लेखक – आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
(कथावक्ता, श्लोककार, ग्रंथकार, कवि)
प्रश्न: क्या संन्यासी या वानप्रस्थी पुनः गृहस्थ बन सकता है तथा पुत्र आदि उत्पन्न कर सकता है? चूँकि संन्यास में ब्राह्मण को ही अधिकार (“ब्राह्मणाः प्रव्रजन्ति” – जाबाल०, “ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात्” – मनु०) है तथा ब्राह्मण व क्षत्रिय को ही वानप्रस्थ का (“चत्वारो ब्राह्मणस्योक्ता आश्रमाः श्रुतिचोदिताः। क्षत्रियस्य त्रयः प्रोक्तो द्वावेकौ वैश्यशूद्रयोः॥” – वृद्धयाज्ञवल्क्य०), ऐसे में, संन्यासी तथा वानप्रस्थी की संततियों को क्या माना जाएगा?
उत्तर: देखिये। आधुनिक समय में अनेक वंश धारा में हैं जो संन्यासियों से उत्पन्न हैं, ऐसी श्रुति है। उनमें से कुछ अपना मूल जानते हैं, कुछ नहीं। उनमें से कुछ स्वयं को ब्राह्मण समझते हैं तथा कुछ स्वयं को ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ/बड़ा मानते हैं। ऐसे में आपके माध्यम से किया प्रश्न जनसाधारण के मन में आना स्वाभाविक ही है। प्रथमतया, ध्यान रहे कि यहाँ आगे जो भी लिखा जाएगा, वह शास्त्र के वाक्य ही होंगे। हम अपना व्यक्तिगत मंतव्य तो लिखेंगे नहीं। शास्त्र के मत के उपरान्त हमारे व्यक्तिगत मंतव्य को बताने की आवश्यकता भी नहीं। पाठक अपने विवेक का उपयोग करें।
इस विषय में हमने पूर्व ही यूट्यूब में वीडियो बनाकर डाला था। वहाँ भी कुछ ऐसी ही चर्चा की गई है। यहाँ हम उन्ही प्रमाणों सहित कुछ अन्य तथा प्रचलित प्रमाणों की भी चर्चा करेंगे। शास्त्रों में एक विषय से संबंधित अनेक प्रमाण दृश्यमान हैं। ऐसे में किन्ही प्रमाणों से ही अन्य ग्रंथों का मत सिद्ध हो जाता है। सर्वप्रथम हम वानप्रस्थियों की चर्चा करेंगे।
“यस्तु पत्न्या वनं गत्वा मैथुनं कामतश्चरेत्।
तद्व्रतं तस्य लुप्येत प्रायश्चित्ती भवेद्द्विजः॥
तत्र यो जायते गर्भो न संस्पृश्यो द्विजातिभिः।
न हि वेदाधिकारोऽस्य तत्वमप्येवमेव हि॥”जो अपने पत्नि के साथ वन जाकर (वानप्रस्थ ग्रहण करके) कामासक्त हो संसर्ग करता है, उसका वह (वानप्रस्थ) व्रत लुप्त हो जाता है तथा वह प्रायश्चित्त के योग्य हो जाता है। वहाँ उनके संसर्ग से जो गर्भ जन्मता है, वह द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) के स्पर्श योग्य भी नहीं होता। न ही उसे वेदाध्ययन का ही अधिकार होता है। यह भी तत्व ही है।
– विष्णुपुराण ३|९, कूर्मे उपविभागे २६
इससे सिद्ध है कि किसी वानप्रस्थी की तो कामासक्ति ही उसके व्रत को समाप्त करने वाली है। पुत्र के विषय में भी स्पष्ट वर्णन है कि वह द्विजातियों से अस्पृश्य है। ऐसे में आप स्वयं सोंच सकते हैं कि ऐसे वंश को ब्राह्मण कहें कि क्षत्रीय, कि निकृष्ट। इसके उपरान्त संन्यासियों हेतु चर्चा करें, उससे पहले हमें स्मरण रहे कि जिस प्रकार चार वर्णों में ब्राह्मणत्व उत्कृष्ट है, तथैव आश्रमों में संन्यास उत्कृष्ट है। संन्यास लेने वाले हेतु तो देवता भी उनके परिजन के रूप में आकर व्रतभंग का प्रयत्न करते हैं। इससे पता चलता है कि संन्यास धर्म की महत्ता क्या है। ऐसे में मान्य ऋषियों ने हर ग्रंथ में प्रत्यक्ष ही संकेत किया है कि,
“पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद्दारवीमपि।”
काष्ठ से बनी स्त्री की प्रतिमूर्ति को एक संन्यासी अपने पैर तक से स्पर्श न करे।
– श्रीमद्भागवत ११|८|१३
