहे हों, उसी प्रकार खम्भे से प्रकट हो रहे आप प्रलयकारी तथा दहाड़ से युक्त प्रतीत होते हैं। प्रचण्ड सूर्य की तीक्ष्ण किरणों के समान ही आपके कण्ठ में स्थित जटा लहराती है। आप मनुष्यों के समान देह वाले स्मरणातीत तथा वेदों हेतु भी गहन हैं।

सहस्रैः बाहूनामगणिततराश्चायुधवराः
शनैः साहस्रैश्चाननचरणयुक्तो नरहरे।
शनैः सिंहो धावन् दलति पवनं पावनतमो
भिनत्तीलां तीक्ष्णैर्प्रवहति परागं कुहननः॥४॥

सहस्रों बाहुओं में अनगिनत आयुधों को लिये हुए हैं। हे नरहरि! फिर आप सहस्र सहस्र मुख तथा पैर वाले हो जाते हैं। हे पावन! उसके बाद पाप को समाप्त करने वाले आप वायु को चीरते हुए दौड़ने वाले सिंह हो जाते हैं जो पृथ्वी को तीक्ष्ण नखों से भेदते हुए चारो ओर धूल उड़ा रहा हो।

तवाकारश्चैतावदसदृशवद्भीषणतनू-
-रतो लुप्त्वा वक्षं दितिजवपुषं सारसदलम्।
इवेभोऽन्वेष्टुं च व्यधवति तथा स्म स्वशययो-
-र्नखश्वभ्रस्रस्तौ कथमिह पृथौ केन कथयेत्॥५॥

आपके देह का आकार कुछ इस प्रकार विशाल, भीषण तथा अदृष्ट है कि आपने दितिपुत्र हिरण्यकशिपु के वक्ष को उसी प्रकार फाड़ दिया था जैसे खेल खेल में गज कमल के पत्र को फाड़ देते हैं। इसके उपरान्त जब आपने उस दैत्य के फटे शरीर को खोजने के लिये अपने हाथों को झाड़ा, तब नख के छिद्रों में फँसे दैत्यदेह के दोनों टुकड़े नीचे गिर गये। आपके ऐसे विशाल स्वरूप के विषय में इस पृथ्वी में कौन कुछ कहने का सामर्थ्य रखता है?

सहस्रैः संहारैर्प्रलयपृणिता योगप्रसिताः
सदा द्रष्टुं तत्वं कथमसुरलब्धं दितिसुतम्।
अनायासः क्रोडोत्सुकशिशुनिदाघेन लभते
समासन्नस्तस्मै खलु करुणपारीणपरणम्॥६॥

सहस्रों कल्पों तक प्रलय में भी सदा आनन्दित रहने वाले योगमार्गी जिस तत्व को देखने के लिये सदा योग में लीन रहते हैं, वह तत्व माता दिति के पुत्र असुर को कैसे मिल गया? गोद की इच्छा से आप्त छोटे से बालक के तप से जो उसे मिला, वह उस असुर के लिये अनायास ही प्राप्त हो गया। क्या यह करुणा के सागर का कारुण्य नहीं?

किमायाता नामगुणकथनतः स्रोततटिनी
समायानं सस्याविचलरटनात् केन च श्रुतः।
प्रतीपैर्भावैश्चाप्यदि किमिति दत्तस्तु मननात्
त्वमेते सर्वे चाधमतमदृढं दास्यति न वा॥७॥

क्या नाम तथा गुणों के कथन से नदी समक्ष आ जाएगी? फल का नाम लेने से उसका समक्ष आ जाना क्या किसीने सुना है? क्या हुआ यदि भाव विपरीत है? आपने उसके बाद भी इन सब दैत्यों को दिया ही है। क्या आप अधमशिरोमणि को भी देंगे?

पृथिव्यामस्मिन् कः शशधरधरश्चित्रशरभ-
-स्तथा कस्याः शक्तिरुभयनिकटे दिव्यविभवा।
वृषारूढस्याशीविषद्विषनिसन्नस्य उभये
कथं भेदो भक्तप्रमदपरिहासार्थरचितः॥८॥

इस पृथिवी में चन्द्रमा को धारण किये विलक्षण शरभ कौन हैं? शरभ तथा नृसिंह के मध्य प्रकट हुईं वह दिव्य शक्ति किसकी हैं? वृष में आरूढ़ शिव तथा गरुड़ में बैठे विष्णु, इन दोनों में क्या भेद है? और जो हैं, वह केवल भक्त के आनन्द हेतु रचा गया है।

विहाय त्वामस्मद्धरणिधर को मङ्गलकरः
सदा हीनो दीनस्त्वयि रहितखिन्नो न भवति।
यतो भक्त्या पूर्वे विविधदयनीयाश्च तरिता
नृसिंहस्त्वं देव हनति कलुषाः फेरव इव॥९॥

हे धरणीधर! आपके अतिरिक्त यहाँ हमारा मंगल करने वाला कौन है? जो सदा हीन हैं, दीन हैं वह आपसे रहित होकर दुःखी कभी नहीं होते। क्योंकि पहले भी आपकी भक्ति से बहुंत से असहाय इस भव से तर चुके हैं। हे देव! आप नृसिंह हैं। आप पापों को उसी प्रकार प्रताडित करते हैं जैसे सिंह शृगाल को प्रताडित कर देता है।

यथा ग्राहग्रस्तद्विरतविटपी पुष्करव्रजे
तथा ग्रस्तास्त्रस्ता विभवप्रकृतेर्मोहितजनाः।
यथाऽन्त्रैर्माल्यानि हिरणकशिपोर्भूषितमुदे
अहो लक्ष्मीनाथ दितितनयपुत्रैव दयताम्॥१०॥

जिस प्रकार जंगल में रहने वाला हाथी सरोवर में ग्राह से ग्रस्त हो गया था, उसी प्रकार इस मृत्युलोक की वासना आदि प्रकृति से ग्रस्त तथा त्रस्त हम सब सांसारिक जीव हैं। जिस प्रकार आप हिरण्यकशिपु के आंतों की माला धारण कर आनन्दित होते हुए उसके पुत्र की रक्षा की थी, हे लक्ष्मी के नाथ! आप हमपर भी प्रह्लाद के समान ही दया करें।

प्रह्लादह्लादमोदाय कौशलेन्द्रकृतार्पितम्।
पठन्ति ये नरा भक्त्या न भयं तस्य जायते॥११॥

प्रह्लाद के आनन्द को आनन्दित करने के लिये कौशलेन्द्रकृष्ण जी के माध्यम से लिखित तथा अर्पित इस स्तोत्र को जो भी भक्तिपूर्वक पढ़ता है, उसके सारे भय समाप्त हो जाते हैं।

॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा विरचितं श्रीनृसिंहप्रपन्नस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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