ऐसे में जब काष्ठनिर्मित स्त्रीप्रतिमा की ही वर्जना है, तब अन्य स्त्री (संन्यस्त की पत्नि भी त्यक्ता है) की तो बात ही क्या। सनातन धर्म में कहीं चार तो कहीं छः प्रकार के संन्यासियों का वर्णन है। इनकी उपाधि कुटीचक, बहूदक, हंस, परमहंस, तुरीयातीत तथा अवधूत हैं। इनमें संन्यस्त होने की विधि भी भिन्न भिन्न हैं, धर्म भी किंचित् भिन्न ही हैं। तथापि इन सबों हेतु निम्न वाक्य समान रूप से ग्राह्य है कि,
“आरूढपतितापत्यं ब्राह्मण्यां यश्च शूद्रजः।
सगोत्रोढासुतश्चैव चाण्डालास्त्रय ईरिताः॥”आरूढपतित (जो संन्यस्त होकर उससे पुनः पतित होकर नीचे के आश्रम में आया हो) का, ब्राह्मणी में शूद्र का तथा एक ही गोत्र के युग्म से उत्पन्न, ये तीनों ही चाण्डाल जाने जाते हैं।
– यमस्मृति (शूद्रकमलाकर आदि में भी संदर्भित)
“यस्तु प्रव्रजिताज्जातो ब्राह्मण्यां शूद्रतश्च यः॥
द्वावेतौ विद्धि चाण्डालौ सगोत्राद्यस्तु जायते।”जो प्रव्रजित (संन्यस्त) के द्वारा, ब्राह्मणी में शूद्र के द्वारा उत्पन्न है, वे दोनो चाण्डाल ही हैं। एक ही गोत्र के नर, नारी से उत्पन्न आदि भी चाण्डाल ही होते हैं।
– गरुडपुराण प्रेतकाण्ड (धर्मकाण्ड) अध्याय २५|४२-४३
यहाँ क्या सिद्ध हुआ? यमस्मृति तो गुप्त सा ग्रंथ है, अतः गरुडपुराण से भी प्रमाणित कर दिया गया कि संन्यासी यदि पुनः अपना धर्म छोड़कर पत्नि का संग करे और संतान उत्पन्न करे तब उसका वंश चाण्डाल होता है। वहीं, कलयुग हेतु कहा गया कि कलयुग में केवल गार्हस्थ्य तथा संन्यास ही शेष रहेगा। ब्रह्मचर्य तथा वानप्रस्थ का लोप हो जाएगा।
“ब्रह्मचर्याश्रमो नास्ति वानप्रस्थोऽपि न प्रिये।
– महानिर्वाणतंत्र
गार्हस्थो भैक्षुकश्चैव आश्रमौ द्वौ कलौयुगे॥”
अतः, हमारे ऋषिगण त्रिकालदृष्टा थे। उन्हे ज्ञात था कि एक युग आएगा जहाँ ऐसी संततियाँ होंगी और वे स्वयं को ब्राह्मण कहेंगी। ऐसे में अज्ञानता से उन आरूढपतितों की संतानों को ही संन्यास न मिल जाए, वे आचार्य न हो जाएं, अतएव, उनके (क्योंकि चाण्डाल यदि चाण्डालधर्म का पालन करे तभी उसका उत्थान होगा) तथा पूरे समाज के उत्थान हेतु संन्यासोपनिषत् में स्पष्ट कह दिया कि,
“आरूढपतितापत्यं कुनखी श्यावदन्तकः।
क्षयी तथाऽङ्गविकलो नैव संन्यस्तुमर्हति॥”संन्यास से पतित की संतति, निकृष्ट नख से युक्त, मैले, दुर्गन्धयुक्त दाँत वाले, क्षयरोग ग्रस्त, विकलांग आदि संन्यासधर्म की दीक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं होते।
– संन्यासोपनिषद् २|५
यहाँ तक कि यदि संन्यासधर्म में संन्यस्त संन्यासी के मन में भी गृहस्थ में जाने की इच्छा पुनः जागृत हो, वह भी महापाप ही है, तो गृहस्थ में चले जाने की बात ही क्या। देखिये,
“यः प्रत्यवसितो विप्र प्रव्रज्यातो विनिर्गतः।
अनाशकनिवृत्तश्च गार्हस्थ्यं चेच्चिकीर्षति॥
सञ्चरेत् त्रीणि कृच्छ्राणि त्रीणि चान्द्रायणानि च।
जातकर्मादिभिः सर्वैः संस्कृतः शुद्धिमाप्नुयात्॥”जो विरक्त (जो संन्यस्त नहीं अपितु केवल विरक्त हो) या संन्यासी, या तो अनशनव्रती पुनः गृहस्थाश्रमी होने की इच्छा करे, तो वह तीन कृच्छ्र व्रत करे तथा तीन चान्द्रायण व्रत भी करे। उस हेतु जातकर्म आदि संस्कारों के पुनः करने से शुद्धि प्राप्त होती है।
– याज्ञवल्क्यस्मृति (मिताक्षरा भाष्य), निर्णयसिन्धु परिच्छेद ३ (खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन | संस्करण – अगस्त २०२१ संवत् २०७८ | पृष्ठ – ४१२)
इन समस्त चर्चाओं से आपको आपके प्रश्न का उत्तर भी समुचिततया मिल गया होगा तथा इसके अतिरिक्त चर्चा में और भी प्रकट होने वाले प्रश्नों का भी निराकरण कर ही दिया गया है।